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पुरुषों में भी स्त्रीत्व जगाने वाला अनूठा लोकपर्व

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चंदन तिवारी (पारंपरिक गीतों को स्वर देने वाली जानी-मानी लोक गायिका) छठ के गीतों को कभी गौर से सुनिये. पॉपुलर फ्रेम में बनाये जा रहे वे गीत नहीं, जिनके साथ अजीब तरीके का उबकाई आनेवाला प्रयोग शुरू हुआ है. जिसमें किसी एक लोकप्रिय गीत को पकड़ा जा रहा है, भले ही वह स्त्री का देहनोचवा […]

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चंदन तिवारी
(पारंपरिक गीतों को स्वर देने वाली जानी-मानी लोक गायिका)
छठ के गीतों को कभी गौर से सुनिये. पॉपुलर फ्रेम में बनाये जा रहे वे गीत नहीं, जिनके साथ अजीब तरीके का उबकाई आनेवाला प्रयोग शुरू हुआ है. जिसमें किसी एक लोकप्रिय गीत को पकड़ा जा रहा है, भले ही वह स्त्री का देहनोचवा गीत ही क्यों न हो. उसके धुनों पर लिखने-रचनेवाले छठ गीत की पैरोडी लिख रहे हैं. गानेवाले उसे गा रहे हैं, बजानेवाले छठ घाटों पर बड़े-बड़े साउंड सिस्टम में बजा भी रहे हैं. बिना इस बात की परवाह किये कि लोग इसके धुन व संगीत के जरिये सीधे मूल गीत से कनेक्ट हो जा रहे हैं, जो स्त्री के देहनोचवा गीत होने के कारण या अपनी विकृतियों के कारण मशहूर होता है.
छठ में ऐसे गीतों को लिखने, गाने, संगीत देने, रिकार्ड करनेवाले, बजाने वालों को विशेष दाद देने की जरूरत है. क्योंकि छठ ही एकमात्र ऐसा त्योहार है, जिसमें बहुत प्रयोग और मनमानेपन की गुंजाइश नहीं.
समानता, आस्था और अनुशासन के साथ इस पर्व में आराध्य के प्रति मान के साथ एक डर भी है. लेकिन, लोकगीतों में लोकलाज के खत्म होने के साथ अब डर भी खत्म होने का दौर है, सो छठ गीतों में भी दुस्साहसिक प्रयोग जारी है. तो कहना यह है कि छठ के पारंपरिक गीतों को सुनिये. ठेठ, प्योर गांव के गीतों को, जो महिलाएं समूह में गाती हैं.
उन गीतों को सुनने की बात कर रही हूं, जो सभी लोकभाषाओं में समान भाव, समान धुन के साथ वर्षों और पीढ़ियों से गाये जाते रहे हैं. उन गीतों को जब गौर से सुनियेगा, तो मालूम होगा कि हर गीत में स्त्री की ही इच्छा-आकांक्षा और स्वर है. चाहे गीतों में इष्टदेव सूर्य या छठी मइया से कुछ मांगनेवाला गीत हो, दोतरफा संवाद वाला गीत हो या महिमागान वाला गीत हो. पारंपरिक छठगीतों में से अधिकतर गीत इन्हीं भावों पर आधारित हैं.
छठ के त्योहार में गीतों की भूमिका अहम होती है, गीत ही शास्त्र और मंत्र, दोनों होते हैं, इसलिए गीतों से गुजरते हुए, इसके जरिये जब छठ को समझने की कोशिश करेंगे तो लगेगा कि छठ तो एक ऐसा पर्व है, जिसे कहा तो जाता है लोकपर्व या पारंपरिक लोकपर्व लेकिन यह तेजी से जड़ परंपरा को तोड़ता हुआ पर्व भी है.
छठ के गीत बताते हैं कि यह त्योहार स्त्रियों का ही रहा है. अब भी स्त्रियां ही बहुतायत में इस त्योहार को करती हैं. लेकिन, तेजी से पुरुष व्रतियों की संख्या भी बढ़ रही है. पुरुष भी उसी तरह से नियम का पालन करते हैं, उपवास रखते हैं, पूरा पर्व करते हैं. इस तरह से देखें, तो यह इकलौता पर्व है जो स्त्रियों का पर्व होते हुए भी पुरुषों को निबाहने या करने के लिए आकर्षित कर रहा है और इतना कठिन पर्व होने के बावजूद पुरुष आकर्षित हो रहे हैं. स्त्रियों की परंपरा का अनुसरण कर रहे हैं.
छठ में भी स्त्रियां अपने लिए कुछ नहीं मांगती. सिर्फ संतान मांग वाले गीतों को छोड़ दें, तो फिर वे अपने परिवार, अपने पति, अपनी संतानों के लिए ही सबकुछ मांगती हैं. अपने पति, अपनी संतानों के लिए स्त्रियां छठ के अलावा और भी दूसरे व्रत करती हैं.
संतानों के लिए जिउतिया और पतियों के लिए तीज, लेकिन पुरुष अब तक इन दोनों व्रतों का कभी हिस्सा नहीं बना. कभी खुद व्रती नहीं बना. कभी यह दोतरफा नहीं चला कि अगर स्त्री इतना कुछ कर रही है, इतनी कठोरता से व्रत संतान के लिए या पति के लिए कर रही है, तो पुरुष भी करें. इस नजरिये से छठ एक बिरला पर्व है, जो तेजी से पुरुषों को स्त्रीत्व के गुणों से भर रहा है.
छठ के बहाने ही सही, पुरुषों को भी स्त्री की तरह इच्छा-आकांक्षा, कठोर तप, अनुशासन, निष्ठा, संयम धारण करने की प्रेरणा दे रहा है. छठ ही वह त्योहार है, जो पारंपरिक लोकपर्व होते हुए भी लोक की जड़वत परंपरा को आहिस्ता-आहिस्ता ही सही लेकिन मजबूती से बदल रहा है. एक नयी बुनियाद को तैयार कर रहा है.
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