रश्मि शर्मा रांची, झारखंड से हैं इनका जन्म- 2 अप्रैल को हुआ है. पत्रकारिता में स्नातक, इतिहास में स्नात्कोत्तर की डिग्री ली है. देश के विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में कविताएं, कहानियां, लघुकथा, संस्मरण, यात्रा वृतांत व विविध विषयों पर आलेख प्रकाशित हो चुके हैं. दो एकल कविता संग्रह और चार साझा संकलन प्रकाशित, एक कविता-संग्रह का संपादन भी. लेखन के लिए 2015 में नवसृजन सम्मान और 2017 में कात्ययानी पुरस्कार प्राप्त. संप्रति- स्वतंत्र पत्रकारिता एवं लेखन कार्य. संपर्क- rashmiarashmi@gmail.com
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रश्मि शर्मा की कविताएं
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रश्मि शर्मा रांची, झारखंड से हैं इनका जन्म- 2 अप्रैल को हुआ है. पत्रकारिता में स्नातक, इतिहास में स्नात्कोत्तर की डिग्री ली है. देश के विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में कविताएं, कहानियां, लघुकथा, संस्मरण, यात्रा वृतांत व विविध विषयों पर आलेख प्रकाशित हो चुके हैं. दो एकल कविता संग्रह और चार साझा संकलन प्रकाशित, एक कविता-संग्रह का […]
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ph no- 9334457775
1. अंतिम गांठ
बस, एक अंतिम गांठ
और उसके बाद
अपने दुपट्टे को बांध दूंगी
उस
पक्की सड़क के किनारे वाले
बरगद की सबसे ऊंची शाख पर
परचम की तरह…
जहां से
उम्र गुजर जाने तक
एक न एक बार
तुम गुजरोगे ही
इस ख्याल से
इस याद से
कि जाने वाले की
एक निशानी तो देख आऊं
तब
उतार लेना उस शाख से
मेरा दुपट्टा
और
एक-एक कर खोलना
उसकी सभी गांठे
देखना
सबसे पुरानी गांठ से
निकलेगी
मेरे पहले प्यार की खुश्बू
जो
जतन से बांधा था
पहली बार
तुम्हारी याद में
फिर दूसरी..तीसरी…चौथी
और हर वो गांठ
जिसमें मेरे उम्र भर के आंसू हैं
और लिपटी हुई तुम्हारी याद
हां….
एक भीगा-भीगा गांठ अलग सा होगा
जिसमें
बांध रखा है मैंने
तुम्हारा भेजा
वह चुंबन भी
जो बारिश की बूंदों की तरह
लरजता रहा
ताउम्र मेरे होठों पर
और…….
अंतिम गांठ है
तेरे-मेरे नाम की
साथ-साथ
कि कभी तो
आओगे तुम..
और जब खोलोगे दुपट्टे की गांठ
क्या पता तब तक
तुम मेरा नाम भी भुला चुके होगे
तो ये नाम याद दिलाएगा
कि कभी
हममें भी कुछ रिश्ता था……
2. हम सांझ बन जाएंगे
कभी सोचा था
जैसे दूर क्षितिज में
धरती-अंबर
एकाकार नजर आते हैं
वैसे ही एक दिन
उजाले और रात की तरह
मिलकर
हम भी सांझ बन जाएंगे.
मगर अब हममें-तुममें
बस इतना
बाकी बच गया है
जैसे धरती और बादल का रिश्ता
इसलिए
जब जी चाहे
बरस जाना तुम.
मैं धरती बन समेट लूंगी
अपने अंदर
सारे आरोप-प्रत्यारोप
और अहंकार तुम्हारा.
तुम्हारा प्यार
रेत में पड़ी बूंदों की तरह
विलीन होता देखूंगी
मगर
प्रतिकार में कभी
तुम सा
आहत नहीं करूंगी
उस हृदय को
एक क्षण के लिए भी जिसमें
जगह दी थी तुमने मुझे.
क्योंकि मेरा प्यार
अदृश्य हवा है
जिसे महसूसा जा सकता है
मगर देखा नहीं
तुम्हारी तरह बादल नहीं
जो
ठिकाने बदल-बदल कर बरसे.
3. प्रारब्ध थे तुम
प्रारब्ध थे तुम
आना ही था एक दिन
जीवन में
सारी दुनिया से अलग होकर
मेरे हो जाना
और मुझको अपना लेना…..
प्यार यूं आया
जैसे बरसों तक हरियाए दिखते
बांस के पौधों पर
फूल खिल आए अनगिनत
सफ़ेद
अब इनकी नियति है
समाप्त हो जाना
मृत्यु का करता है वरण
बांस पर खिलता फूल
ठीक वैसे ही फूल हो तुम
मेरी जिंदगी के
और मैं बरसों से खड़ी
हरियाई बांस
तुम्हारा मिलना ही
अंतिम गति है मेरी……
4.कोई छीलता जाता है
मन पेंसिल सा है
इन दिनों
छीलता जाता है कोई
बेरहमी से
उतरती हैं
आत्मा की परतें
मैं तीखी, गहरी लकीर
खींचना चाहती हूं
उसके वजूद में
इस कोशिश में
टूटती जाती हूं
लगातार
छिलती जाती हूं
जानती हूं अब
वो दिन दूर नहीं
जब मिट जाएगा
मेरा अस्तित्व ही
उसे अंगीकार
किया था
तो तज दिया था स्व
उसके बदन पर
पड़ने वाली हर खरोंच
मेरी आत्मा पर पड़ती है
मन के इस मिलन में
मैंने सौंपी आत्मा
उसने पहले सौंपा
अपना अहंकार
फिर दान किया प्यार
वाणी के चाबुक से
लहूलुहान है सारा बदन
पर अंगों से नहीं
आत्मा से टपकता है लहू
कोई छीलता जाता है
मन अब हो चुका है
बहुत नुकीला
पर इसे ही चुभो कर
दर्द दिया नहीं जाता , उसे
जिसे अपनाया है
चोटिल आत्मा
अब नहीं करती कोई भी
सवाल
हैरत है तो बस इस बात पर
कि बेशुमार दर्द पर
एक शब्द ‘प्यार’ अब भी भारी है.
4. गुजरे मौसम की महक
फिर एक बार
मौसम बदलने को है
गए मौसम में
एक कसक बंद हुई थी
दिल के कोकून में
रेशमी अहसास के साथ
एक दर्द
करवटें लेता रहा लगातार
सलवटें चुभती रहीं.
गुजरे मौसम की महक
बेसाख़्ता
खींच ले गई
अपने माज़ी की तरफ़
नहीं झड़ते अब
मेरे बागीचे में फूल शेफ़ाली के
रात-रात भर
दूबों की नोक पर
बुंदकियां सिमटी मिलती हैं
हर सुबह
ओस नहीं है वो, आंख से झरे
मोती हैं
जो हरे धागे की मख़मली चादर पर
बिखरे रहते हैं, हर सुबह.
दश्ते-ग़ुरबत में
फिर चांदनी का बसेरा होगा
फूल महकते होंगे
रजनीगंधा की कलियां
चटखती होंगी
हरसिंगार झरता होगा
माज़ी-ओ-हाल जिसे सौंपा
उसके दिल का मौसम
नामालूम अब कैसा होगा.
5. मरे रिश्ते
……….
वो भी जानता था
सांसें
कब की चुक गई हैं
मगर
मानना नहीं चाहता था
वेंटीलेटर के सहारे
कृत्रिम श्वास के आरोह-अवरोह को
जीवन मान
खुश हो रहा था.
मगर कब तक
उपकरणों के सहारे
जिलाए रखने का भ्रम
पाला जा सकता था
एक न एक दिन
धैर्य चूकना था
सांसें थमनी थीं
अंदर की उकताहट को
बाहर आना ही था
और जिस दिन
कृत्रिम श्वास रोक दी गई
सप्रयास
एक पल के लिए
बहुत बुरा लगा, जैसे
हो गई हो अपने ही हाथों
एक हत्या
मगर
अगले ही पल
सब कुछ सामान्य
पलकों की कोर भी नहीं भीगी
मोबाइल से लगातार जाने लगे
रिश्तेदारों को कॉल
गाड़ियों को व्यवस्थित करने का
कड़े शब्दों में
मिलने लगा निर्देश
रूककर
दो आंसू बहाने का
वक्त नहीं किसी के पास
न पलटकर देखने का वक्त
कि क्या खो गया
जिम्मेदारियां बड़ी होती हैं
किसी की मौत से
मन से मरे रिश्ते की अर्थी
कांधे पर धर, श्मशान पहुंचाना
बहुत आसान होता है
बजाय
सारा दिन प्यार जताकर
अकेले में झल्लाना
चलो
कृत्रिम श्वास , कृत्रिम प्यार
से मुक्ति का पर्व मनाएं
बहुत दिन ढो लिए गए रिश्ते को
नकली आंसू का कफ़न ओढाएं
किसी की मां की अर्थी
निकली है गली से
हम भी बहाने से दो आंसू बहा
मातम मना आएं
आजकल सारे रिश्ते
ऐसे ही होते हैं,
मतलबी, कृत्रिम.
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