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बाबासाहब आंबेडकर का अप्रतिम संघर्ष

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14 अप्रैल, 1891 को महाराष्ट्र के रत्नागिरि जिले के अम्बाबडे गांव के एक महार परिवार में जन्मे बाबासाहब डॉ भीमराव आंबेडकर के जीवन और संघर्ष को समझने के लिए यह जानना जरूरी है कि उन दिनों जाति व्यवस्था के अनेक अनर्थ झेलने को अभिशप्त और अस्पृश्य मानी जाने वाली उनकी जाति की उनसे पहले की पृष्ठभूमि में शिक्षा-दीक्षा की जगह नहीं थी. शिक्षा व्यवस्था पर सवर्णों का आधिपत्य था और शिक्षा संस्थाओं में अस्पृश्यों का प्रवेश निषिद्ध. अस्पृश्यों के अवर्ण बच्चे सवर्ण बच्चों के साथ कक्षा से बाहर भी बैठ या खेल नहीं सकते थे.

बाबासाहब के पिता रामजी राव अंग्रेजी सेना में सूबेदार थे. बाबा भालोजी राव और उनके पिता भी सेना में ही कार्यरत रहे थे. परिवार की इस सैनिक पृष्ठभूमि के पीछे दो बड़े कारण थे. पहला यह कि अस्पृश्य करार दिये जाने के बावजूद महार जाति को बहादुर और लड़ाकू माना जाता था. इसलिए अंग्रेजों की ही नहीं, मुगलों व पेशवाओं की सेनाओं में भी उनकी बहुतायत थी. इसका दूसरा पहलू यह था कि उसके युवक बिना किसी प्रतिबद्धता के प्रायः सारी तत्कालीन सेनाओं के लिए उपलब्ध थे और स्वामिभक्ति के अपने खास गुण के लिए प्रशंसा पाते थे. वे जिन गांवों में रहते, उनकी सुरक्षा का दायित्व भी निभाते थे और इसे लेकर कृतज्ञ ग्रामवासी उनकी वीरता के किस्से भी सुनाया करते थे.

दूसरा कारण यह कि रोजी-रोजगार के अन्य क्षेत्रों में उन पर लागू बंदिशें उनकी नाक में इतना दम किये रखती थीं कि उन्हें सेनाओं में, वे किसी की भी क्यों न हों, भर्ती होकर कठिन सैनिक अभ्यास से गुजरना और वक्त आ पड़े तो मरना-मारना अपेक्षाकृत आसान लगता था. बाबासाहब अपने पिता रामजी राव और माता भीमाबाई की चौदहवीं और अंतिम संतान थे. चूंकि उन दिनों बच्चों की कई जानलेवा बीमारियों के निदान का कोई उपाय नहीं था और वे प्रायः अकाल मौत के लिए अभिशप्त थे, इसलिए अशिक्षा व असुरक्षा के शिकार दंपत्ति संतानें पैदा करते जाते थे. बाबासाहब के भी चौदह भाई-बहनों में से पांच ही बच पाये.

बचपन में बाबासाहब ने एक दिन कुछ बच्चों को पढ़ने जाते देखकर अपने माता-पिता से आग्रह किया कि वे उन्हें भी पढ़ने भेजें, तो बड़ी समस्या खड़ी हो गयी. पिता उन्हें जिस भी विद्यालय में ले जाते, वह महार होने के कारण उन्हें प्रवेश देने से मना कर देता. जैसे-तैसे सतारा के एक विद्यालय में उन्हें प्रवेश मिला भी, तो वहां उनके बालमन को कई शारीरिक व मानसिक प्रताड़नाओं से गुजरना पड़ा. उन्हें महज लंगोटी पहनकर और अपने बैठने के लिए अलग टाटपट्टी लेकर विद्यालय जाना पड़ता और जब तक अध्यापक न आ जाते, कक्षा के बाहर खड़े रहना पड़ता.

अध्यापक के आने पर भी कक्षा में सारे बच्चों से अलग और सबसे पीछे बैठना पड़ता था. वहां से वे श्यामपट्ट भी ठीक से नहीं देख पाते थे. इतना ही नहीं, वे स्वयं अपनी मर्जी से विद्यालय के जल स्रोतों का इस्तेमाल नहीं कर सकते थे और बार-बार याचना के बावजूद कोई उन्हें ऊपर से भी पानी नहीं पिलाता था, इसलिए कई बार वे विद्यालय में प्यासे रह जाते थे. उनके बाल बढ़ जाते, तो कोई नाई उन्हें काटने को तैयार नहीं होता था. तब उनकी बहन उनके बाल काटकर उन्हें विद्यालय भेजा करती थी.

एक बार उन्हें अपने एक भाई के साथ अपने पिता से मिलने जाना हुआ, तो वे मुंहमांगे किराये पर एक बैलगाड़ी में बैठे. लेकिन जैसे ही गाड़ी वाले को पता चला कि वे दोनों महार जाति के हैं, वह आपे से बाहर होकर उन पर बरस पड़ा. इसके बाद वह उन्हें मंजिल तक पहुंचा देता, तो भी गनीमत थी, लेकिन उसने बीच रास्ते उन्हें उतारकर दम लिया. बाबासाहब ने बढ़ा हुआ किराया देने का प्रस्ताव किया, तो भी वह टस से मस नहीं हुआ. बाद में बाबासाहब का परिवार बंबई आ गया, तो उन्हें उम्मीद थी कि वहां के अपेक्षाकृत उदार नगरीय वातावरण में उन्हें सामाजिक भेदभावों से छुटकारा मिल जायेगा. लेकिन उन्हें छुटकारा तो क्या, ठीक-ठाक राहत भी हाथ नहीं आयी.

एक दिन विद्यालय में अध्यापक ने उनसे श्यामपट्ट पर कुछ लिखने को कहा, तो जैसे ही वे उठकर जाने को हुए, सवर्ण छात्र श्यामपट्ट के पास रखे अपने टिफिन करियर हटाने दौड़ पड़े ताकि वे बाबासाहब से छूकर अपवित्र न हो जायें. ऐसे में सहज ही कल्पना की जा सकती है कि बाबासाहब ने अपनी राहों के कांटे बुहारकर उच्च शिक्षा ग्रहण करने से लेकर असामाजिक समाज व्यवस्था को बदलने के लिए समाज सुधार कार्यक्रमों के नेतृत्व और संविधान निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने तक की अपनी यात्रा कैसे दृढ़ संकल्प से संभव की होगी.

(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

14 अप्रैल, 1891 को महाराष्ट्र के रत्नागिरि जिले के अम्बाबडे गांव के एक महार परिवार में जन्मे बाबासाहब डॉ भीमराव आंबेडकर के जीवन और संघर्ष को समझने के लिए यह जानना जरूरी है कि उन दिनों जाति व्यवस्था के अनेक अनर्थ झेलने को अभिशप्त और अस्पृश्य मानी जाने वाली उनकी जाति की उनसे पहले की पृष्ठभूमि में शिक्षा-दीक्षा की जगह नहीं थी. शिक्षा व्यवस्था पर सवर्णों का आधिपत्य था और शिक्षा संस्थाओं में अस्पृश्यों का प्रवेश निषिद्ध. अस्पृश्यों के अवर्ण बच्चे सवर्ण बच्चों के साथ कक्षा से बाहर भी बैठ या खेल नहीं सकते थे.

बाबासाहब के पिता रामजी राव अंग्रेजी सेना में सूबेदार थे. बाबा भालोजी राव और उनके पिता भी सेना में ही कार्यरत रहे थे. परिवार की इस सैनिक पृष्ठभूमि के पीछे दो बड़े कारण थे. पहला यह कि अस्पृश्य करार दिये जाने के बावजूद महार जाति को बहादुर और लड़ाकू माना जाता था. इसलिए अंग्रेजों की ही नहीं, मुगलों व पेशवाओं की सेनाओं में भी उनकी बहुतायत थी. इसका दूसरा पहलू यह था कि उसके युवक बिना किसी प्रतिबद्धता के प्रायः सारी तत्कालीन सेनाओं के लिए उपलब्ध थे और स्वामिभक्ति के अपने खास गुण के लिए प्रशंसा पाते थे. वे जिन गांवों में रहते, उनकी सुरक्षा का दायित्व भी निभाते थे और इसे लेकर कृतज्ञ ग्रामवासी उनकी वीरता के किस्से भी सुनाया करते थे.

दूसरा कारण यह कि रोजी-रोजगार के अन्य क्षेत्रों में उन पर लागू बंदिशें उनकी नाक में इतना दम किये रखती थीं कि उन्हें सेनाओं में, वे किसी की भी क्यों न हों, भर्ती होकर कठिन सैनिक अभ्यास से गुजरना और वक्त आ पड़े तो मरना-मारना अपेक्षाकृत आसान लगता था. बाबासाहब अपने पिता रामजी राव और माता भीमाबाई की चौदहवीं और अंतिम संतान थे. चूंकि उन दिनों बच्चों की कई जानलेवा बीमारियों के निदान का कोई उपाय नहीं था और वे प्रायः अकाल मौत के लिए अभिशप्त थे, इसलिए अशिक्षा व असुरक्षा के शिकार दंपत्ति संतानें पैदा करते जाते थे. बाबासाहब के भी चौदह भाई-बहनों में से पांच ही बच पाये.

बचपन में बाबासाहब ने एक दिन कुछ बच्चों को पढ़ने जाते देखकर अपने माता-पिता से आग्रह किया कि वे उन्हें भी पढ़ने भेजें, तो बड़ी समस्या खड़ी हो गयी. पिता उन्हें जिस भी विद्यालय में ले जाते, वह महार होने के कारण उन्हें प्रवेश देने से मना कर देता. जैसे-तैसे सतारा के एक विद्यालय में उन्हें प्रवेश मिला भी, तो वहां उनके बालमन को कई शारीरिक व मानसिक प्रताड़नाओं से गुजरना पड़ा. उन्हें महज लंगोटी पहनकर और अपने बैठने के लिए अलग टाटपट्टी लेकर विद्यालय जाना पड़ता और जब तक अध्यापक न आ जाते, कक्षा के बाहर खड़े रहना पड़ता.

अध्यापक के आने पर भी कक्षा में सारे बच्चों से अलग और सबसे पीछे बैठना पड़ता था. वहां से वे श्यामपट्ट भी ठीक से नहीं देख पाते थे. इतना ही नहीं, वे स्वयं अपनी मर्जी से विद्यालय के जल स्रोतों का इस्तेमाल नहीं कर सकते थे और बार-बार याचना के बावजूद कोई उन्हें ऊपर से भी पानी नहीं पिलाता था, इसलिए कई बार वे विद्यालय में प्यासे रह जाते थे. उनके बाल बढ़ जाते, तो कोई नाई उन्हें काटने को तैयार नहीं होता था. तब उनकी बहन उनके बाल काटकर उन्हें विद्यालय भेजा करती थी.

एक बार उन्हें अपने एक भाई के साथ अपने पिता से मिलने जाना हुआ, तो वे मुंहमांगे किराये पर एक बैलगाड़ी में बैठे. लेकिन जैसे ही गाड़ी वाले को पता चला कि वे दोनों महार जाति के हैं, वह आपे से बाहर होकर उन पर बरस पड़ा. इसके बाद वह उन्हें मंजिल तक पहुंचा देता, तो भी गनीमत थी, लेकिन उसने बीच रास्ते उन्हें उतारकर दम लिया. बाबासाहब ने बढ़ा हुआ किराया देने का प्रस्ताव किया, तो भी वह टस से मस नहीं हुआ. बाद में बाबासाहब का परिवार बंबई आ गया, तो उन्हें उम्मीद थी कि वहां के अपेक्षाकृत उदार नगरीय वातावरण में उन्हें सामाजिक भेदभावों से छुटकारा मिल जायेगा. लेकिन उन्हें छुटकारा तो क्या, ठीक-ठाक राहत भी हाथ नहीं आयी.

एक दिन विद्यालय में अध्यापक ने उनसे श्यामपट्ट पर कुछ लिखने को कहा, तो जैसे ही वे उठकर जाने को हुए, सवर्ण छात्र श्यामपट्ट के पास रखे अपने टिफिन करियर हटाने दौड़ पड़े ताकि वे बाबासाहब से छूकर अपवित्र न हो जायें. ऐसे में सहज ही कल्पना की जा सकती है कि बाबासाहब ने अपनी राहों के कांटे बुहारकर उच्च शिक्षा ग्रहण करने से लेकर असामाजिक समाज व्यवस्था को बदलने के लिए समाज सुधार कार्यक्रमों के नेतृत्व और संविधान निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने तक की अपनी यात्रा कैसे दृढ़ संकल्प से संभव की होगी.

(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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