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सात्विक शक्तियों का विजय पर्व

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नरेंद्र कोहली वरिष्ठ साहित्यकार हम यह मानते हैं कि सारी सृष्टि दैवीय विधान के अंतर्गत चलती है. उसे वेदों की भाषा में ऋत् का नियम कहते हैं. भौतिकवादी लोग उसे प्रकृति के नियम कह सकते हैं. सृष्टि न तो अनियमित है, न अराजक. दैवीय विधान के अनुसार सृष्टि में सदा ही विभिन्न प्रकार की शक्तियों […]

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नरेंद्र कोहली

वरिष्ठ साहित्यकार
हम यह मानते हैं कि सारी सृष्टि दैवीय विधान के अंतर्गत चलती है. उसे वेदों की भाषा में ऋत् का नियम कहते हैं. भौतिकवादी लोग उसे प्रकृति के नियम कह सकते हैं. सृष्टि न तो अनियमित है, न अराजक. दैवीय विधान के अनुसार सृष्टि में सदा ही विभिन्न प्रकार की शक्तियों में संघर्ष चलता रहता है और अंतत: विजय सात्विक शक्तियों की ही होती है.
भगवद्गीता में श्रीकृष्ण ने उन दैवी शक्तियों को प्रकट कर अपना अतिप्राकृतिक विराट रूप दिखाया और महाकाल के माध्यम से कौरव सेनाओं का संहार होते हुए दिखाया. रामकथा में श्रीराम ने अपना वह दैवीय रूप न दिखा कर मानवीय धरातल पर ही रावण तथा अन्य राक्षसों का वध किया. इसमें दैवीय शक्तियों के हस्तक्षेप के बिना ही सात्विक शक्तियों को विजय दिलायी.
जनसाधारण के आत्मबल को जगाते हैं राम
दशहरा या रावण-वध तामसिक शक्तियों पर सात्विक शक्तियों की विजय का ही पर्व है. यह हमें आश्वस्त करता है कि प्रकृति के विधान के अंतर्गत इस सृष्टि में कभी तामसिक शक्तियों की विजय नहीं हो सकती. जब कभी तामसिक शक्तियां प्रबल होंगी और वे सृष्टि के संहार के लिए युद्ध आरंभ करेंगी, तब सात्विक शक्तियां अपना बल प्रकट कर सृष्टि की रक्षा करेंगी.
दशहरे की विशेषता यह है कि रावण जैसी महाशक्ति के अत्याचारों का सामना राम ने अयोध्या या जनकपुर की राजशक्ति के माध्यम से नहीं किया. राम का बल जनसाधारण के आत्मबल को जगाने में है. सुग्रीव एक राज्य का शासक अवश्य है, लेकिन उसके पास चतुरंगिणी सेना नहीं है.
उसके पास कवचरक्षित रथ तथा उच्च कोटि के शस्त्रों से सज्जित वाहिनियां नहीं हैं. राम ने उन्हीं पिछड़ी जातियों में से सेना का निर्माण किया है. वस्तुत: वह सैन्य-संघर्ष नहीं, जन सामान्य का आंदोलन ही है. राक्षसों के विरुद्ध लड़े गये उस युद्ध में जितने वानर सम्मिलित हुए, वे सब सैनिक नहीं थे. युद्ध का वर्णन करते हुए यह बात बार-बार आती है कि वानर पत्थरों से लड़े, लकड़ियों से लड़े, नखों से लड़े और दांतों से लड़े.
सैनिकों का युद्ध नखों और दांतों से नहीं होता न पत्थरों और लकड़ियों से होता है. वे लोग एक बड़े साम्राज्य के विरुद्ध लड़ने जा रहे हैं. राक्षसों का वह साम्राज्य अत्यधिक शक्तिशाली और धनाढ्य है. उनके पास कवचरक्षित रथ हैं, संगठित सेनाएं हैं, वे सागर के आर-पार आते-जाते हैं. उनका नेता रावण कुबेर से पुष्पक विमान छीन सकता है. यक्षों से लंका छीन सकता है. रावण देवलोक तक धावा कर आया है. उस साम्राज्य से लड़ने के लिए ‘वा-नर’ जा रहे हैं.
अब इन दोनों सेनाओं को, राज्यों या समाजों को, आमने-सामने रख कर देखा जाए, तो दोनों की सेनाओं में किसी प्रकार की कोई तुलना नहीं हो सकती. इस प्रकार के दो असम समाज यदि आमने-सामने रहते हों, तो एक का व्यवहार अर्थात समर्थ का व्यवहार असमर्थ के प्रति कैसा होगा? और राक्षस तो किसी प्रकार की मानवीय एकता अथवा नैतिकता में विश्वास ही नहीं करते.
सामान्य जन के बौद्धिक नेतृत्व के प्रतीक थे ऋषि
इसका अर्थ यह हुआ कि राक्षसों ने केवल ऋषियों को ही नहीं खाया था. सामान्य जन को भी सदा पीड़ित किया होगा. आखिर ऋषि भी तो इन सामान्य जन के बौद्धिक नेतृत्व के ही प्रतीक थे. उनको भी इसलिए खाया गया कि इन पिछड़ी जातियों में किसी प्रकार की कोई चेतना न जागे.
उनका कोई विकास न हो. उन्हें कोई अधिकार न मिले और वे इस अन्याय अथवा अत्याचार के विरुद्ध मुंह न खोल सकें. हम अनुमान लगा सकते हैं कि उन साधारण जन की स्वतंत्रता को किस प्रकार राक्षसों ने बंधक बना रखा होगा, किस प्रकार उनके सम्मान को सदा क्षत-विक्षत किया होगा, उनका आर्थिक शोषण किया होगा.
वानरों ने पीड़ित होने पर राक्षसों से प्रतिशोध लेना चाहा होगा, किंतु उनका नेतृत्व कौन करता- बालि तो रावण का मित्र था. रावण की बालि के साथ मैत्री का रहस्य भी खुलता है. बालि को जो कुछ चाहिए था, रावण उसे भेंट कर सकता था और वानरों के साथ मनमाना अत्याचार करने की सुविधा पा सकता था.
वानरों का युद्ध राम के नेतृत्व में लड़ा गया
सुग्रीव ने केवल सैनिकों का नहीं, बल्कि प्रत्येक नागरिक का युद्ध के लिए आवाहन क्यों किया? क्यों सारे जनमानस में रावण से युद्ध करने का उत्साह उमड़ आया? क्यों वानर लोग बिना शस्त्र और प्रशिक्षण के, बिना अपनी क्षमता को तौले, राक्षसों से युद्ध करने के लिए चल पड़े? क्यों थी यह बलिदानी मुद्रा? क्योंकि पहली बार उन्हें अपने संचित आक्रोश को व्यक्त करने का अवसर मिला था. पहली बार वे अपने अपमान का प्रतिशोध लेने निकले थे.
पहली बार किसी ने उनका आत्मबल जगाया था. पहली बार अत्याचार के विरुद्ध उनका नेतृत्व करने के लिए उन्हें राम और लक्ष्मण जैसे योद्धा मिले थे. वस्तुत: राम का युद्ध लड़ने के लिए वानर नहीं आये थे, वानरों का युद्ध राम के नेतृत्व में लड़ा गया. यदि कहीं वानरों को कोई सुयोग्य नेता पहले ही मिल गया होता, तो कदाचित अपने ही कारणों से रावण के साथ उनका युद्ध हो चुका होता.
राम-रावण के इस युद्ध में मुझे कुछ इसी प्रकार की बात दिखायी देती है. जन-बल का इतना महान चित्र अन्यत्र मिलना कठिन है. मुझे तो यह भी लगता है कि वाल्मीकि ने इस तथ्य को रेखांकित किया कि राम किसी प्रकार के धार्मिक अनुष्ठान का सहारा नहीं लेते, कोई तांत्रिक यज्ञ नहीं करते, किसी अतिभौतिक, आध्यात्मिक शक्ति का सहारा नहीं लेते और दूसरी ओर राक्षसों के द्वारा कोई न कोई तांत्रिक अनुष्ठान चलता ही रहता है. राम और लक्ष्मण घायल और मूर्च्छित होते हैं.
उन्हें मृत समझ कर राक्षस छोड़ जाते हैं. उनका रक्त बहता है. लक्ष्मण की मूर्च्छा के पश्चात भी औषधि की प्रतीक्षा की जाती है और औषधि आने पर ही उनकी मूर्च्छा टूटती है. इस प्रकार राम अपने आत्म-बल और सामान्य जनता के जन-बल के सहारे ही संसार के सबसे बड़े, शक्तिशाली राक्षस साम्राज्य को ध्वस्त करने में सफल होते हैं.
एक प्रश्न रावण के दस सिरों का भी है. उनमें से एक-एक सिर को राम काट-काट कर फेंक देते थे और वह सिर पुन: आकर जुड़ जाता था. अत: रावण की मृत्यु नहीं हो रही थी. यह हमारे देश की एक आख्यान-रूढ़ि मात्र है, जिसमें किसी राक्षस के प्राण कभी किसी तोते में और कभी किसी अन्य पदार्थ में रखे होते हैं.
यह एक आख्यान-शैली मात्र है, एक काव्य-रूढ़ि है. वस्तुत: न तो किसी दस सिरों वाले मनुष्य के अस्तित्व को स्वीकार किया जा सकता है, न नाभि में अमृतकुंड रखनेवाले किसी जीव को. राक्षसों, दैत्यों, दानवों इत्यादि के विषय में परिकल्पना, जैसी अनेक काव्य-रूढ़ियां मिलती हैं, जिनमें उनके बड़े-बड़े दांत हो सकते हैं, लंबे नाखून हो सकते हैं, उनमें असाधारण बल होता है इत्यादि.
सात्विक शक्तियों को निरंतर युद्ध करना होगा
यदि इन काव्य रूढ़ियों से हम बाहर निकल आएं, तो सारी स्थिति बदल जाती है. एक सिरवाले माता-पिता की संतान के दस सिर नहीं हो सकते और दस सिर के पिता की संतान के भी दस सिर होने चाहिए. यह जीव-विज्ञान का सीधा-सादा नियम है.
हम जानते हैं कि न रावण के पिता के दस सिर थे, न रावण के भाइयों के और न उसके पुत्रों के. ऐसे में अकेला रावण ही कैसे दस सिरों वाला हो सकता है. वस्तुत: यह सृष्टि का तमोगुण ही है, जो बार-बार सिर उठाता है और संसार को पीड़ित करता है.
इसलिए उसे केवल रामकथा में ही नहीं, प्रतिवर्ष रावण के सिर काटने पड़ते हैं और सात्विक शक्तियों को स्मरण कराना पड़ता है कि उसे निरंतर संघर्ष करना पड़ेगा. यह अनवरत और निरंतर संघर्ष है, जो सृष्टि में चलता ही रहता है. तामसिक शक्तियां न मरती हैं, न थकती हैं, इसलिए सात्विक शक्तियों को भी निरंतर युद्ध करना होगा. दशहरा उसी समर का निरंतर स्मरण दिलाता रहता है.

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