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जब हम राह भटकने लगते हैं, तब ज्ञान ही बन जाता है पथ-प्रदर्शक

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राम किशोर साहू किसी अमर शख्स की चर्चा हो, तो उसकी कृतियां स्वच्छ दर्पण-सा सामने आ जाती हैं. अाज प्रेमचंद की चर्चा उनकी कृतियों के बूते ही चतुर्दिक व्याप्त है. 11 उपन्यास और लगभग 200 कहानियों के लेखक प्रेमचंद सही में अमर हैं. उनकी अमरता का रहस्य भी बहुत विस्तृत है. तत्कालीन सामाजिक कुरीतियों, रूढ़िवादिता, […]

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राम किशोर साहू
किसी अमर शख्स की चर्चा हो, तो उसकी कृतियां स्वच्छ दर्पण-सा सामने आ जाती हैं. अाज प्रेमचंद की चर्चा उनकी कृतियों के बूते ही चतुर्दिक व्याप्त है. 11 उपन्यास और लगभग 200 कहानियों के लेखक प्रेमचंद सही में अमर हैं. उनकी अमरता का रहस्य भी बहुत विस्तृत है. तत्कालीन सामाजिक कुरीतियों, रूढ़िवादिता, अंधविश्वास, अशिक्षा, शोषण, लाचारी जैसे ज्वलंत विषयों का उन्होंने बड़ा मार्मिक वर्णन किया है.
उनकी रचनाअों के पात्र स्त्री-पुरुष, बच्चे-बूढ़े, हिंदू-मुसलमान, ऊंच-नीच, सेठ-साहूकार, नेता-वक्ता ही नहीं पशु-पक्षियां भी हैं, जो संबद्ध प्रसंग में सहज मार्मिकता उड़ेल देते हैं. दसवीं जमात तक स्कूली शिक्षा पाये इस लेखक ने लेखन के साथ-साथ ही आगे की पढ़ाई प्राइवेट से की और एफए व बीए की परीक्षाएं पास की.
इस सोचपूर्ण लेखक की पहली कहानी ‘पंच परमेश्वर’ 1916 में प्रकाशित हुई थी. कहानी के प्रसंगों की इन्होंने धारावाहिक ऐसे बढ़ाया है कि यह प्रमाणित हो जाता है – पंच ही परमेश्वर है. यहां इनका एक चिंतन द्रष्टव्य है- ‘अपने उत्तरदायित्व का ज्ञान बहुधा हमारे संकुचित विचारों का सुधारक होता है, जब हम राह भूल कर भटकने लगते हैं, तब यही ज्ञान हमारा विश्वसनीय पथ-प्रदर्शक बन जाता है.
’ ‘बड़े घर की बेटी’, ‘सवा सेर गेहूं’, ‘पूस की रात’, ‘नमक का दारोगा’, ‘ईदगाह’ जैसी कहानियों में न्याय, अन्याय, अर्थ-अनर्थ, भला-बुरा, समझ-नासमझ, दु:ख-सुख जैसी परिस्थितियों को यथार्थ व मार्मिक चित्रण करने में प्रेमचंद पूर्णतया सफल रहे हैं. ‘सोजे-वतन’ में संकलित पांच कहानियों में तीव्र राष्ट्रीय भावना गुंभित रहने के कारण ब्रिटिश सरकार ने इसे जब्त कर लिया था.
असहयोग आंदोलन के क्रम में सरकारी नौकरी छोड़ देने के महात्मा गांधी के आह्वान से प्रभावित होकर प्रेमचंद ने अपनी हेडमास्टर की नौकरी छोड़ दी और दूसरे ही दिन स्वदेश सेवा में अपने को समर्पित कर दिया. इन्होंने ‘माधुरी’ व ‘हंस’ पत्रिका निकाली, जिनमें इन्होंने स्वतंत्र रूप से काम किया. काम के बोझ से उनका स्वास्थ्य गिरने लगा. जलोदर बीमारी पकड़ी. आठ अक्तूबर 1936 को इन्होंने संसार को अलविदा कर दिया.
इनकी कहानियां व इनके उपन्यास कभी पुराने नहीं हो सकते. भाषा की सरलता भावग्राह्यता को आसान कर देती है. आज भी लोग इनकी रचनाएं बड़े चाव से पढ़ते हैं. 1917-1936 को हिंदी में प्रेमचंद युग माना जाता है. देश आज इनका जन्मदिन हर्ष से मनाता है. लमही गांव में इनका भव्य स्मारक बना है.
(लेखक राष्ट्रपति पुरस्कार प्राप्त अवकाशप्राप्त प्रधानाध्यापक हैं.)

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