फ़िल्म- तेजस

निर्माता-आरएसवीपी

निर्देशक-सर्वेश मेवाड़ा

कलाकार-कंगना रनौत,आशीष विद्यार्थी, वरुण मित्रा,अंशुल चौहान और अन्य

रेटिंग- दो

2015 में सरकार ने एक एतिहासिक कदम के तहत भारतीय वायुसेना में महिलाओं को लड़ाकू पायलट के रूप में शामिल करने को मंजूरी दे दी थी. यह पहली बार था, जब महिलाएं देश के सशस्त्र बलों में लड़ाकू विमानों के पायलट की भूमिका निभाने वाली थी. कंगना रनौत की आज रिलीज़ हुई फ़िल्म तेजस की कहानी का बीज इसी फ़ैसले से आया था. फ़िल्म के निर्देशक सर्वेश मेवाड़ा ने प्रभात खबर से बातचीत में इस बात की जानकारी दी. फ़िल्म की कहानी का आधार एक सशक्त फ़ैसला था, लेकिन फ़िल्म पूरी तरह से कमज़ोर रह गयी है. फ़िल्म की कहानी, स्क्रीनप्ले, अभिनय से लेकर तकनीकी पहलू तक इस फ़िल्म और उसके विषय के साथ न्याय नहीं कर पाया है. फ़िल्म को देखते हुए यह बात भी शिद्दत से महसूस होती है कि फ़िल्म का एकमात्र उद्देश्य कंगना रनौत का महिमा मंडन करना है, लेकिन मेकर्स को यह बात समझने की ज़रूरत है कि रूपहले पर्दे पर किरदार लार्जर देन लाइफ तभी हो सकता है अगर कहानी और स्क्रीनप्ले किरदार को वो मज़बूती दें. जो यह फ़िल्म पूरी तरह से चूक गयी है. यह फ़िल्म ना तो महिला लड़ाकू पायलटस की वीरता को सलाम कर पायी है ना ही देशभक्ति का जज्बा ही जगा पायी है.

पाकिस्तानी मिशन की वही पुरानी कहानी

फ़िल्म की कहानी तेजस (कंगना) की है, जो तेजस फाइटर प्लेन के नामकरण समारोह में मौजूद थी और उसका सपना बड़े होकर वायुसेना का पायलट बनने का था. फ़िल्म का चेहरा वो हैं, तो सपना पूरा भी हो जाता है. वह ना सिर्फ़ पायलट बनती है बल्कि पाकिस्तान में जाकर पाकिस्तानी आतंकियों के गिरफ़्त में फंसे एक भारतीय सीक्रेट एजेंट को छुड़वाने का मिशन में भी शामिल होती है और वह इस मिशन को किस तरह से अंजाम देती है. यही फ़िल्म की कहानी है. उसका एक अतीत भी है. फ़िल्म भविष्य और अतीत में आती जाती रहती है.

फ़िल्म की खूबियां और ख़ामियां

फ़िल्म की खूबियों की बात करें तो इसकी एकमात्र खूबी यही है कि यह महिला प्रधान फ़िल्म है और यह लिंग भेद को ख़त्म करने के मुद्दे पर है फिर चाहे वह वॉर फ्रंट पर ही क्यों ना हो. फ़िल्म के कमज़ोर पहलुओं की बात करें तो फ़िल्म की कहानी में भारतीय महिलाओं का लड़ाकू पायलट रूप में शामिल होना और 2008 में मुंबई में हुए आतंकी हमले, राम मंदिर जैसे रियल घटनाओं को जोड़ा गया है, लेकिन फ़िल्म की कहानी पूरी तरह से काल्पनिक है. फ़िल्म की कहानी में ज़रूरत से ज़्यादा सिनेमैटिक लिबर्टी ली है. क्या देश के बाहर किसी मिशन को अंजाम देना इतना आसान है. सिर्फ़ दो लोग मिलकर पूरे मिशन को पूरा कर सकते हैं क्या. फ़िल्म को देखते हुए यह बात आपको लगातार महसूस होती है. पाकिस्तान की ज़मीन से ही भारतीय प्लेन टेक ऑफ करके इस मिशन को अंजाम देंगे यह बात मिशन की शुरुआत में बोल दी जाती है ,लेकिन कैसे ये होगा ये किसी को पता नहीं है , मिशन के अप्रूवल के लिये एक दिन ही बचा है .फिर अंशुल का किरदार फ़ोन पर आईडिया देता है कि कैसे ये हो सकता है,जो इस मिशन में शामिल ही नहीं है .इससे यह बात समझी जा सकती है कि फ़िल्म का स्क्रीनप्ले कितना कमज़ोर है. फ़िल्म के क्लाइमैक्स में आतंकी सरग़ना हिंदुस्तान की बर्बादी का मंजर देखना चाहता हूं, यह संवाद बार बार दोहराता रहता है. कुछ समय बाद उससे चिढ़ होने लगती है. मेकर्स के पास संवादों की कितनी कमी है. यह सीन यह दर्शाता है. वैसे सिर्फ़ यही नहीं और भी संवाद बहुत सतही थे गये हैं. फ़िल्म का वीएफ़एक्स इसकी कहानी की तरह ही बेहद कमज़ोर रह गया है. हॉलीवुड फ़िल्म मिशन इम्पॉसिबल के ट्रिक को भी फ़िल्म में इस्तेमाल किया गया है .फ़िल्म का गीत संगीत औसत है ,लेकिन इस तरह की फ़िल्मों में गाने की ज़रूरत नहीं होती है. यह बात मेकर्स को समझने की ज़रूरत थी.

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कंगना का अभिनय रह गया है कमज़ोर

कंगना समर्थ कलाकार मानी जाती हैं,लेकिन वह अभिनय में वह छाप नहीं छोड़ पायी हैं, जैसा उनसे उम्मीद थी. फ़िल्म में अपनी ट्रेनिंग के दौरान वह जिज्ञासावशजिस तरह के सवाल करती हैं, वह बचकाना सा मालूम पड़ता है. कंगना कई मौक़ों पर कमज़ोर दिखी हैं. वह तेजस के किरदार में वह प्रभाव नहीं ला पायी हैं. फ़िल्म में अभिनय में अंशुल चौहान ज़रूर प्रभावित करती हैं. आशीष विद्यार्थी और वरुण मित्रा सहित बाक़ी के किरदारों को करने के लिए कुछ ख़ास नहीं था. बाक़ी के किरदारों का काम भी सिर्फ़ कंगना के किरदार को सपोर्ट करना भर थी.