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नंबरों की दौड़ में पिसतीं प्रतिभाएं

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गौरतलब है कि कक्षा 12 की जिस परीक्षा को योग्यता का प्रमाणपत्र माना जा रहा है, उसे व्यावसायिक पाठ्यक्रम वाले कागज का महज एक टुकड़ा मानते हैं. इंजीनियरिंग, मेडिकल, चार्टेड एकाउंटेंट आदि किसी भी कोर्स में दाखिला लेना हो, तो एक प्रवेश परीक्षा उत्तीर्ण करनी होती है.

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सबेरे-सबेरे या देर रात तक स्कूली बच्चे कंधे पर थैला लटकाये इधर से उधर भड़भड़ाते दिख रहे हैं. आखिर उनके बोर्ड के इम्तहान सिर पर आ गये हैं. कहने को तो सीबीएसइ ने नंबर की जगह ग्रेड लागू कर दिया है, लेकिन इससे उस संघर्ष का दायरा और बढ़ गया है, जो बच्चों के आगे के एडमिशन, भविष्य या जीवन को तय करता है. दुनिया क्या ऐसे ही गलाकाट प्रतिस्पर्धा से चलती है? क्या किसी बच्चे की योग्यता, क्षमता और बुद्धिमत्ता का तकाजा महज अंकों का प्रतिशत ही है? वह भी उस परीक्षा प्रणाली में, जिसकी स्वयं की योग्यता संदेहों से घिरी हुई है! यह सरासर नकारात्मक सोच है, जिसके चलते बच्चों में आत्महत्या, पर्चे बेचने-खरीदने की प्रवृति, नकल व झूठ का सहारा लेना जैसी बुरी आदतें बढ़ रही हैं. शिक्षा का मुख्य उद्देश्य इस नंबर-दौड़ में गुम हो गया है.

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छोटी कक्षाओं में सीखने की प्रक्रिया के लगातार नीरस होते जाने व बच्चों पर पढ़ाई के बढ़ते बोझ को कम करने के इरादे से मार्च 1992 में मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने आठ शिक्षाविदों की एक समिति बनायी थी, जिसके प्रमुख प्रो यशपाल थे. समिति ने जुलाई 1993 में अपनी रिपोर्ट सौंप दी. उसमें साफ लिखा गया था कि बच्चों के लिए स्कूली बस्ते के बोझ से अधिक बुरा है ना समझ पाने का बोझ. सरकार ने सिफारिशों को स्वीकार भी कर लिया और एकबारगी लगा कि उन्हें लागू करने की कोशिश भी हो रही है. दो साल पहले आयी नयी शिक्षा नीति में भी बच्चों के कौशल के मूल्यांकन पर कई बातें हैं, पर फिलहाल वे जमीन पर उतरती नहीं दिखतीं. चूंकि परीक्षा का वर्तमान स्वरूप आनंददायक शिक्षा के रास्ते में सबसे बड़ा रोड़ा है, अतः इसके स्थान पर सामूहिक गतिविधियों को प्रोत्साहित व पुरस्कृत किया जाना चाहिए. इसके विपरीत बीते एक दशक में कक्षा में अव्वल आने की गलाकाट प्रतिस्पर्धा में न जाने कितने बच्चे कुंठा का शिकार हो मौत को गले लगा चुके हैं.

समिति की दूसरी सिफारिश पाठ्य-पुस्तक लेखन में शिक्षकों की भागीदारी बढ़ा कर उसे विकेंद्रित करने की थी. नवाचार के लिए बढ़ावा देने की बात भी रपट में थी. अब प्राइवेट स्कूलों को अपनी किताबें चुनने का हक तो मिल गया है, लेकिन यह अच्छा व्यापार बन कर बच्चों के शोषण का जरिया बन गया है. पब्लिक स्कूल अधिक मुनाफा की फिराक में बच्चों का बस्ता भारी करते जा रहे हैं. पुस्तकों को स्कूल की संपत्ति मानने व उन्हें रोज घर ले जाने की जगह स्कूल में ही रखने के सुझाव न जाने कहां गुम हो गये. परीक्षा व परिणामों ने एक भयावह सपने, अनिश्चितता की जननी व बच्चों के नैसर्गिक विकास में बाधा का रूप ले लिया है. कहने को तो अंक सूची पर प्रथम श्रेणी दर्ज है, लेकिन उनकी आगे की पढ़ाई के लिए सरकारी स्कूलों ने भी शर्तों की बाधा खड़ी कर दी है. सवाल यह है कि शिक्षा का उद्देश्य क्या है- परीक्षा में स्वयं को श्रेष्ठ सिद्ध करना, विषयों की व्यावहारिक जानकारी देना या फिर एक अदद नौकरी पाने की कवायद?

निचली कक्षाओं में नामांकन बढ़ाने के लिए सर्व शिक्षा अभियान और अन्य कई योजनाएं संचालित हैं. सरकार हर साल अपनी रिपोर्ट में ‘ड्रॉप आउट’ की बढ़ती संख्या पर चिंता जताती है, लेकिन कभी यह जानने का प्रयास नहीं किया गया कि पसंद के विषय या संस्था में प्रवेश न मिलने से कितनी प्रतिभाएं कुचल दी गयी हैं. एमए और बीए की डिग्री पाने वालों में कितने ऐसे छात्र हैं, जिन्होंने अपनी पसंद के विषय पढ़े हैं? नयी शिक्षा नीति, 2020 के दस्तावेज से यह ध्वनि निकलती थी कि अवसरों की समानता दिलाने तथा खाई कम कर बुनियादी परिवर्तन से शिक्षा में बदलाव आयेगा. दस्तावेज में भी शिक्षा के उद्देश्यों पर विचार करते हुए स्रोतों की बात आ गयी है. उसमें बार-बार आय-व्यय तथा बजट की ओर इशारे हैं. इससे सहज ही प्रश्न उठता था कि आर्थिक व्यवस्था को निर्धारित करते समय ही शिक्षा के परिवर्तनशील ढांचे पर विचार हो जायेगा. सारांश यह है कि आर्थिक ढांचा पहले तय होगा, उसके बाद शिक्षा का.

आजादी के बाद शिक्षा में इतने प्रयोग हुए कि आम आदमी लगातार कुंद दिमाग होता गया. एनसीइआरटी शिक्षा व परीक्षा व्यवस्था बदलने के सपने दिखा रहा है, लेकिन इस साल की प्रतिभाएं तो नंबरों की होड़ में होम हो गयी हैं. गौरतलब है कि कक्षा 12 की जिस परीक्षा को योग्यता का प्रमाणपत्र माना जा रहा है, उसे व्यावसायिक पाठ्यक्रम वाले कागज का महज एक टुकड़ा मानते हैं. इंजीनियरिंग, मेडिकल, चार्टेड एकाउंटेंट आदि किसी भी कोर्स में दाखिला लेना हो, तो एक प्रवेश परीक्षा उत्तीर्ण करनी होती है. वह प्रमाणपत्र बच्चे की उच्च शिक्षा की गारंटी भी नहीं लेता. अनुमान है कि हर साल हायर सेकेंडरी (राज्य या केंद्रीय बोर्ड से) पास करने वाले 40 फीसदी बच्चे आगे की पढ़ाई से वंचित रह जाते हैं. पूरी परीक्षा की प्रक्रिया और नतीजों को बच्चों के नजरिये से तौलने-परखने का वक्त आ गया है.

(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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