प्रकाश पर्व पर विशेष : मन रे, नाम जपहु सुख होई
डॉ एमपी सिंह वरिष्ठ लैप्रोस्कोपिक सर्जन, गुरु नानक अस्पताल, रांची मन के कोने-कोने को स्नेहभरी वाणी से उजागर करने वाले गुरुनानक देवजी का इस धरा पर आगमन कार्तिक पूर्णिमा, सन 1469 को आज से 550 वर्ष पूर्व हुआ. भारत का जनमानस उस समय जाति-पांति, कुरीतियों, कुप्रथाओं, आडम्बरों, अंधविश्वासों, छुआछूत जैसी बेड़ियों में जकड़ा हुआ था. […]
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डॉ एमपी सिंह
वरिष्ठ लैप्रोस्कोपिक सर्जन, गुरु नानक अस्पताल, रांची
मन के कोने-कोने को स्नेहभरी वाणी से उजागर करने वाले गुरुनानक देवजी का इस धरा पर आगमन कार्तिक पूर्णिमा, सन 1469 को आज से 550 वर्ष पूर्व हुआ. भारत का जनमानस उस समय जाति-पांति, कुरीतियों, कुप्रथाओं, आडम्बरों, अंधविश्वासों, छुआछूत जैसी बेड़ियों में जकड़ा हुआ था. ऐसे में जनमानस के जीवन में एक प्रकाश-पुंज का आगमन किसी वरदान से कम नहीं था, जिसने उन्हें इन बेड़ियों से मुक्ति दिलायी.
गुरुनानक देवजी ने अज्ञानता के अंधकार को दूर कर जनमानस को समानता-आधारित एकता के सूत्र में पिरो दिया. गुरु-अनुयायी स्वयं को गुरुनानक देवजी का सिख (शिष्य ) कहने लगे और सिख-धर्म का आविर्भाव हुआ. गुरुनानक देव जी ने प्रभुमय होते हुए मानवता का संदेश दिया. उनकी वाणी अंतर्मन को शुद्ध कर सहजता-सरलता से जीना सिखाती है. बेहद सरल सहज मन में ही प्रभुनाम का स्थायी निवास होता है, ऐसा मन ही दृढ़ता से कुरीतियों, अंधविश्वासों को त्याग सकता है.
मानव से मानव को इस प्रेम के बंधन में गुरुनानक देव जी जैसा ही युगपुरुष जोड़ सकता है. गुरु नानक देवजी द्वारा प्रतिपादित जीवन-यापन के सिद्धांत बेहद सरल हैं, जिसमें प्रभुनाम का सुमिरन, कर्मयोगी की दिनचर्या और अर्जित खुशियों एवं भोजन को बांट कर ग्रहण करने की सांझी व्यवस्था है, ताकि कोई भी आत्मा अतृप्त न रहे. तृप्त आनंदित मन ही प्रभुनाम का सुमिरन कर उससे एकाकार हो सकता है.
कोई भी भूखा न रहे, इसके लिए लंगर जैसी व्यवस्था उनकी ही देन है. निराकार प्रभु की उपासना के लिए किसी आडंबर, जटिल कर्म-कांड की कोई जरूरत ही नहीं. समाज के हर तबके का व्यक्ति इसे अपना सकता है. जीवन के हर आयाम को छूते सरल से गुरु-उपदेश हैं, जो हर भ्रांति और दुविधा का निराकरण करते हैं. अपनी गृहस्थी में रमा हुआ प्रत्येक मनुज गुरु मार्ग पर अपना जीवन सफल कर सकता है. गुरुवाणी बारम्बार संदेश देती है कि प्रभु से एकात्म होने के लिए किसी पलायन या सन्यास की ज़रूरत नहीं.
गुरुनानक देव जी के भक्तिमार्ग पर मनुज को प्रभु से जोड़ते हुए अनमोल सेतु का काम गुरु ही कर सकते हैं, सच्चे गुरु का वंदन भी बार-बार गुरु नानकदेव जी ने किया है. गुरु का हाथ थामने पर जीवन मार्ग में कोई भय या भटकाव उत्पन्न नहीं होता. सतिगुर के प्रति सेवा-भाव तन मन को निर्मल करता है –
सतिगुर सेविऐ मन निरमल, भये पवितु सरीर ।।