संवैधानिक संतुलन महत्वपूर्ण
बीते लगभग साढ़े सात दशकों में भारत ने जो उपलब्धियां हासिल की है, वह विधायिका में हुई चर्चाओं और बहसों का ही सुफल हैं.
![an image](https://pkwp184.prabhatkhabar.com/wp-content/uploads/2024/01/indian-constitution_1611382962.webp)
हमारे संविधान में शासन के तीन अंगों- विधायिका, कार्यपालिका एवं न्यायपालिका- की शक्तियों और उत्तरदायित्व को इस तरह परिभाषित व वर्णित किया गया है कि उनमें संतुलन भी रहे तथा एक-दूसरे की सीमा का अतिक्रमण भी न हो. संविधान निर्माताओं ने राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया के सुचारू संचालन करने के लिए ऐसी व्यवस्था की है. यह बहुत संतोषजनक है कि लागू होने से अभी तक संविधान की इस भावना का समुचित अनुपालन हुआ है. लोकसभा के अध्यक्ष ओम बिरला ने संवैधानिक भावना को रेखांकित करते हुए कहा है कि संविधान के इन तीन स्तंभों की अपनी-अपनी सीमाएं हैं और उन्हें अपनी सीमा में और निर्धारित उत्तरदायित्व के अनुरूप कार्य करना चाहिए. उन्होंने यह महत्वपूर्ण बात भी कही है कि विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका परस्पर पूरक हैं तथा सद्भाव के साथ काम करते हैं. संवैधानिक व्यवस्था के अंतर्गत विधि को प्रस्तावित करने का कार्य मुख्य रूप से विधायिका यानी सरकार का है. विधायिका- संसद, विधानसभा एवं विधान परिषद- के सदस्य भी कानून बनाने का प्रस्ताव सदन में रख सकते हैं.
सरकार या सदन के ऐसे किसी प्रस्ताव को पारित करने और उसे संशोधित करने का काम विधायिका का है. पारित कानून को लागू करने और उनका पालन कराने का जिम्मा कार्यपालिका का है. कार्यपालिका के कामकाज की समीक्षा और निगरानी का उत्तरदायित्व विधायिका का है. न्यायपालिका को किसी भी कानून को इस आधार पर समीक्षा करने का अधिकार है कि कहीं यह कानून किसी संवैधानिक प्रावधान एवं संविधान की मूल भावना का उल्लंघन तो नहीं करता. लोकसभा के अध्यक्ष ने उचित ही कहा है कि अगर विधायिका सशक्त है, तो कार्यपालिका का उत्तरदायित्व सुनिश्चित कर सकती है और ऐसा होने से पारदर्शिता निश्चित ही आयेगी. समुचित उत्तरदायित्व एवं पारदर्शिता लोकतंत्र के प्रमुख आधार हैं. न्यायालयों ने अनेक बार याचिकाकर्ताओं को यह कहा है कि कानून बनाना उनका नहीं, विधायिका का कार्य है. बीते लगभग साढ़े सात दशकों में भारत ने जो उपलब्धियां हासिल की है, वह विधायिका में हुई चर्चाओं और बहसों का ही सुफल हैं. लोकतंत्र में मतभेद और असहमति स्वाभाविक हैं, पर सत्ता और विपक्ष से यह अपेक्षा की जाती है कि वे स्वस्थ संवाद के माध्यम से एक उचित निष्कर्ष तक पहुंचेंगे. पर यह भी सच है कि संसद और विधानसभाओं में शोर और हंगामा की घटनाएं भी बढ़ी हैं. कुछ मामलों में तो माहौल हिंसक भी हुआ है. सदन के कामकाज में बाधा डालने का चलन भी बढ़ा है. ऐसी प्रवृत्तियों से परहेज किया जाना चाहिए.