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ईश्वर और जीव में अंतर

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यह प्रश्न उठता रहा है कि जब जीव ईश्वर का अंश है तो जीव और ईश्वर में क्या अंतर है? इस अंतर को भगवद्गीता के तेरहवें अध्याय में बताया गया है. ईश्वर चेतन सत्ता है एवं जीव भी है. अंतर है शरीर. जीव केवल अपने शरीर के प्रति सचेत रहता है, जबकि ईश्वर ब्रह्मंड के […]

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यह प्रश्न उठता रहा है कि जब जीव ईश्वर का अंश है तो जीव और ईश्वर में क्या अंतर है? इस अंतर को भगवद्गीता के तेरहवें अध्याय में बताया गया है. ईश्वर चेतन सत्ता है एवं जीव भी है.
अंतर है शरीर. जीव केवल अपने शरीर के प्रति सचेत रहता है, जबकि ईश्वर ब्रह्मंड के समस्त शरीरों के प्रति सचेत रहते हैं, क्योंकि ईश्वर तो प्रत्येक जीव के हृदय में वास करते हैं. ईश्वर जीव के शरीर में रहते हुए जीव जैसा चाहता है, वैसा ही करने के लिए उसे निर्देशित करते हैं. चूंकि जीव अपने शरीर के प्रति सचेत रहता है, इसलिए वह भूल जाता है कि उसे क्या करना है.
वह कर्म करने का संकल्प करता है, लेकिन बाद में अपने ही कर्म के पाप-पुण्य में फंस जाता है. यही कारण है कि उसे एक शरीर त्याग कर दूसरा धारण करना पड़ता है. इस देहांतरण में पिछले कर्मो का फल भोगना पड़ता है. यह कार्यकलाप तभी बदल सकते है, जब जीव सतोगुण में स्थित हो. यदि वह ऐसा करता है तो उसके विगत कर्मो के सारे फल बदल जाते हैं. यह तो हुई शरीर की बात. अब दूसरी बात चेतन के स्तर पर करते हैं. ईश्वर परम चेतन सत्ता है.
चेतन के स्तर पर ईश्वर जीव के बराबर है. दोनों की चेतनाएं दिव्य हैं. अंतर इतना है कि जीव की चेतना भौतिकता से प्रभावित होती है, जबकि भगवान की चेतना प्रभावित नहीं होती. ईश्वर पर यदि भौतिक प्रभाव पड़ता तो वे दिव्य विषयों पर उस तरह बोलने के अधिकारी न होते, जैसा कि वे गीता में बोलते हैं.
स्वामी प्रभुपाद

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