17.1 C
Ranchi
Wednesday, February 12, 2025 | 11:42 pm
17.1 C
Ranchi

BREAKING NEWS

दिल्ली में 5 फरवरी को मतदान, 8 फरवरी को आएगा रिजल्ट, चुनाव आयोग ने कहा- प्रचार में भाषा का ख्याल रखें

Delhi Assembly Election 2025 Date : दिल्ली में मतदान की तारीखों का ऐलान चुनाव आयोग ने कर दिया है. यहां एक ही चरण में मतदान होंगे.

आसाराम बापू आएंगे जेल से बाहर, नहीं मिल पाएंगे भक्तों से, जानें सुप्रीम कोर्ट ने किस ग्राउंड पर दी जमानत

Asaram Bapu Gets Bail : स्वयंभू संत आसाराम बापू जेल से बाहर आएंगे. सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें जमानत दी है.

Oscars 2025: बॉक्स ऑफिस पर फ्लॉप, लेकिन ऑस्कर में हिट हुई कंगुवा, इन 2 फिल्मों को भी नॉमिनेशन में मिली जगह

Oscar 2025: ऑस्कर में जाना हर फिल्म का सपना होता है. ऐसे में कंगुवा, आदुजीविथम और गर्ल्स विल बी गर्ल्स ने बड़ी उपलब्धि हासिल करते हुए ऑस्कर 2025 के नॉमिनेशन में अपनी जगह बना ली है.
Advertisement

कर्ज के बोझ से बचाने की कवायद

Advertisement

गैर-निष्पादित परिसंपत्तियों के दबाव के कारण सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को घाटा भी उठाना पड़ रहा है और उन्हें नये कर्ज देने में भी मुश्किलें आ रही हैं. यह स्थिति अर्थव्यवस्था के विकास में बड़ी बाधा बन सकती है. हालांकि इस समस्या पर लंबे समय से चर्चा का बाजार गर्म है और सरकार ने भी […]

Audio Book

ऑडियो सुनें

गैर-निष्पादित परिसंपत्तियों के दबाव के कारण सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को घाटा भी उठाना पड़ रहा है और उन्हें नये कर्ज देने में भी मुश्किलें आ रही हैं. यह स्थिति अर्थव्यवस्था के विकास में बड़ी बाधा बन सकती है. हालांकि इस समस्या पर लंबे समय से चर्चा का बाजार गर्म है और सरकार ने भी समय-समय पर कुछ कदम उठाने की कोशिश की है, लेकिन राहत की सूरत नजर नहीं आ रही है.
अब एक अध्यादेश के जरिये रिजर्व बैंक को विशेषाधिकार देकर हल निकालने के प्रयास किये जा रहे हैं. इस समस्या के विविध आयामों की पड़ताल करता आज का संडे-इश्यू…
बिभाष
आर्थिक मामलों के जानकार
भारत सरकार की तरफ से पिछले कुछ समय से संकेत आ रहे थे कि सरकार बैंकों में बढ़ते डूबंत ऋण खातों के संबंध में कोई सख्त कानून ले आयेगी. गत 4 मई को राष्ट्रपति ने डूबते हुए कर्जों के शोधन के मसले पर द बैंकिंग रेगुलेशन (अमेंडमेंट) ऑर्डिनेंस, 2017 पर हस्ताक्षर कर इसे जारी किया. इस अध्यादेश को तत्काल गजट में प्रकाशित भी कर दिया गया. इस अध्यादेश को इन्सॉल्वेंसी एंड बैंक्रप्सी कोड 2016 की पृष्ठभूमि में जारी किया हुआ बताया गया है.
इस अध्यादेश के द्वारा बैंकिंग रेगुलेशन एक्ट 1949 की धारा 35ए के पश्चात दो नयी धाराएं 35एए और 35एबी जोड़ी गयी हैं. धारा 35एए के अनुसार केंद्रीय सरकार रिजर्व बैंक को आदेश जारी कर अधिकृत कर सकता है कि वो इन्सॉल्वेंसी एंड बैंक्रप्सी कोड, 2016 के अनुसार बैंकिंग कंपनियों को इस आशय का निर्देश जारी करे, जिससे कि ऋण अदा न होने की परिस्थिति में बैंक उन कंपनियों के मामले में दिवाला शोधन की कार्रवाई शुरू कर सके. दूसरी नयी धारा 35एबी के अनुसार रिजर्व बैंक फंसे हुए ऋण खातों के शोधन के लिए समय-समय पर निर्देश जारी कर सकता है. इस प्रावधान के अंतर्गत रिजर्व बैंक डूब रहे बैंक ऋणों के शोधन पर सलाह देने के उद्देश्य से अपने द्वारा अनुमोदित सदस्यों से बनी एक या अधिक प्राधिकारी या समिति की नियुक्ति कर सकता है.
इस अध्यादेश के बाद से बैंकिंग और बैंकिंग सर्किल से बाहर से तत्काल प्रतिक्रियाएं आनी शुरू हो गयीं. सबसे ज्यादा प्रतिक्रिया नयी धारा 35एबी को लेकर आ रही हैं. कई लोगों ने इसका यह कह कर स्वागत किया कि डूबते ऋण शोधन पर सलाहकार प्राधिकारी या समिति की नियुक्ति के कारण बैंक प्रबंधन में व्याप्त डर दूर होगा. सामूहिक निर्णय ऋण शोधन संबंधी नियमों के क्रियान्वयन में तेजी लायेगा. देखने में बात सही भी लगती है. लेकिन, बैंकों की आज की कार्यप्रणाली को देखें, तो पिछली सरकार के समय इसी प्रकार एक निर्णय लिया गया था, क्योंकि बैंक एक्जीक्यूटिव जब व्यक्तिगत निर्णय लेता है, तो कई कारकों से प्रभावित हो सकता है या सही निर्णय नहीं कर सकता है. ऋण के मामले में लिया गया व्यक्तिगत निर्णय खराब ऋण का कारण हो सकता है.
अत: बड़ी राशि के ऋण की संस्वीकृति किसी व्यक्ति विशेष के बजाय एक समिति द्वारा दिया जाना चाहिए. आशा की गयी कि इस व्यवस्था के कारण ऋण संस्वीकृति के समय निष्पक्ष विचार करके अच्छी गुणवत्ता का ऋण जारी किया जा सकेगा. यह व्यवस्था लगभग सात साल से लागू है.
लेकिन, स्थिति में सुधार होने की जगह स्थिति बिगड़ी ही है. अत: यह आशा करना कि कई लोगों को मिला कर बनी समिति सही निर्णय लेने में सक्षम होगी आशावाद की अति ही होगी. रही बात रिजर्व बैंक के ऋण शोधन में सीधे कूदने की, तो किंगफिशर एयरलाइंस का एक उदाहरण इतिहास में दर्ज है. नवंबर 2010 में किंगफिशर का ऋण पुनर्गठन रिजर्व बैंक की देखरेख में ही हुआ था, लेकिन यह पुनर्गठन लागू होने के तुरंत बाद ही फेल भी हो गया.
एक अन्य आपत्ति जो नयी धारा 35एबी के संबंध में उठायी गयी है, वह यह है कि रिजर्व बैंक रेगुलेटर है न कि क्रियाशील बैंक. रिजर्व बैंक बैंकों की कार्यप्रणाली पर तीखी नजर रखता है. उसके सुपरविजन प्रक्रिया के कारण बैंकों की गलतियां लगातार पकड़ी जाती रही हैं, बैंकों के खिलाफ कार्रवाई की जाती है और उन पर फाइन भी लगाया जाता रहा है. लेकिन, इस नये आदेश की वजह से रिजर्व बैंक की बैंकों की कार्यप्रणाली में सीधी भागीदारी हो जायेगी, तब रिजर्व बैंक के क्रियाकलापों को कौन जांचेगा?
दरअसल, देश में सख्त से सख्त कानून हैं डूबते ऋण से निजात पाने के लिए. एक कानून जिसे बैंकिंग क्षेत्र में सरफेसी एक्ट के नाम से जाना जाता है, सन् 2002 में पिछली एनडीए सरकार ने ही लागू किया था.
शुरुआत में बैंकों ने इस कानून की मदद से डूबते ऋणों की अच्छी वसूली भी की थी. बैंकर बहुत खुश थे. बाद में धीरे-धीरे कानूनविद् ऋण लेनेवालों के पक्ष में कानून में लूपहोल निकालना शुरू किये और आज यह कानून लगभग निष्प्रभावी हो चुका है, जैसे पहले के सभी प्रयास जिसमें डीआरटी आदि शामिल हैं निष्प्रभावी हो चुके हैं.
सरकार के पास यह विकल्प है कि अपनी ही पिछली सरकार द्वारा लागू किये गये सरफेसी एक्ट की समीक्षा कर कानून के छेदों को बंद करे.
नये अध्यादेश की रोशनी में तत्काल रिजर्व बैंक ने सीडीआर प्रणाली को ऋणकर्ताओं के पक्ष में औरर लचीला बना दिया है. अब बैंक सीडीआर के निर्णय को मानने के लिए बाध्य हैं, यहां तक कि बैंक का बोर्ड भी प्रासंगिक नहीं रह गया है. यह स्वस्थ परंपरा नहीं है. समस्या दरअसल बैंकों की कार्यप्रणाली में है. अगर बैंक एक्जिक्यूटिव्स सही निर्णय नहीं ले पा रहे हैं, तो उसका निवारण होना चाहिए. बैंकिंग सेक्टर को डर से मुक्त कर स्वतंत्र बनाना चाहिए.
समस्या का एक पहलू सरकार के हाथ में है विकास रुका हुआ है, जिसके कारण परियोजनाएं रुकी हुई हैं और काॅरपोरेट की आमदनी बंद है. इससे भी बड़ी समस्या है काॅरपोरेट की ऋण अदा करने की इच्छा शक्ति का न होना. बैंकों से सभी अपेक्षा रखते हैं कि उनकी रिस्क मैनेजमेंट मजबूत होना चाहिए, उन्हें लगातार अर्थव्यवस्था पर नजर रखनी चाहिए. लेकिन, क्या यह काॅरपोरेट को भी नहीं करना चाहिए, जिससे संकट के समय वो अपने व्यवसाय को संभाल कर बैंक का ऋण भी अदा करें और कुछ कमाई भी करें. बूम पीरियड में सभी बैंक से लाभ उठाते हैं बिना रिस्क का प्रबंधन किये और खराब समय में सब बैंकों पर मढ़ देते हैं. सबको मिल कर इस समस्या का समाधान निकालना पड़ेगा. बैंक को अकेला छोड़ना अर्थव्यवस्था को संकट में डालना होगा.
कैसे हो एनपीए समस्या का हल
इस महीने की तीन तारीख को केंद्रीय मंत्रिमंडल द्वारा बैंकिंग नियमन अधिनियम में संशोधन किया गया ताकि 9.64 खरब (ट्रिलियन) फंसे हुए ऋण का कोई रास्ता निकाला जा सके. सरकार का यह कदम फंसे हुए कर्ज से कराह रहे भारतीय बैंकिंग प्रणाली काे राहत देने के लिए उठाया गया है.
– पिछले लगभग पांच वर्षों से लगातार फंसे हुए कर्ज का ग्राफ बढ़ता ही जा रहा है. ऐसा होने के कई कारण हैं.
– तथाकथित लचर नीतियों के कारण अनेक बड़ी परियोजनाओं को कच्चे माल की आपूर्ति और भूमि अधिग्रहण से संबंधित समस्याओं का सामना करना पड़ा, जिस कारण ये परियोजनाएं बीच में ही अटक गयीं.
– अर्थव्यवस्था के मंदी के दौर में मांग में कमी आने से उद्योगों की वृद्धि में कमी आयी और उनके कर्ज शोधन क्षमता में गिरावट आयी.
– इसके साथ ही कई बैंकों ने बिना पर्याप्त जांच-पड़ताल के उद्योगों को कर्ज दिये, जिस कारण 2008 के वित्तीय संकट से जूझना पड़ा.
अध्यादेश की मंजूरी के बाद आरबीआइ को मिली ताकत
बैंकिंग रेगुलेशन एक्ट, 1949 में संशोधन के लिए लाये गये अध्यादेश को राष्ट्रपति द्वारा मंजूर किये जाने के बाद गैर-निष्पादित परिसंपत्तियों (एनपीए) की समस्या को हल करने और डिफॉल्टरों पर नकेल कसने के लिए आरबीआइ अब कहीं ज्यादा ताकतवर होगा. अध्यादेश की शुरुआत इस वास्तविकता को स्वीकार करते हुए होती है कि बैंकिंग व्यवस्था पर फंसी परिसंपत्तियों का बोझ असहनीय स्तर पर पहुंच चुका है. इस समस्या से निपटने के लिए फौरी तौर पर पहल की जरूरत है.
– किसी भी अनियमितता की स्थिति में आरबीआइ अब किसी भी बैंक को इनसॉल्वेंसी रिजोलूशन के लिए दिशा-निर्देश जारी कर सकेगा.
– फंसी हुई परिसंपत्तियों के मुद्दों को हल करने के लिए आरबीआइ किसी भी बैंकिंग कंपनी को आदेशित कर सकेगा.
– फंसी परिसंपत्तियों से निपटने में बैंकों को सलाह देने के लिए आरबीआइ एक या एक से अधिक अथॉरिटी या कमिटी को नामित कर सकेगा.
कैसे फंस जाता है कर्ज?
बैंक अपने उपभोक्ताओं से जमा प्राप्त करते हैं और उसे किसी कंपनी या किसी व्यक्ति को कर्ज के रूप में देते हैं. इस प्रकार जमा राशि एक देनदारी (उपभोक्ताओं को वापस करना होता है) होती है और कर्ज एक प्रकार से परिसंपत्ति (ब्याज के रूप में बैंक के लिए आमदनी का स्रोत) होता है.
– गैर-निष्पादित परिसंपत्ति (एनपीए) एक प्रकार का कर्ज होता है, जिसके ब्याज और मूलधन का भुगतान कर्जदाता द्वारा बंद कर दिया गया होता है. इस प्रकार परिसंपत्ति का होनेवाला नुकसान बैंक पर पड़ता है. एनपीए बैंक के हानि व लाभ ही नहीं, बल्कि बैलेंस शीट को भी बिगाड़ (क्योंकि कर्ज पर मिलनेवाला ब्याज अवरुद्ध हो जाता है) जाता है.
2015 से 2016 के बीच तेज बढ़ोतरी
भारतीय रिजर्व बैंक ने पिछले जून में जारी अपनी वित्तीय स्थिरता रिपोर्ट में दावा किया कि बैंकों को सकल गैर-निष्पादित अग्रिम अनुपात सितंबर, 2015 से मार्च, 2016 के बीच 5.1 प्रतिशत से बढ़ कर 7.6 प्रतिशत हो गया. सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की कार्यप्रणाली को बेहतर बनाने के मकसद से सरकार ने पिछले फरवरी माह में पूर्व नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक विनोद राय की अगुवाई में एक स्वायत्त बैंक बोर्ड ब्यूरो का गठन किया.
6 लाख करोड़ का हो चुका है एनपीए
फंसा हुआ कर्ज बैंकिंग व्यवस्था का अहम हिस्सा है. गत दिसंबर माह के अंत तक बैंकिंग सिस्टम पर एनपीए का बोझ 6 लाख करोड़ रुपये हो चुका है. दरअसल, वर्ष 2008-09 के बाद से एनपीए में तेजी से बढ़ोतरी हुई है. वित्त वर्ष 2016-17 की पहली छमाही में कुल अग्रिमों में फंसे हुए कर्ज की हिस्सा 9 प्रतिशत था. यह स्थिति सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के साथ और भी भयावह है, जहां कुल अग्रिमों का 12 फीसदी तक एनपीए हो चुका है.
फंसे कर्ज का संक्षिप्त इतिहास
वर्ष 2000 के आखिर तक इन्फ्रास्ट्रक्चर सेक्टर में क्रेडिट आधारित जबरदस्त उछाल का दौर आया था. वित्त वर्ष 2004-05 से 2008-09 के बीच गैर- खाद्य क्षेत्र बैंक क्रेडिट (खाद्य क्षेेत्रों के इतर अन्य सेक्टर को दिये गये कर्ज) दोगुना हो गया और जीडीपी के सापेक्ष निवेश (विशेषकर निजी क्षेत्र में) भी तेजी से बढ़ा. ऊर्जा से लेकर इस्पात और दूरसंचार तक ढांचागत क्षेत्र से जुड़े लगभग हर सेक्टर ने अपना व्यवसाय बढ़ाने के लिए कर्ज लिया और बैंकों ने भी दिल खोल कर कर्ज बांटे.
वर्ष 2012 में शुरू हुए नीतिगत अपंगता के दौर के साथ यह दौर खत्म हो गया. सुधारवादी काम अवरुद्ध हो गये, कई योजनाएं अधर में अटक गयी और औद्योगिक विकास ने गर्त का रुख कर लिया. वर्ष 2007 से 2011 तक फंसे कर्ज का हिस्सा कुल अग्रिमों का 2.3 से 2.5 प्रतिशत के बीच रहा. साल 2012 के अंत तक फंसे कर्ज का हिस्सा 3.1 प्रतिशत पर पहुंचा, उसके बाद से बढ़ते हुए फंसे कर्ज का आंकड़ा पीछे मुड़ कर नहीं देखा.
– भारतीय रिजर्व बैंक के दिसंबर की फाइनेंशियल स्टैबिलिटी रिपोर्ट के मुताबिक, बैंक के कुल कर्ज का 56 प्रतिशत और कुल गैर निष्पादित संपत्तियों का 88 प्रतिशत बड़े कर्जदारों के पास है.
– इस संबंध में पिछले महीने वित्त मंत्री अरुण जेटली ने कहा था कि 40 से 50 बड़े कॉरपोरेट कर्जदारों पर कार्रवाई करके इस संकट से बचा जा सकता है.
– अगर बैंक इन संपत्तियों का पुनर्मूल्यांकन करे और और उसे परिसंपत्ति पुनर्निमाण कंपनियों या निजी इक्विटी फंड को बेच दे, तो इस समस्या का समाधान निकल सकता है.
रिजर्व बैंक को ऐसे सशक्त करना समाधान नहीं
अभिजीत मुखोपाध्याय
अर्थशास्त्री
राष्ट्रपति ने बीते गुरुवार को भारत सरकार के एक और अध्यादेश पर मुहर लगा दी. इस अध्यादेश में बैंकिंग रेगुलेशन एक्ट की धारा 35ए में संशोधन कर रिजर्व बैंक को गैर-निष्पादित परिसंपत्तियों (एनपीए) और फंसे हुए कर्जों के निपटारे के लिए सशक्त बनाया गया है. इस समस्या के बोझ से हमारे बैंक बुरी तरह से दबाव में हैं. इस पहल के बाद मीडिया में बेशुमार टिप्पणियां आयी हैं.
इसमें कोई दो राय नहीं हैं कि एनपीए की समस्या बेहद गंभीर है जो निकट भविष्य में बड़े संकट को पैदा कर सकती है. सबसे पहले इस समस्या को समझने की कोशिश करते हैं. एनपीए वास्तव में बैंको के फंसे हुए कर्ज हैं. वैसे कर्ज जिनकी वसूली नहीं हो सकती है या फिर जिनके डिफॉल्ट होने की आशंका होती है, उन्हें एनपीए की श्रेणी में रखा जाता है. फंसे हुए कर्जों के भी कई स्तर हैं.
इन फंसे हुए कर्जों की वसूली न हो पाने का एक मतलब यह भी है कि बैंकों ने कर्ज देते समय वापसी को सुनिश्चित करनेवाले पहलुओं को नजरअंदाज किया जिस वजह से ऐसे कर्ज ‘बुरे’ कर्ज बन गये. ऐसे फंसे हुए अधिकांश कर्ज सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों द्वारा दिये गये हैं.
रिपोर्टों की मानें, तो दिसंबर, 2016 तक सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के ऐसे कर्ज की राशि 6.07 लाख करोड़ के स्तर तक पहुंच चुकी है, जबकि मार्च, 2016 के अंत तक यह रकम 5.02 लाख करोड़ थी. इसका एक अर्थ यह है कि जिस अवधि में एनपीए के बढ़ते बोझ पर चिंताएं जतायी जा रही थीं, उस दौरान एक लाख करोड़ से अधिक रकम इस डूबे खाते में और जुड़ गयी.
देखने में लगता है कि यह नया फ्रेमवर्क विभिन्न तरह के इन परिसंपत्तियों के निपटारे की जुगत लगायेगा और सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को परिसंपत्तियों की आम नीलामी के लिए दिशा-निर्देश जारी करेगा. सभी बैंकों के शीर्ष के 40-50 एनपीए के निपटारे में हो रही प्रगति पर नजर रखने के लिए अब रिजर्व बैंक को निगरानी समितियां बनाने का अधिकार होगा. बैंकों के सूत्रों के अनुसार, कुल एनपीए का करीब 60 फीसदी इन शीर्ष के डूबे कर्जों में आ जायेगा.
इसमें ज्यादातर कंपनियां इंफ्रास्ट्रक्चर, ऊर्जा और इस्पात में लगी हुई हैं.वित्त मंत्री ने भी इंगित किया है कि सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को पूंजी उपलब्ध कराने से संबंधित समझौते में त्वरित नकद राहत, खर्च में कटौती, परिसंपत्तियों की बिक्री, अलाभप्रद परिसंपत्तियों को बंद करने और एनपीए के सक्रिय प्रबंधन से जुड़े प्रावधान होंगे. यह भी उल्लेखनीय है कि रिजर्व बैंक दबाव में परिसंपत्तियों का अध्ययन कर रहा है.
जैसा कि पहले कहा गया है, अधिकांश एनपीए सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के हैं और निजी क्षेत्र के बैंकों पर यह बोझ बहुत कम है. इस लिहाज से यह सरकारी बैंकों की समस्या है, जिसके समाधान की कोशिशें पहले भी हो चुकी हैं. जून, 2015 में रिजर्व बैंक ने स्ट्रेटिजिक डेट रिस्ट्रक्चरिंग की पहल की थी जिसके तहत बैंकों को एनपीए के एक हिस्से के बराबर कर्जदार कंपनी में बड़ी हिस्सेदारी लेने की अनुमति दी गयी थी और बैंकों को कंपनी को चलाने का नियंत्रण लेने का अधिकार दिया गया था.
इस हिस्सेदारी को बैंक डेढ़ साल तक बिना परिसंपत्ति को एनपीए घोषित किये रख सकते थे. इस अवधि के बाद बैंकों को हिस्सेदारी का नया खरीदार खोजने का प्रावधान था. इस पहल के तहत दो दर्जन से अधिक कंपनियों का नियंत्रण लिया गया, लेकिन बैंक खरीदार नहीं खोज सके और यह कोशिश बुरी तरह से नाकाम साबित हो गयी.
ऐसी असफलताओं को देखते हुए अब यह सवाल खड़ा होता है कि क्या इस नये अध्यादेश में पहले की कोशिशों की तुलना में कुछ ठोस समाधान के उपाय हैं या नहीं. इस पहल से अनेक लोगों, यहां तक कि बाजार, में भी बहुत उत्साह नहीं है.
रिजर्व बैंक अब बैंकों को निर्देश जारी कर सकता है, यह निश्चित रूप से एक सकारात्मक बदलाव है. परंतु, केंद्रीय बैंक अपने स्तर पर अकेले एनपीए की समस्या का सामना नहीं कर सकता है, यह बात भी तय है. कठोर निगरानी आगे के एनपीए पर अंकुश लगाने की क्षमता रखती है, लेकिन मौजूदा मसले का क्या हल है?
अगर खबरों पर भरोसा करें, तो वित्त मंत्री ने माना है कि बहुत कंपनियों पर एनपीए नहीं है. यानी, इसका मतलब यह है कि रिजर्व बैंक समस्या का समाधान कर सकता है. लेकिन, अधिकांश मामलों में बैंकों को पूंजी उपलब्ध कराना ही अंतिम उत्तर है, और साधारण शब्दों में कहें, तो बैंकों के बोझ की भरपाई सार्वजनिक कोष से की जाये. रिजर्व बैंक को बैंकों की निर्णय-प्रक्रिया में हस्तक्षेप का अधिकार देने से क्या समस्या का हल निकल जायेगा? बहरहाल, अध्यादेश के विवरण का ठीक से अध्ययन करना जरूरी है, लेकिन इसमें संदेह है कि यह नयी पहल कारगर हो सकेगी.
इसके उलट, अगर बहुत ज्यादा कंपनियों पर ऐसे फंसे हुए कर्ज नहीं हैं, तो फिर डिफॉल्टरों की सूची सार्वजनिक करने में क्या दिक्कत है, और फिर इस समस्या पर खुली बहस भी की जा सकती है. पूर्ववर्ती सरकारें यह साहस नहीं दिखा सकीं, मौजूदा सरकार भी ऐसा नहीं कर पा रही है. पहले के रवैये की तरह ही समस्या का सीधे सामना करने के बजाये इसे लटकाने की प्रवृत्ति ही अपनायी जा रही है.
उधारी कारोबार में गिरावट
– एनपीए की समस्या के कारण भारतीय कंपनियों के उधारी कारोबार में कमी आयी है.
– पूंजी के कमी से जूझते बैंक अपने बैलेंस शीट को तेजी से विस्तार नहीं दे पा रहे हैं.
– कंपनियों को कर्ज देने में बैंक डर रहे हैं.
– सिस्टम क्रेडिट ग्रोथ 5 प्रतिशत के आस-पास रुका हुआ है
ऋण शोधन क्षमता में आयी कमी
– भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा अनेक योजनाओं की शुरुआत करने के बावजूद ऐसे कर्ज बढ़ते गये, जिनके चुकाये जाने की संभावना बेहद कम थी. इस समस्या का मूल कारण भारतीय फर्मों की ऋण शोधन क्षमता में गिरावट आना था. इसी कारण डूबते कर्ज की राशि बढ़ती चली गयी.
– क्रेडिट स्विस के अनुमान के मुताबिक, लगभग 40 प्रतिशत कर्ज ऐसी कंपनियों में फंसे हुए हैं, जिनका ब्याज दर एक प्रतिशत से भी कम है.

ट्रेंडिंग टॉपिक्स

संबंधित ख़बरें

Trending News

Advertisement
Advertisement
Advertisement

Word Of The Day

Sample word
Sample pronunciation
Sample definition
ऐप पर पढें