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बच्चों को बचपन जीने का पूरा हक मिले

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चिंता : टेंशन और डिप्रेशन ने हमारे बच्चों की जिंदगी को मुश्किल में डाल िदया है रंजना कुमारी, सेंटर फॉर सोशल रिसर्च बचपन हमारी जिंदगी का एक खूबसूरत वक्ती टुकड़ा होता है, जिसके संवरने का अर्थ है जिंदगी का अच्छी तरह से संवर जाना. लेकिन, भारत में जिस तरह से शहरीकरण बढ़ा, उसमें बच्चों के […]

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चिंता : टेंशन और डिप्रेशन ने हमारे बच्चों की जिंदगी को मुश्किल में डाल िदया है

रंजना कुमारी,

सेंटर फॉर सोशल रिसर्च

बचपन हमारी जिंदगी का एक खूबसूरत वक्ती टुकड़ा होता है, जिसके संवरने का अर्थ है जिंदगी का अच्छी तरह से संवर जाना. लेकिन, भारत में जिस तरह से शहरीकरण बढ़ा, उसमें बच्चों के लिए ‘स्पेस’ ही नहीं है कि वे अपने बचपन को खुल कर जी सकें. खुल कर जीने के लिए उन्हें एक ऐसा स्पेस चाहिए, जो उन्हें थोड़ी देर को आजादी देता हो. खेलकूद से न सिर्फ शारीरिक, बल्कि मानसिक विकास भी होता है. गांवों में तो फिर भी कुछ ठीक है कि वहां बच्चे आसपास के खेत-खलिहान बाग-बगीचों में खेलकूद लेते हैं. लेकिन, शहरों में तो हालत इतनी खराब है कि बच्चों को पार्क तक नसीब नहीं होते. पार्कों में इतनी तरह की हिदायतें होती हैं कि बच्चे वहां खुद ही खेलने जाने से हिचकिचाते हैं. शहरीकरण ने उन्हें एक दड़बे में बंद कर दिया है, जहां वे तकनीक के सहारे खेल तो खेल लेते हैं, लेकिन वे खेल उन्हें हिंसक बनाने के सिवा उनके किसी अच्छे काम नहीं आते.

मौजूदा भारत में बचपन जितने तनाव से गुजर रहा है, शायद ही पहले कभी ऐसा रहा हो. बिल्कुल छोटे उम्र के बच्चों में भी तनाव देखा जा रहा है, और यह उनके भविष्य के लिए भयावह स्थिति पैदा करनेवाला है. छोटी उम्र से ही उन पर पढ़ाई का बोझ हो या फिर नयी शिक्षा प्रणाली में अच्छे नंबर लाने का बोझ हो, बच्चे इससे उबर ही नहीं पा रहे हैं. इसमें जिम्मेवार दोनों हैं- शैक्षिक संस्थान और अभिभावक. आजकल के स्कूलों में सिर्फ पढ़ाई-पढ़ाई तो है, लेकिन खेलों के लिए कोई जागरूकता नहीं है.

आखिर एक मासूम सा बच्चा कितना पढ़ेगा? ऊपर से होमवर्क देकर भेज दिया जाता है कि वह घर पर भी सिर्फ पढ़ाई ही करता रहे. पढ़ाई जरूरी है, लेकिन खेलकूद और उसे बचपन के अन्य अधिकार मिलने भी जरूरी है. बच्चों की जिंदगी में समय ही नहीं रह गया है कि वे एक-दूसरे से आपस में जुड़ें और अपनी बातें शेयर करें. यह समय उन्हें खेल दे सकता है. आज हम खेलों में कितना पीछे हैं, जबकि दुनिया में छोटे-से-छोटा देश भी बड़ी-बड़ी खेल प्रतियोगिताओं में हमसे ज्यादा मेडल ले आते हैं. इस शिक्षा प्रणाली काे बदलने की जरूरत है, नहीं तो बच्चों के लिए यह बोझ की तरह होगा और फिर उनका विकास होने के बजाय उनमें नकारात्मकता ज्यादा आयेगी.

हम ऐसे समय में रह रहे हैं, जहां संयुक्त परिवार टूट रहे हैं और एकल परिवार बढ़ रहे हैं. एकल परिवार उसी तरह की व्यवस्था है, जैसे शहरीकरण में एक कमरे में बंद होकर जीने की मजबूरी.

संयुक्त परिवार में अगर किसी बच्चे को मां-बाप डांट भी देते हैं, तो उस बच्चे का समर्थन करने और उनके दर्द को बांटने का काम दादा-दादी, चाचा-चाची आदि कर लेते हैं. तब उसे लगता है कि उसका साथ देनेवाला भी कोई है, उसे प्यार करनेवाले लोग हैं. संयुक्त परिवार में बच्चे की सारी जरूरतें अलग-अलग तरीके से पूरी हो जाती हैं. जो चीज मां-बाप से नहीं मिलता, वह चीज चाचा-चाची या बुआ से मिल जाती है. लेकिन, एकल परिवार में यह संभव नहीं है और ऐसे में किसी बात पर बच्चे को जब मां-बाप डांटते हैं, तो उस बच्चे में तनाव जड़ जमाने लगता है. वह किसी से कुछ कह भी नहीं सकता, खुद में ही घुटता रहता है.

फिर या तो मोबाइल या किसी तकनीकी उपकरण में हिंसक गेम खेलेगा या फिर अपने मानसिक स्थिति को नकारात्मक बनायेगा. आजकल मां-बाप अपने काम घर पर लेकर चले आते हैं, जिसके चलते बच्चों को वे वक्त ही नहीं दे पाते और बच्चा टीवी देख कर ही अपनी समझ विकसित करता रहता है. ये सारी चीजें बड़ी ही चिंताजनक हैं. बचपन को बचाने का उपाय यही है कि उन्हें अपने बचपन को जीने का पूरा वक्त मिले. समाज, सरकारों, शैक्षिक संस्थाओं, अभिभावकों, और परिवारों को चाहिए कि बच्चों को यह वक्त दें. यही वक्त उन्हें हर तरह से मजबूत बनायेगा और बचपन को बचपन बनायेगा.

(वसीम अकरम से बातचीत पर आधारित)

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