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ध्यान की सहजता

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निस्तब्ध और सुनसान मार्ग पर ध्यान इस तरह उतरता है, जैसे पहाड़ियों पर सौम्य वर्षा. ध्यान इसी तरह सहज और प्राकृतिक रूप से आता है जैसे रात. वहां किसी तरह का प्रयास या केंद्रीकरण पर किसी भी तरह का नियंत्रण नहीं होता. वहां पर कोई भी आज्ञा या नकल नहीं होती. ना किसी तरह का […]

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निस्तब्ध और सुनसान मार्ग पर ध्यान इस तरह उतरता है, जैसे पहाड़ियों पर सौम्य वर्षा. ध्यान इसी तरह सहज और प्राकृतिक रूप से आता है जैसे रात. वहां किसी तरह का प्रयास या केंद्रीकरण पर किसी भी तरह का नियंत्रण नहीं होता. वहां पर कोई भी आज्ञा या नकल नहीं होती. ना किसी तरह का नकार होता है ना स्वीकार. ना ही ध्यान में स्मृति की निरंतरता होती है. मस्तिष्क अपने परिवेश के प्रति जागरूक रहता है, पर बिना प्रतिक्रिया के शांत रहता है.

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वह जागता तो है, पर प्रतिक्रियाहीन होता है. वहां नितांत शांति स्तब्धता होती है, पर शब्द विचारों के साथ धंुधले पड़ जाते हैं. वहां अनूठी और निराली ऊर्जा होती है, उसे कोई भी नाम दें, उसका महत्व नहीं है. वह गहनतापूर्वक सक्रिय होता है, बिना किसी लक्ष्य और उद्देश्य के. वह सृजित होता है बिना कैनवास और संगमरमर के, बिना कुछ तराशे या तोड़े. वह मानव मस्तिष्क की चीज नहीं होती, ना अभिव्यक्ति की चीज कि अभिव्यक्त हो और उसका क्षरण हो जाये. उस तक नहीं पहुंचा जा सकता, उसका वर्गीकरण या विश्लेषण नहीं किया जा सकता. विचार और भाव या एहसास उसको जानने-समझने के साधन नहीं हो सकते.

वह किसी भी चीज से पूर्णतया असंबद्ध है और अपने ही असीम विस्तार और अनंतता में अकेली ही रहती है. उस अंधेरे मार्ग पर चलना, वहां पर असंभवता का आनंद होता है ना कि उपलब्धि का. वहां पहुंच, सफलता और ऐसी ही अन्यान्य बचकानी मांगों का या किन्हीं प्रतिक्रियाओं का अभाव होता है. होता है तो बस असंभव-असंभवता-असंभाव्य का अकेलापन. जो भी संभव है वह यांत्रिक है और असंभव की परिकल्पना की जा सके, तो कोशिश करने पर उसे उपलब्ध किये जा सकने के कारण वह भी यांत्रिक हो जायेगा.

उस आनंद का कोई कारण या कारक नहीं होता. वह बस सहजतः होती है, किसी अनुभव की तरह नहीं, अपितु किसी तथ्य की तरह. किसी के स्वीकारने या नकारने के लिए नहीं, उस पर वार्तालाप या वादविवाद किये जायें, इसके लिए भी नहीं. वह कोई चीज नहीं कि उसे खोजा जाये, उस तक पहुंचने का कोई मार्ग नहीं. वहां मृत्यु और संहार प्रेम है.

– जे कृष्णमूर्ति

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