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प्रियता-अप्रियता का भेद

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मनोज्ञता और अमनोज्ञता पदार्थ में नहीं, मनुष्य के मन में होती है. जब तक मन इस दुविधा में उलझा रहता है, समत्व की साधना नहीं कर सकता. समत्व का भाव जागे बिना ज्ञान चेतना का परिपूर्ण विकास नहीं हो सकता. परिपूर्ण ज्ञान की बात एक क्षण के लिए न भी करें तो शांति, भारहीनता और […]

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मनोज्ञता और अमनोज्ञता पदार्थ में नहीं, मनुष्य के मन में होती है. जब तक मन इस दुविधा में उलझा रहता है, समत्व की साधना नहीं कर सकता. समत्व का भाव जागे बिना ज्ञान चेतना का परिपूर्ण विकास नहीं हो सकता. परिपूर्ण ज्ञान की बात एक क्षण के लिए न भी करें तो शांति, भारहीनता और स्वास्थ्य ऐसे तीन तत्व हैं, जिनकी उपलब्धि के लिए समत्व की साधना करनी ही होगी.
ये तीनों चीजें ऐसी हैं, जिन्हें सभी चाहते हैं. हमारी चाह सच्ची है, तो हमें समत्व के मार्ग से गुजरना ही होगा. हमारे र्तीथकरों ने समत्व की साधना की थी. जो साधना उन्होंने की थी, वही हमारे लिए करणीय है. वे हमारे आदर्श हैं. अपने आदर्श को केवल देखते रहें, इससे काम नहीं होगा. हमें भी वैसा ही पुरुषार्थ करना होगा, क्योंकि हम सबका लक्ष्य एक है.
गंतव्य की एकता में गमन की दिशाएं भिन्न कैसे हो सकती हैं? हमारे र्तीथकरों के जीवन का हर क्षण समता से अनुप्राणित था. इसका अर्थ यह नहीं है कि वे अच्छी-बुरी सब चीजों को एक दृष्टि से देखते थे. पदार्थ में अच्छाई भी होती है और बुराई भी. अच्छाई के प्रति प्रियता और बुराई के प्रति अप्रियता का भाव उत्पन्न होने से समता खंडित होती है. अच्छे-बुरे हर पदार्थ के प्रति एक तटस्थ दृष्टिकोण का निर्माण कर समत्व की दिशा में आगे बढ़ना है. प्रियता और अप्रियता में जो भेद हैं, उस भेद को न समझना भूल है, तो उसमें उलझना भी भूल है. भेद में उलङो बिना, स्थिति को उसी रूप में स्वीकार कर चलें, तभी समत्व विकसित होता है.
आचार्य तुलसी

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