दिनकर ने लड़खड़ाती राजनीति को दिया साहित्य का सहारा
शायक आलोक उजले से लाल को गुणा करने से जो रंग बनता है, वही है उनकी कविताओं का रंग जाने-माने कवि बेगूसराय निवासी संप्रति : दिल्ली में रहकर स्वतंत्र लेखन किस्सा है कि सीढियां उतरते नेहरू लड़खड़ा गये और दिनकर ने उन्हें सहारा दिया. प्रधानमंत्री ने कहा- शुक्रिया, और राष्ट्रकवि ने कहा- जब-जब राजनीति लड़खड़ायेगी, […]
![an image](https://pkwp184.prabhatkhabar.com/wp-content/uploads/2024/01/2018_9largeimg23_Sep_2018_072533617.jpg)
शायक आलोक
उजले से लाल को गुणा करने से जो रंग बनता है, वही है उनकी कविताओं का रंग
जाने-माने कवि बेगूसराय निवासी संप्रति : दिल्ली में रहकर स्वतंत्र लेखन
किस्सा है कि सीढियां उतरते नेहरू लड़खड़ा गये और दिनकर ने उन्हें सहारा दिया. प्रधानमंत्री ने कहा- शुक्रिया, और राष्ट्रकवि ने कहा- जब-जब राजनीति लड़खड़ायेगी, तब-तब साहित्य उसे सहारा देगा. हालांकि सदृश किस्सों का कोई तरतीब रिकॉर्ड दर्ज नहीं है कि कब-कब राजनीति लड़खड़ायी और कब-कब साहित्य ने उसे सहारा दिया, किंतु प्रतीत होता है कि हाल के समय खंड में राजनीति और साहित्य ने एक दूसरे को आजमाने, जिसे आप कहें स्वहित में एक दूसरे के उपयोग, की एक राह चुनी. इसका एक उदाहरण असहिष्णुता आंदोलन है, दूसरे का जिक्र मैं दिनकर के राष्ट्रवाद पर उभर आयी नयी बहस के परिप्रेक्ष्य में करूंगा. यह नयी बहस मात्र तीन-चार वर्ष पुरानी है.
कुछ समय पहले ही मैंने दर्ज किया कि किसी विचारधारा के पास जब नायकों की कमी हो या उसके नायक मत देने वाली बहुमत आबादी को अपील न कर पा रहे हों, तो विचारधारा के हुनरमंद प्रणेता मौजूद नायकों को ही चुनेंगे, उन्हें अपने रंग में रंगेंगे और आपके सामने प्रस्तुत कर देंगे. भगत सिंह, सरदार वल्लभ भाई पटेल, डाॅ भीमराव आंबेडकर आदि की एक ‘विशेष प्रकार की नयी अपील’ इसी प्रकार ‘क्रिएट’ की गयी है. कबीर और विवेकानंद तक इस बैठकी में तलब किये गये हैं. राष्ट्रपिता गांधी और राष्ट्रकवि दिनकर भी इस उपयोगितावादी ढांचे में ढाले गये हैं.
राष्ट्रवाद जब किसी कालखंड का प्रमुख स्वर हो या प्रमुख शोर, तो दिनकर बेहद अपीलिंग हो जाते हैं. अपनी युगीन आवश्यकताओं और संदर्भ में दिनकर की कविताओं ने राष्ट्रीय आंदोलन में एक ओज भरा था.
जिसे दिनकर ने खुद अपना ‘गर्जन-तर्जन’ कहा है, वह पाठ्य पुस्तकों में शामिल हो नयी पीढ़ी तक के रगों में बहा है. स्वर और शोर में थोड़ी ध्वनि-साम्यता भी तो है और नयी जनता से ‘कनेक्टिविटी’ की भी समस्या नहीं, तो इस अपील का उपयोग किया जा सकता है.
दिनकर के राष्ट्रवाद पर साहित्यिक व वैचारिक विमर्श अध्ययन का विषय रहा है. विमर्श की कालजयीता यह कि वह कभी अंतिम निष्कर्ष तक नहीं पहुंचती. इसलिए अज्ञेय के लिए दिनकर का राष्ट्रवाद एक रोमांटिक राष्ट्रवाद है, तो हिंदी के कुछ आलोचक इसे सांस्कृतिक राष्ट्रवाद कहते हैं.
कोई इसे प्राचीन के पुनरुत्पादन से जोड़कर देखता है, तो कोई अर्वाचीन के उपयोगितावादी उपयोग से. और, यहीं से हम उस संदिग्ध क्षेत्र में प्रवेश करते हैं, जहां कोई पुनर्पाठ युगीन संवाद को संक्रमित करने लगता है. यहीं फिर एक ऐसे पुनर्पाठ की आवश्यकता होती है, जो ‘कोर्स-करेक्शन’ को प्रस्तावित हो. हम दिनकर के राष्ट्रवाद की प्रवृत्ति को एक वृहद विमर्श के लिए छोडें और समीचीन विचार यह करें कि दिनकर के राष्ट्रवाद का साध्य क्या है?
हमें उनके दो स्पष्ट साध्य नजर आते हैं, एक है युगीन आवश्यकता में अपने समय से कविता संवाद, जिसमें स्वर का परिवर्तन भी चिह्नित किया जा सकता है, और कवि की खुद से अपेक्षा भी कि अंततः वह गर्जन-तर्जन से करुणा के सौम्य बहाव की ओर लक्षित होना चाहता है, और दूसरा है ऐतिहासिक समस्याओं को चिह्नित करते हुए समग्र सांस्कृतिक विकास के आश्रय स्थलों की तलाश. इसे मैं सम-बिन्दुओं की तलाश कहना पसंद करता हूं. समकालीन संवाद के लिए यह बेहद प्रासंगिक है. ‘संस्कृति का चार अध्याय’ और उनके कुछ वक्तव्य एवं निबंध राष्ट्रवाद और राष्ट्रीयता के सारे कुपाठों का जवाब दे सकते हैं.
दिनकर का राष्ट्रवाद बहुलतावादी या सामासिक राष्ट्रवाद है. यह सामासिकता हमारी ही संस्कृति का सार-संग्रह है. वे भारतीय अनेकांतवाद में प्रवेश करते हुए उसे अशोक से लेते हुए हर्षवर्धन तक आगे बढ़ते हैं और इस अनुक्रम में फिर अकबर को भी दर्ज करना नहीं भूलते. यहीं फिर ऐतिहासिक समस्याओं को चिह्नित करते हुए वह इतिहास की उन स्मृतियों को भूलने का भी आग्रह रखते हैं, जो हमारी राष्ट्रीय एकता के मार्ग में बाधा है. दिनकर का राष्ट्रवाद एक भूमि, एक जातीयता, एक धर्म, एक आचरण की अपेक्षा करता राष्ट्रवाद नहीं है. उन्होंने तो राष्ट्रीयता को रूढ़ कर देने के खतरे के प्रति भी सावधान किया है और इस राष्ट्रीयता को अपने आग्रहों में अंतरराष्ट्रीयवाद और विश्ववाद की सीमाओं से जोड़ दिया है.
दिनकर के राष्ट्रवाद को हम उस खांचे में रखकर देखें, जो खांचा उन्होंने स्वयं अपनी विचारधारा के लिए खींचा था– ‘जिस तरह मैं जवानी भर इकबाल और रवींद्र के बीच झटके खाता रहा, उसी प्रकार मैं जीवन भर गांधी और मार्क्स के बीच झटके खाता रहा हूं. इसलिए उजले को लाल से गुणा करने पर जो रंग बनता है, वही रंग मेरी कविता का रंग है. मेरा विश्वास है कि अंततोगत्वा यही रंग भारतवर्ष के व्यक्तित्व का भी होगा.’
सफेद और रक्तिम से तैयार यह सम-रंग, गांधी से मार्क्स तक विस्तृत एक बड़ी दुनिया, क्या यही हमारी सैरगाह-शरणगाह तो नहीं!