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राम के चरित्र की प्रेरणा का मंचन

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अमितेशरंगकर्म समीक्षक रामकथा की व्याप्ति की तरह उसके प्रदर्शन परंपरा के अलग-अलग रूपों की व्याप्ति भी रही है और जिसकी वैश्विक उपस्थिति भी है. रामकथा को श्रोताओं-दर्शकों के बीच पेश करने की परंपरा के चार पक्ष रहे हैं- मौखिक, साहित्यिक, प्रदर्शन और रूपांकन. इन चारों परंपराओं में मौखिक और प्रदर्शन परंपराओं की लोकप्रियता अधिक रही […]

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अमितेश
रंगकर्म समीक्षक

रामकथा की व्याप्ति की तरह उसके प्रदर्शन परंपरा के अलग-अलग रूपों की व्याप्ति भी रही है और जिसकी वैश्विक उपस्थिति भी है. रामकथा को श्रोताओं-दर्शकों के बीच पेश करने की परंपरा के चार पक्ष रहे हैं- मौखिक, साहित्यिक, प्रदर्शन और रूपांकन. इन चारों परंपराओं में मौखिक और प्रदर्शन परंपराओं की लोकप्रियता अधिक रही है, क्योंकि इसकी पहुंच सहजता से आम जनता तक रही है.
प्रदर्शनकारी रूपों में सबसे अधिक लोकप्रियता रामलीला की है, जिसे नवरात्र के ही दिनों में देश के अलग-अलग हिस्सों में अलग-अलग तरीकों से मंचित किया जाता है. बिहार में दुर्गा पूजा के लिए लगनेवाला मेला तो रामलीला के मंचन के लिए उपयुक्त माहौल भी बनाता है.
रामलीला एक नाट्यरूप है, लेकिन नाट्यरूप होते हुए भी इसमें भक्ति का तत्व शामिल है, इसलिए यह लीला है. राम एक अवतार हैं और इस पृथ्वी पर लीला करने के लिए अवतरित हैं, इसलिए उनकी लीला का मंचन उसके करनेवालों और देखनेवालों को भौतिक और आध्यात्मिक आनंद देता है. व्यापक लोकविश्वास भी है कि रामकथा के दर्शन या श्रवण से मनोकामनाएं पूरी होती हैं और मोक्ष भी मिलता है.
भक्ति की इस अवधारणा का विस्तार यह नाट्यरूप करता है, इस कारण भी राम की कथा के नाटकीय मंचन को नाट्य नहीं कहते हैं, बल्कि लीला कहते हैं, क्योंकि इसमें भक्ति और अनुभूति, श्रद्धा और प्रेम, दर्शन और श्रवण के साथ आस्था और मनोरंजन का समावेश है. रामलीला मंचन की बहुधा परंपरा में तो धार्मिक कर्मकांड का भी समावेश होता है.
रामकथा के अलग-अलग नाटकीय रूप
रामकथा के प्रदर्शन की परंपरा अतिप्राचीन है, लेकिन उत्तर भारत में अपने जिस आधुनिक स्वरूप में इसकी उपस्थिति है, उसे भक्तिकालीन कवि तुलसीदास के समय से जोड़ कर देखा जाता है. तुलसीदास ने अयोध्या में चैत्र मास में और काशी में आश्विन मास में रामलीला की परंपरा की शुरुआत की, इसमें उनका सहयोग काशी के मेघा भगत ने की थी. काशी में यह परंपरा आज भी मौजूद है.
तुलसीदास कृत रामचरितमानस में तो विविध कथा प्रसंगों की योजना ही ऐसी नाटकीय और संवाद परक है कि रामलीला के मंचन में इसकी चौपाइयों का इस्तेमाल होता है. रामनगर की रामलीला में रामचरितमानस के अलावा गीतावली, रामलला नहछू के अंशों का भी इस्तेमाल होता रहा है.
समय के साथ पाठ में बदलाव लाने के लिए केशवदास की रामचंद्रिका के अंशों को भी रामलीला में शामिल किया गया है. रामलीला के पाठ को पारसी नाटककार पंडित राधेश्याम कथावाचक ने बहुत प्रभावित किया, अपनी हिंदी और उर्दू मिश्रित सहज बोलचाल की भाषा में ‘राधेश्याम रामायण’ लिखा, जो अत्यंत लोकप्रिय है.
पाठ में बदलाव का यह काम आज भी चलता रहता है, जहां एक तरफ तो समकालीन स्थितियों के अनुरूप पाठ में पात्र ही बदलाव करते रहते हैं और स्थानीय भाषा और दर्शकों के अनुकूल भी पाठ में बदलाव होता रहता है. नाटककार भी रामकथा को अलग-अलग तरीकों से नाटकीय रूप में बांधने की कोशिश करते रहते हैं. जिससे लीला का विस्तार होता है.
पात्र और दर्शकों के लिए रामलीला
रामलीला धार्मिक परंपरा होते हुए भी सामुदायिक और सामाजिक परंपरा है और जिसमें समाज की सहभागिता से लीला का रंग जमता है. आखिर क्या कारण है कि एक ही कथा को, जिसे सभी कमोबेश जानते ही हैं, साल दर साल दर्शक देखने के लिए जमा होते रहते हैं?
इसका एक कारण तो धार्मिक जुड़ाव है. दूसरा कारण है कि अधिकतर रामलीला, जिसमें भव्यता में संपन्न होनेवाली चमक-दमक वाली रामलीलाओं को छोड़ दिया जाए, तो एक ही मोहल्ले या समाज के लोग ही पात्र बने होते हैं और दर्शक भी उसी समाज का अंग होता है.
पात्र और दर्शकों का जुड़ाव स्थापित होता रहता है. राम बरसों से राम बन रहे हैं, रावण बरसों से रावण. ऐसे में समाज के बीच के व्यक्ति द्वारा की जानेवाली भूमिका में इस साल नया क्या है, यही देखने के लिए दर्शक पहुंचते हैं या साल-दर-साल कैसे अभिनेता अपना दम-खम बरकरार रखे हुए है, यह भी देखने के लिए पहुंचते हैं. रामलीला में ऐसा होता है कि किसी खास दिन खास लीला को देखने के लिए भी दर्शक अधिक जमा होते हैं.
दोहराव में जो मनोरंजन होता है, उसका एक अलग आकर्षण होता है. चमक-दमक वाली मंडलियां अपना आकर्षण बढ़ाने के लिए अलग-अलग प्रयोग करती रहती हैं, जिसमें सिने अभिनेताओं से लेकर राजनेताओं तक को अभिनेता बनाया जाता है.
लीला की विभिन्न शैलियां
रामलीला एक परंपराशील नाट्य भी है. परंपराशील नाट्य की विशेषता होती है कि यह जिस समुदाय या स्थान पर खेला जाता है, तो उसके अनुकूल उसकी शैली में परिवर्तन होता जाता है, कथावस्तु कमोबेश एक जैसी होती है.
महाभारत और रामायण की कथाओं के मंचन की इस तरह की विविध परंपरा भारत में मिलती है. यक्षगान और थेरुकुट्टु क्रमशः कर्नाटक और तमिलनाडु में मंचित किये जाते हैं, लेकिन उनका शिल्प अलग है, कथा महाभारत से ही रहती है. इसी तरह रामलीला मंचन की भी विविध शैलियां हैं.
काशी में ही अस्सी में अलग रामलीला होती है और रामनगर की रामलीला अलग, जो अपने बहुस्थलीय मंचन के लिए प्रसिद्ध है. दिल्ली में तो रामलीला कमेटियों के बीच भव्यता की होड़ लगी रहती है और तकनीक में परिवर्तन के कारण मंचन और प्रकाश व्यवस्था की आधुनिक तकनीक के साथ रामलीला का मंचन होता है. साथ ही छोटी-छोटी मोहल्ला कमेटियां भी रामलीला में आकर्षण पैदा करने के लिए अलग-अलग उपक्रम करते रहते हैं.
दिल्ली में श्रीराम भारतीय कला केंद्र शास्त्रीय नृत्य को आधार बना कर रामलीला करता है, जो बहुत ही लोकप्रिय है. इलाहाबाद में रेलवे कॉलोनी, कटरा और पत्थरचट्टी की रामलीलाएं बहुत प्रसिद्ध हैं. यहां की रामलीला अपनी शोभायात्रा के साथ ही अपनी समावेशी संस्कृति के लिए भी जानी जाती है, जिसमें हिंदू-मुसलमान एक साथ दर्शक और प्रदर्शक दोनों ही रूप में शामिल होते हैं. कुमायूं, अलवर, इत्यादि जगहों की रामलीला भी प्रसिद्ध है.
मंचन में छिपा संदेश
रामकथा में नाटकीयता है, तो संदेश भी है. जो प्रतिवर्ष देखनेवालों को याद दिलाता है कि मर्यादा और नैतिकता के निर्वाह के लिए राम ने अवतार लिया है, जिनका लक्ष्य व्यापक जनकल्याण को स्थापित रामराज्य है, जिसकी मुख्य वृत्ति सत्ता का त्याग है न कि सत्ता पर कब्जा. राम के चरित्र को अपने राजनीतिक आशय से कोई इस्तेमाल कर ले, लेकिन राम का अपना जीवन ऐसी प्रेरणा है, जो जनता में आशा का संचार करती है, जिससे जनता इन लीलाओं में रमती रहती है.

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