11.1 C
Ranchi
Monday, February 10, 2025 | 06:59 am
11.1 C
Ranchi

BREAKING NEWS

दिल्ली में 5 फरवरी को मतदान, 8 फरवरी को आएगा रिजल्ट, चुनाव आयोग ने कहा- प्रचार में भाषा का ख्याल रखें

Delhi Assembly Election 2025 Date : दिल्ली में मतदान की तारीखों का ऐलान चुनाव आयोग ने कर दिया है. यहां एक ही चरण में मतदान होंगे.

आसाराम बापू आएंगे जेल से बाहर, नहीं मिल पाएंगे भक्तों से, जानें सुप्रीम कोर्ट ने किस ग्राउंड पर दी जमानत

Asaram Bapu Gets Bail : स्वयंभू संत आसाराम बापू जेल से बाहर आएंगे. सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें जमानत दी है.

Oscars 2025: बॉक्स ऑफिस पर फ्लॉप, लेकिन ऑस्कर में हिट हुई कंगुवा, इन 2 फिल्मों को भी नॉमिनेशन में मिली जगह

Oscar 2025: ऑस्कर में जाना हर फिल्म का सपना होता है. ऐसे में कंगुवा, आदुजीविथम और गर्ल्स विल बी गर्ल्स ने बड़ी उपलब्धि हासिल करते हुए ऑस्कर 2025 के नॉमिनेशन में अपनी जगह बना ली है.
Advertisement

वर्षांत 2018 हिंदी की बदलती दुनिया और यह साल

Advertisement

धुंधले वक्त में साहित्य समाज को दृष्टिकोण प्रदान करता है. हालांकि, देश-काल-परिवेश ने समाज के आईने पर धूल की पतली-सी परत चढ़ायी है, लेकिन समाज के आगे चलने वाली मशाल आदर्शों से परे रह कर ही सही, मनुष्यों की भावनाओं को अभिव्यक्त करने की अपनी कोशिशों में लगी हुई है. इन बहसों के इर्द-गिर्द साहित्य-साहित्यकारों […]

Audio Book

ऑडियो सुनें

धुंधले वक्त में साहित्य समाज को दृष्टिकोण प्रदान करता है. हालांकि, देश-काल-परिवेश ने समाज के आईने पर धूल की पतली-सी परत चढ़ायी है, लेकिन समाज के आगे चलने वाली मशाल आदर्शों से परे रह कर ही सही, मनुष्यों की भावनाओं को अभिव्यक्त करने की अपनी कोशिशों में लगी हुई है. इन बहसों के इर्द-गिर्द साहित्य-साहित्यकारों व किताबों की दुनिया पर आधारित विशेष प्रस्तुति…

- Advertisement -

अशोक कुमार पांडेय

लेखक

हिं दी की दुनिया बदल रही है और यह बदलाव कई स्तर पर है. एक बड़ा बदलाव तो सोशल मीडिया के लगातार प्रभावी होने से आया है. न केव\\ल यहां हिंदी में लिखनेवालों की संख्या लगातार बढ़ रही है, बल्कि कई लोगों को अपनी अभिव्यक्ति के लिए एक ऐसा माध्यम मिला है, जहां वे सीधे पाठक से रू-ब-रू हो सकते हैं और लगातार लिखते हुए सक्रिय रह सकते हैं. फिर यहां प्रकाशक भी हैं, संपादक भी, लेखक भी, आलोचक भी, तो अपना संपर्क-वृत्त बढ़ाने का एक आसान जरिया मिलता ही है. सोशल मीडिया किताबों के प्रचार-प्रसार के लिए भी एक बड़े माध्यम के रूप में उभरा है, जिसके अपने फायदे हैं और नुकसान भी. बदलाव का दूसरा बड़ा कारण मुझे सरकारी खरीद में लगातार कमी आने से प्रकाशकों का पाठक केंद्रित होते जाना लगता है.

आवरण की पूरी संस्कृति बदली है, किताबों के पहले संस्करण ही पेपरबैक आने लगे हैं और मूल्य पाठकों को ध्यान में रखकर तय हो रहे हैं. समस्या यह है कि अंग्रेजीदां प्रकाशक वर्ग यह मानकर चलता है कि हिंदी कम पढ़े-लिखों की भाषा है, इसलिए बहुराष्ट्रीय प्रकाशकों ने भी ज्यादातर घटिया किताबें छापीं और उनकी देखा-देखी कई दूसरे प्रकाशक भी यही कर रहे हैं.

बदलाव का तीसरा बड़ा कारण है नब्बे के दशक के बाद हिंदी का पाठक भी बदल गया है. साहित्य का गंभीर पाठक कम हुआ है, तो आज पाठकों का बड़ा हिस्सा ऐसा है, जो अंग्रेजी भी पढ़ लेता है. वह हिंदी में भी उस स्तर का फिक्शन और नॉन-फिक्शन ढूंढता है, लगातार उत्तेजित राजनीतिक माहौल में वह ऐसे विषयों पर पढ़ना चाहता है, जिससे वह देश में चल रही बहसों में हिस्सा ले सके. इतिहास फिर से महत्वपूर्ण विषय बन गया है और सांप्रदायिकता जैसे विषयों पर आयी किताबों की बाजार में खूब मांग है. साथ ही, युवाओं का एक हिस्सा तुरत-फुरत सस्ते मनोरंजन के लिए पढ़ता है, तो वह चेतन भगत के सस्ते हिंदी संस्करण ढूंढ़ता है.

हालांकि, यह ट्रेंड नया नहीं है और हिंदी में गुलशन नंदा, कुशवाहा कांत से लेकर जेम्स हेडली चेईज तक के हिंदी अनुवादों का एक बाजार हमेशा से रहा है, ‘नयी वाली हिंदी’ के नाम पर जो पौध आयी है, वह इन्हीं की वारिस है. उनका बाजार बना है, बाजारू आयोजनों में वे खूब बुलाये जाते हैं और सोशल मीडिया पर भी उनका अपना जलवा है. ये किताबें ‘इंस्टैंट कंजंप्शन’ के लिए हैं और मेरी निजी मान्यता यह है कि वे लेखक को भले नाम-दाम दिला दें, लेकिन पाठक का आस्वाद नष्ट कर भाषा को समृद्ध करने की जगह और विपन्न ही करती हैं.

साल 2018 की शुरुआत में पहली महत्वपूर्ण किताब मुझे ज्ञानपीठ से प्रकाशित कर्मेंदु शिशिर की ‘भारतीय मुसलमान: इतिहास का संदर्भ’ लगी.

दो खंडों में छपी यह किताब श्रमसाध्य शोध का नतीजा है. हालांकि, हार्ड बाउंड की ऊंची कीमत और प्रकाशक की लापरवाही से यह लोगों तक पहुंच नहीं पायी, लेकिन यह एक बेहद जरूरी किताब है. राजकमल प्रकाशन से आयी सुभाष चंद्र कुशवाहा की किताब ‘अवध का किसान विद्रोह’ और पुष्यमित्र की चंपारण विद्रोह पर केंद्रित ‘जब नील का दाग मिटा’ भी जरूरी किताबें हैं. वाणी से छपी शशि थरूर की किताब ‘अंधकार काल’ इस साल अंग्रेजी से हुआ एक अहम अनुवाद है, भारत के स्वाभाविक विकास में ब्रिटिश काल की नकारात्मक भूमिका को समझने में यह काफी मददगार है.

इसके साथ राजकमल से ज्यां द्रेज और अमर्त्य सेन की किताब का अनुवाद ‘भारत और उसके विरोधाभास’ आया. सईद नकवी की चर्चित किताब ‘बीईंग द अदर’ का अनुवाद फारोस से और डॉ युवाल नोआ हरारी की जरूरी किताब ‘सैपियंस’ का अनुवाद मंजुल प्रकाशन से आया है. दखल प्रकाशन ने सीरियाई कवयित्री मराम अल-मसरी की प्रतिनिधि कविताओं का अनुवाद ‘मांस प्रेम और स्वप्न’ नाम से छापा है.

मेधा प्रकाशन ने इस साल रजिया सज्जाद जहीर की जन्मशती पर उनकी प्रतिनिधि रचनाएं प्रकाशित की हैं. ये कहानियां नयी-नयी आजादी और विभाजन के साथ पैदा हुई सामाजिक-सांस्कृतिक हलचल की जिंदा गवाहियां हैं. गीतांजलि श्री का उपन्यास ‘रेत समाधि’ इस वर्ष की उपलब्धि है.

मृणाल पांडे का ‘सहेला रे’, अलका सरावगी का ‘एक सच्ची झूठी गाथा’, मीनाक्षी नटराजन का ‘अपने अपने कुरुक्षेत्र’, मधु कांकरिया का ‘हम यहां थे’, त्रिलोक नाथ पांडेय का ‘प्रेम लहरी’ भी उल्लेखनीय हैं. राजपाल से प्रकाशित असगर वजाहत की ‘भीड़तंत्र’ का उल्लेख भी जरूरी होगा. गरिमा श्रीवास्तव की किताब ‘देह ही देश है’ यात्रा-वृतांत से कहीं आगे जाती है और समकालीन स्त्री विमर्श में एक आवश्यक आयाम जोड़ती है, तो क्षमा शर्मा की सामयिक से आयी ‘समकालीन स्त्री विमर्श’ इस दिशा में एक गंभीर काम है.

कविता संकलनों की दृष्टि से यह वर्ष कुछ खास नहीं रहा और सबसे उल्लेखनीय मुझे कुंवर नारायण और केदारनाथ सिंह के मृत्योपरांत प्रकाशित संकलन क्रमशः ‘सब इतना असमाप्त’ और ‘मतदान केंद्र पर झपकी’ लगे. साल बीतते-बीतते सुमन केशरी का संकलन ‘पिरामिडों के तहों से’ आया. राजपाल ने सुरेश सलिल के संपादन में ‘सदी की कविता’ छापी है, जो शोधार्थियों के लिए काम की हो सकती है.

लीलाधर मंडलोई का कविता संकलन ‘जलावतन’, गौहर रजा की नज्मों का संग्रह ‘खामोशी’, पवन करण का पौराणिक स्त्री पात्रों पर केंद्रित ‘स्त्री शतक’, कर्मानंद आर्य का ‘डरी हुई चिड़िया का मुकदमा’, जसिंता केरकेट्टा का ‘जड़ों की जमीन’ और तिथि दानी का ‘प्रार्थनारत बत्तखें’ भी इसी साल प्रकाशित हुए. ऋतुराज की ‘चीन डायरी’, श्री भगवान सिंह का ‘मेरा गांव मेरा देश’ और मलय की ‘यादों की अनन्यता’ महत्वपूर्ण संस्मरण हैं. पुरुषोत्तम अग्रवाल की ‘पद्मावत’ हालांकि अंग्रेजी में छपी है, लेकिन जायसी के इस अमर महाकाव्य पर एक महत्वपूर्ण टिप्पणी है.

यह भी है कि मैं इस साल साहित्य बहुत कम पढ़ पाया और कई जरूरी किताबें छूट गयी होंगी. मेरी नजर कश्मीर से जुड़ी किताबों पर रही और उनमें से कुछ का जिक्र जरूर करना चाहूंगा- सैफुद्दीन सोज की ‘कश्मीर: ग्लिम्प्सेज ऑफ हिस्ट्री एंड द स्टोरी ऑफ स्ट्रगल’, डेविड देवदास की ‘द जेनरेशन ऑफ रेज इन कश्मीर’, राधा कुमार की ‘पैराडाइज एट वार’, चित्रलेखा जुत्शी की ‘कश्मीर: हिस्ट्री, पॉलिटिक्स, रिप्रेजेंटेशन’, शुजात बुखारी की ‘द डर्टी वार इन कश्मीर’, शोनालीना कौल की ‘द मेकिंग ऑफ अर्ली कश्मीर’.

ट्रेंडिंग टॉपिक्स

Advertisement
Advertisement
Advertisement

Word Of The Day

Sample word
Sample pronunciation
Sample definition
ऐप पर पढें