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विदेश नीति के जानकारों की आकांक्षा पड़ोसियों से मधुर हों रिश्ते

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अंतरराष्ट्रीय मंच पर किसी देश को प्रतिष्ठा दिलाने में उसकी विदेश नीति की बड़ी भूमिका होती है. इस लिहाज से देखें तो बीता साल भारतीय विदेश नीति के लिए एक मिला-जुला साल रहा. जहां प्रधानमंत्री के विदेश दौरों और दुनिया के कई नेताओं के भारत दौरों से देश की प्रतिष्ठा बढ़ी, नये समझौते हुए, निवेश […]

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अंतरराष्ट्रीय मंच पर किसी देश को प्रतिष्ठा दिलाने में उसकी विदेश नीति की बड़ी भूमिका होती है. इस लिहाज से देखें तो बीता साल भारतीय विदेश नीति के लिए एक मिला-जुला साल रहा.
जहां प्रधानमंत्री के विदेश दौरों और दुनिया के कई नेताओं के भारत दौरों से देश की प्रतिष्ठा बढ़ी, नये समझौते हुए, निवेश बढ़ने की उम्मीद जगी, वहीं नेपाल और पाकिस्तान जैसे पड़ोसी देशों से मधुर रिश्ते बनाये रख पाने में हमारा देश कामयाब नहीं हो सका. ऐसे में विदेश मामलों के जानकारों की साल 2016 से उम्मीदों और आकांक्षाओं को साझा कर रहा है आज का नववर्ष विशेष.
आर्थिक विकास से ही विश्व पटल पर बढ़ेगी ताकत
– ललित मानसिंह
पूर्व विदेश सचिव और अमेरिका व ब्रिटेन में उच्चायुक्त रह चुके हैं.
नये साल और आनेवाले समय में विदेश नीति के समक्ष चुनौतियां कम नहीं है. लेकिन इस पर बात करने से पहले बीते साल की नीतियों और उपलब्धियों पर नजर डालना चाहिए.
विदेश नीति के मोर्चे पर वर्ष 2015 एक सफल साल रहा. प्रधानमंत्री मोदी ने विदेश नीति के मूलभूत सिद्धांतों में कोई बदलाव नहीं किया, लेकिन उनकी सरकार ने कूटनीति की नयी नीति पर काम किया. कह सकते हैं कि मोदी की विदेश नीति सक्रियता से पूर्ण रही. उन्होंने व्यक्तिगत रिश्तों को महत्ता प्रदान कर विदेश नीति को सफल बनाने की कोशिश की. उन्होंने 2015 में कई देशों का दौरा किया और उनका ध्यान देश के आर्थिक और सामरिक हितों पर रहा.
बीता साल अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा के भारत दौरे से शुरू हुआ था. इस यात्रा के दौरान विशेष सामारिक संबंध बनाने की दिशा में कदम उठाया गया. मोदी की अमेरिका यात्रा के दौरान भी कई आर्थिक और सैन्य समझौतों पर हस्ताक्षर किये गये. इसके बाद जापान के साथ अति महत्वपूर्ण परमाणु समझौता किया गया और सैन्य सहयोग बढ़ाने पर भी सहमति बनी. जापान ने भारत में 35 बिलियन डॉलर निवेश करने का भरोसा दिया. इससे निवेश के मामले में जापान भारत का सबसे बड़ा सहयोगी देश बन गया.
मोदी ने आस्ट्रेलिया का भी सफल दौरा किया और यूरेनियम की सप्लाई पर सहमति बनी. फ्रांस और ब्रिटेन दौरे के दौरान कई आर्थिक और सैन्य सहयोग किया गया. मोदी ने संयुक्त अरब अमीरात का भी दौरा किया. 1980 में इंदिरा गांधी के बाद यह किसी प्रधानमंत्री का पहला दौरा था. खाड़ी देशों पर बीते 30 साल से ध्यान नहीं दिया गया था. तेल के मद्देनजर खाड़ी देश भारत के लिए काफीमहत्वपूर्ण हैं.
साल के अंत में प्रधानमंत्री का रूस दौरा भी काफी सफल रहा. पिछले कुछ सालों से रूस से बेहतर संबंध बनाने पर ध्यान नहीं दिया गया था. शीत युद्ध के दौर में रूस ने भारत को आर्थिक और सैन्य यानी सभी तरह की मदद मुहैया करायी, लेकिन बाद में संबंध कमजोर हुए. मोदी के दौरे से एक बार फिर दोनों देशों के संबंधों को मजबूती मिली है. अफगानिस्तान का दौरा कर प्रधानमंत्री ने वहां भारत के महत्व को स्थापित करने का काम किया है.
नये साल की प्रमुख चुनौतियां
विदेश नीति के एजेंडे में आर्थिक विकास को आगे बढ़ाने की दिशा में काम करने को भी रखा जाता है़ प्रधानमंत्री के कई विदेशी दौरों का मूल मकसद आर्थिक विकास को गति देना ही रहा है. आर्थिक विकास के लिए तकनीक हस्तांतरण से लेकर विदेशी मदद बेहद जरूरी है. मौजूदा समय में भारत के आर्थिक प्रदर्शन के कारण ही विदेशी निवेशकों का भरोसा भारतीय बाजार के प्रति बढ़ा है.
अगर भारत और तेज गति से आर्थिक प्रगति करेगा, तभी यहां बड़े पैमाने पर निवेश की संभावना बनेगी. अगर भारत की आर्थिक प्रगति मंद होगी, तब निवेशकों का भरोसा कमजोर होगा. यही कारण है कि प्रधानमंत्री मोदी के विदेशी दौरे का मकसद भारत में अधिक से अधिक निवेश के समझौते करना है. चीन आज आर्थिक तौर पर काफी आगे बढ़ चुका है, लेकिन चीनी अर्थव्यवस्था में मंदी के संकेतों के बीच नये साल में भारत के लिए काफी संभावनाएं मौजूद है. अगर भारत आर्थिक तौर पर सशक्त होगा तो चीन की ताकत का मुकाबला कर सकेगा.
सामरिक सुरक्षा पर ध्यान जरूरी
भारतीय सुरक्षा को कई मोर्चे से खतरा है. चीन के साथ लगभग 4 हजार किलोमीटर लंबी सीमा है. उसी प्रकार पाकिस्तान हमेशा से सुरक्षा के लिए खतरा रहा है. समुद्री क्षेत्र में चीन लगातार अपनी गतिविधियां बढ़ाता जा रहा है. समुद्री क्षेत्र में भारत को घेरने के लिए चीन कोलंबो में अपनी गतिविधियां बढ़ा रहा है. हाल में ही चीनी पनडुब्बी वहां देखी गयी थी.
वियतनाम में चीन भारत को वहां तेल खनन कार्य नहीं करने की धमकी दे रहा है. व्यापार के लिए समुद्री रास्ते का सुरक्षित होना बेहद आवश्यक है. इसे देखते हुए भारत को सामरिक सुरक्षा बढ़ाने के साथ ही सैन्य क्षमता बढ़ाने पर भी जोर देना चाहिए. रूस, जापान, आस्ट्रेलिया के सहयोग से समुदी सुरक्षा को पुख्ता करने की दिशा में काम करना चाहिए. मौजूदा समय में भारत और चीन की सुरक्षा तैयारियों के बीच काफी फासला है. इस फासले को कम करने की दिशा में सरकार को कदम उठाने की जरूरत है.
दो पड़ोसी देशों से निबटना है
चीन और पाकिस्तान अलग-अलग देश हैं, लेकिन भारत की सुरक्षा के लिए खतरा दोनों पड़ोसी देशों से है. भारत के लिए चीन मौजूदा समय में खतरा नहीं है, लेकिन लंबी अवधि में बड़ा खतरा बन सकता है. पाकिस्तान लंबी अवधि में खतरा नहीं रहेगा, लेकिन मौजूदा समय में एक बड़ा खतरा है. पठानकोट एयरबेस में हुआ आतंकी हमला इसका उदाहरण है.
आतंकवाद के कारण पूरी दुनिया में पाकिस्तान अलग-थलग पड़ चुका है, लेकिन एकमात्र चीन ही है, जो उसे सैन्य सहायता के साथ आर्थिक सहायता भी मुहैया कराता है. पाकिस्तान का न्यूक्लियर प्रोग्राम चीन के सहयोग से ही आगे बढ़ा है. पाकिस्तान के ग्वादर में बंदरगाह के निर्माण में चीन सहयोग दे रहा है. अमेरिका भी पाकिस्तान को आर्थिक मदद दे रहा है, लेकिन उसके दूसरे कारण है. ऐसे में पाक और चीन से निबटना एक गंभीर सवाल है. भारत को कमजोर करने के लिए चीन मोहरे के तौर पर पाकिस्तान का प्रयोग कर रहा है.
अन्य पड़ोसी देशों के साथ रिश्ते
प्रधानमंत्री ने लगभग सभी पड़ोसी देशों के दौरा किया है. भूटान, बांग्लादेश, अफगानिस्तान के साथ नेपाल का दो बार दौरा किया. हाल में पाकिस्तान भी गये. सरकार की पड़ोसी देशों के साथ संबंध बहाली की कोशिशों के नतीजे मिलेजुले रहे. लेकिन सबसे बड़ी असफलता नेपाल को लेकर है.
आज नेपाल के साथ रिश्ते सबसे निचले स्तर पर हैं. मधेशी आंदोलन के कारण भारत से होनेवाली सप्लाई पर असर पड़ा है. वहां के लोगों का सोचना है कि भारत जान-बूझकर आर्थिक नाकेबंदी कर रहा है. यह भारत के लिए चिंता की बात है. इसके कारण नेपाल सरकार चीन के साथ नजदीकी रिश्ता बना रही है.
भारत और नेपाल के लोगों के बीच सांस्कृतिक और पीपुल टू पीपुल रिश्ता काफी पुराना और प्रगाढ़ रहा है. लेकिन, आर्थिक परेशानियों के कारण हम नेपाली लोगों की सद्भावना खो रहे हैं. अगर नेपाल में चीन का दखल बढ़ता है तो भारत की सुरक्षा के लिए गंभीर संकट खड़ा हो जायेगा.
भूटान, म्यांमार, बांग्लादेश के साथ संबंध सामान्य हैं. पाकिस्तान के साथ संबंधों को बेहतर करने की कोशिश की जा रही है, लेकिन इसकी संभावना कम दिखती है. ऐसे में 2016 में पड़ोसी देशों के साथ बेहतर संबंध बनाना भारत के सामने बड़ी चुनौती है, जिसके लिए कोशिश जारी रखनी चाहिए.
विश्व मंच पर मजबूत उपस्थिति
भारत को विश्व का प्रमुख खिलाड़ी बनने के लिए संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् का स्थायी सदस्य बनने की कोशिश करनी होगी. हमेशा से भारत की चाहत रही है कि वह इसका स्थायी सदस्य बने. अमेरिका, रूस, फ्रांस और ब्रिटेन सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता के लिए भारत का समर्थन कर रहे हैं. लेकिन चीन ऐसा नहीं चाहता है. इसमें चीन के समर्थन के साथ ही भारत को अमेरिका का सक्रिय सहयोग चाहिए. अमेरिका के सक्रिय सहयोग के बिना भारत की उम्मीदें परवान नहीं चढ़ सकती है.
इसके अलावा भारत को चार अन्य महत्वपूर्ण अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं- न्यक्लियर सप्लायर ग्रुप, मिसाइल टेक्नोलॉजी रिजिम, आस्ट्रेलिया ग्रुप और वासेनर- में शामिल होने की कोशिश करनी होगी. ये संस्थाएं परमाणु क्षेत्र में भारत की महत्ता को साबित करने में सफल होगी.
इन संगठनों का सदस्य बने बिना भारत विश्व पटल पर प्रमुख देश नहीं बन सकता है. भारत को एपेक का सदस्य बनने की भी कोशिश करनी चाहिए. भारत के आर्थिक विकास के लिए ट्रांसपेसिफिक पार्टनर बनना बेहद अहम है.
विनय तिवारी से बातचीत पर आधारित
2015 में खींची गयी लकीर को कायम रखने की चुनौती
– शशांक
पूर्व विदेश सचिव
पिछले साल अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कई ऐसी चीजों की नींव डाली गयी, जिन पर इस साल बात तेजी से आगे बढ़ने की संभावना है. आर्थिक क्षेत्र की बात करें, तो निजी सेक्टर में भले ही कुछ देरी हो, लेकिन सरकारी सेक्टर में समझौतों को अमल में लाने में देरी नहीं होनी चाहिए. खास कर रक्षा उत्पादन के क्षेत्र में बात आगे बढ़नी चाहिए. प्राइवेट सेक्टर की साझेदारी से रक्षा उत्पादन में तेजी आ सकती है.
विदेश नीति के लिहाज से पिछले वर्ष बड़ी लकीरें खींची गयी हैं और इस वर्ष उन्हें कायम रखने की चुनौती होगी. इस मामले में ज्यादा नाटकीय नतीजे भले ही न दिखाई दें, लेकिन धीरे-धीरे इस दिशा में जरूर आगे बढ़ा जा सकता है. अमेरिका, रूस, चीन और जापान जैसे बड़े देशों के साथ समय-समय पर आयोजित अंतरराष्ट्रीय स्तर के सम्मेलनों में बातचीत आगे बढ़ती रहेगी.
जहां तक पाकिस्तान के साथ संबंध की बात है, तो पड़ोसी देश की लीडरशिप में यह विचार स्पष्ट नहीं है कि वहां की सरकार और सेना भारत में फैलाये जा रहे आतंकवाद को कितना रोक पायेंगे. हाफिज सईद टाइप के लोग पाकिस्तान में सवाल कर रहे हैं कि वहां की सरकार को भारत के साथ सख्ती से पेश आना चाहिए. इसके मद्देनजर पहले खुद पाकिस्तान की सरकार को मजबूत होना होगा. इस मामले में भारत ने आगे बढ़ कर अच्छी पहल की है.
पाकिस्तान में इस वर्ष सार्क शिखर सम्मेलन होना है और ऐसे में भारत का कदम कुछ नतीजों तक पहुंच सकता है. दोनों के बीच कनेक्टिविटी बढ़ाने पर बात इस वर्ष आगे बढ़ सकती है. दोनों देशों के बीच आर्थिक और व्यापारिक संबंधों में सुधार हो सकता है. आतंकवाद की पुरानी घटनाओं की जांच को आगे बढ़ाया जा सकता है और दोषियों को सजा हो सकती है. साथ ही कुछ समय बाद आतंकी घटनाएं कम हो सकती हैं.
नेपाल के साथ संबंधों में जो खटास आयी है, उसे भारत की विदेश नीति की विफलता नहीं कहा जा सकता. दरअसल, वहां जो आंतरिक गतिरोध पैदा हुई है, वह उनका घरेलू मामला है और भारत उसमें दखल नहीं देना चाहता. इसमें दिक्कत यह है कि नेपाल की तमाम राजनीतिक पार्टियां भारत और चीन जैसे पड़ोसी देशों का इस्तेमाल अपने हितों के अनुरूप करना चाहती हैं.
नेपाल दरअसल चीन और भारत को आपस में भिड़ाने की जुगत में रहता है. नेपाल में तराई के लोगों को ज्यादा अधिकार न देने को लेकर जो आंदोलन हो रहा है, उसमें भारत की भूमिका नहीं कही जा सकती. संविधान में मधेशियों को कुछ कम अधिकार दिये गये हैं, लेकिन यह उनका अपना मसला है. मधेशी सत्ता में भागीदारी चाहते हैं, जो पहाड़ी नहीं देना चाहते हैं.
पड़ोसी देशों के बीच तल्ख संबंध होने के कारण आसियान इकोनॉमिक कम्युनिटी बनाना मुश्किल हो रहा है. यदि इस दिशा में आगे बढ़ा जाये, तो आपसी कारोबार बढ़ाने में मदद मिल सकती है. अंतरराष्ट्रीय नियमों-कानूनों को यदि कारोबारी लिहाज से लचीला बना दिया जाये, तो इससे सभी आसियान देशों को फायदा होगा.
कांग्रेस की गलती न दोहराये भाजपा
– सीपी भांबरी
विदेश मामलों के विशेषज्ञ
भारत की विदेश नीति में पाकिस्तान को सबसे अहम समझा जाता है, क्योंकि जब तक पाकिस्तान से संबंध अच्छे नहीं होंगे, तब तक अफगानिस्तान और ईरान से आनेवाली तेल और गैस पाइपलाइन का कुछ नहीं होगा. पाकिस्तान को भी भारत से व्यापार बढ़ाने में ही फायदा है.
जब तक भारत और पाकिस्तान के बीच वर्किंग रिलेशनशिप अच्छे नहीं होंगे, दक्षिण एशिया डिस्टर्ब रहेगा. भले ही ये रिलेशनशिप गहरी दोस्तीवाले न हों, पर भारत की विदेश नीति में इस वर्ष ‘मिनिमम लेवल आॅफ नाॅरमेलसी’ प्राथमिकता में होनी ही चाहिए. अमेरिका और इंग्लैंड के दबाव में ही सही, बीते 25 दिसंबर को प्रधानमंत्री मोदी पाकिस्तान गये, जो अच्छा प्रयास रहा. पाकिस्तान पर भी बातचीत के लिए इन देशों का दबाव था.
पठानकोट जैसे हमले अभी आगे भी जारी रह सकते हैं और भारत में राजनीतिक सिरफिरे इस पर चिल्लाते रहेंगे. उन्हें समझना होगा कि आतंकवाद एक दिन में बंद नहीं होता, इसलिए बातचीत होती रहनी चाहिए. यह इसलिए भी जरूरी है, क्योंकि दोनों देशों के बीच संबंध उलझे हुए हैं.
इसलिए 25 दिसंबर को की गयी शुरुआत अच्छी थी. हालांकि, नरेंद्र मोदी ने खुद को भी इस संबंध में पहले बेहद सीमित रखा था, लेकिन वे पाकिस्तान गये. यह बहुत अच्छा संकेत है. भाजपा का पाकिस्तान के प्रति पहले से ही विरोधात्मक रवैया रहा है, फिर भी इस पार्टी ने यह पहल की है, जिसकी सराहना करनी चाहिए. अब देखना यह है कि क्या पाकिस्तान को लेकर भाजपा का रवैया बदल गया है?
विदेश नीति के लिहाज से वर्ष 2016 का बड़ा सवाल यह है कि क्या अमेरिका, इंग्लैंड का प्रेशर काम कर रहा है? भारत और पाकिस्तान, दोनों देशों में रोड़े अटकाने वाले बहुत लोग हैं.
भारत में ऐसे लोग कहते हैं कि आतंकवाद खत्म हुए बिना बातचीत नहीं करेंगे, तो पाकिस्तान में कहते हैं कि कश्मीर समस्या का समाधान हुए बिना बात नहीं करेंगे. इससे दोनों देशों को नुकसान है. इससे अफगानिस्तान और आसपास के अन्य देशों के साथ हमारा संपर्क कायम नहीं हो पायेगा. ईरान से गैस और तेल नहीं आ पायेगा. बड़बोलेपन और आपस में गाली-गलौज करने से कुछ हासिल नहीं होगा.
पिछले साल भारत ने नेपाल को अपने खिलाफ कर लिया है. असल में मोदी सरकार को यह समझ में नहीं आया कि नेपाल से कैसे डील किया जाये. भारत को समझना होगा कि नेपाल के पास रणनीतिक तौर पर भारी ‘चाइना कार्ड’ है और उसके लिए केवल आप ही रहनुमा नहीं रह गये हैं.
नरेंद्र मोदी ने विदेशों में भारतीयों को इकट्ठे कर जो ‘शो’ किये हैं, उनका निहितार्थ यही है कि वहां जो भारतीय हैं, वे इनके शो में आ जाते हैं. ऐसे तमाशे से विदेश नीति तय नहीं होती. विदेश नीति में बहुत सारी चीजों का ख्याल रखना होता है. विदेश नीति में सदैव ‘मिनिमम लेवल आॅफ नाॅरमेलसी, मिनिमम वर्किंग रिलेशनशिप एंड नेगोसिएशन इन द एंड’ पर जोर दिया जाता है और यही 2016 का एजेंडा होना चाहिए. नेगोशिएसन और बातचीत जारी रहनी चाहिए.
पाकिस्तान के साथ संबंध को लेकर मनमोहन सिंह वही करना चाहते थे, जो अब नरेंद्र मोदी ने किया है. लेकिन, कांग्रेस ने अपने कार्यकाल के दौरान 10 साल मनमोहन सिंह को पाकिस्तान नहीं जाने दिया. इतिहास में अपना नाम दर्ज कराने के लिए उनके पास बड़ा मौका था.
पाकिस्तान से उन्होंने हिंदुस्तान के संबंधों को जोड़ने का प्रयास भी किया, लेकिन कांग्रेस के चंद आॅसीफाइड (जिनकी सोच पर पत्थर पड़े हों) नेताओं ने उन्हें सफल नहीं होने दिया. 25 दिसंबर को मोदी के पाकिस्तान दौरे का भी इन कांग्रेसी नेताओं ने विरोध किया था. कांग्रेस ने संबंधों की बहाली की दिशा में नकारात्मक रवैया अपनाते हुए देश का बड़ा नुकसान किया है. भाजपा भी शायद उसी रास्ते पर चलती, लेकिन उसने अमेरिका और ब्रिटेन के दबाव में ही सही, पर अपनी सोच को बदला और बातचीत शुरू की. जो क्रेडिट कांग्रेस को मिलता, आज उसे भाजपा ले गयी.
हमें नये साल में पाकिस्तान और चीन के साथ हर हाल में संबंध सुधारने होंगे. अमेरिका को तो साथ आना ही होगा. उसे भारत का बाजार चाहिए. हमारा रक्षा व्यय बहुत ज्यादा है.
भारत रक्षा सामग्रियों का दुनिया में सबसे बड़ा आयातक देश है. सालाना करीब 40 हजार करोड़ रुपये का रक्षा सामग्रियों का आयात भारत जैसे गरीब देश के लिए बड़ा बोझ है. इतनी बड़ी रकम से देश के प्रत्येक बच्चे को स्वास्थ्य और शिक्षा की सुविधा मुहैया करायी जा सकती है. इस संबंध में भी आपको प्राथमिकता तय करनी होगी.
(कन्हैया झा से बातचीत पर आधारित)
2016 में पीएम की कुछ संभावित विदेश यात्रा
1. देश : चीन
स्थान : हेंगझू, तिथि : 4 – 5 सितंबर.
मकसद : जी-20 सम्मेलन.
2. देश : लाओस
स्थान : विएनटाइन, तिथि : नवंबर में संभावित. मकसद : ईस्ट एशिया समिट.
3. देश : पाकिस्तान
स्थान : इसलामाबाद, तिथि : सितंबर से नवंबर के बीच संभावित.
मकसद : सार्क समिट.
4. सऊदी अरब की संभावित यात्रा
खबरों के मुताबिक, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को सऊदी अरब आने का आमंत्रण प्राप्त हुआ है. अगले माह यानी फरवरी में हो सकता है कि प्रधानमंत्री रियाद की यात्रा पर जायें.
5. न्यूक्लियर सिक्योरिटी समिट
31 मार्च से 1 अप्रैल के दौरान वॉशिंगटन, अमेरिका में न्यूक्लियर सिक्योरिटी समिट (एनएसएस) का आयोजन किया जायेगा. ‘व्हाइट हाउस’ की प्रेस विज्ञप्ति के मुताबिक, वैश्विक सुरक्षा के मद्देनजर परमाणु आतंकवाद से जुड़ी चुनौती के संदर्भ में इस सम्मेलन का आयोजन किया जायेगा. खबरों के मुताबिक, भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी इस सम्मेलन में शिरकत कर सकते हैं.
6. इंडिया- इयू समिट
ब्रुसेल्स में इस वर्ष की पहली छमाही के दौरान इंडिया-यूरोिपयन यूिनयन समिट का आयोजन किया जायेगा. ‘बिजनेस स्टैंडर्ड’ की एक रिपोर्ट के मुताबिक, पीएम इस सम्मेलन में शिरकत कर सकते हैं.
7. गुट-िनरपेक्ष समिट
तेल संपदा में समृद्ध और लैटिन अमेरिकी देश वेनेजुएला में इस वर्ष जुलाई में नाम सम्मेलन आयोजित किया जायेगा. भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इसमें शिरकत कर सकते हैं. ‘इकॉनोमिक टाइम्स’ की रिपोर्ट के मुताबिक, प्रधानमंत्री इसके अलावा अन्य लैटिन अमेरिकी देशों की यात्रा भी कर सकते हैं.
8. भारत- जापान वार्षिक सम्मेलन
भारत-जापान के बीच वार्षिक सम्मेलन बारी-बारी से दिल्ली और टोक्यो में आयोजित किया जाता है. इस वर्ष यह सम्मेलन जापान की राजधानी टोक्यो में आयोजित किया जायेगा. खबरों के मुताबिक, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस सम्मेलन में हिस्सा ले सकते हैं.
भारत में होगा ब्रिक्स सम्मेलन
इस वर्ष ब्रिक्स (ब्राजील, रूस, इंडिया, चीन और साउथ अफ्रीका) समिट का आयोजन नयी दिल्ली में किया जाना है. ब्रिक्स का यह आठवां शिखर सम्मेलन होगा.
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