टेरर फंडिंग पर अंकुश बहुत जरूरी
भारत ने अंतरराष्ट्रीय मंचों पर टेरर फंडिंग के मुद्दे को लगातार उठाया है, लेकिन हमारे देश में इसकी गंभीरता का अहसास बहुत देर से हुआ है. जब से केंद्र में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में सरकार बनी है
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पिछले दिनों भारत में हुए ‘नो मनी फॉर टेरर’ सम्मेलन से यह इंगित हो गया कि आतंक को आर्थिक और वित्तीय सहयोग मुहैया कराने के मसले को दुनियाभर में गंभीरता से देखा जाने लगा है. यह सभी समझने लगे हैं कि विश्व में कहीं भी जो आतंकी गतिविधियां चल रही हैं, उनका अहम पहलू उनकी फंडिंग है. आतंकियों को बहाल करने, उन्हें प्रशिक्षण देने, साजो-सामान खरीदने, ठिकाने बनाने, यात्राएं करने, हमले की तैयारी करने आदि के लिए पैसों की जरूरत होती है. बिना वित्तीय मदद के कोई भी आतंकी संगठन अधिक समय तक नहीं चल सकता है.
यह अब सब समझने लगे हैं कि आतंक के लिए हथियार ही नहीं, पैसों की भी जरूरत होती है. अब सवाल यह है कि इसे रोका कैसे जाए. इस संबंध में फाइनेंशियल एक्शन टास्क फोर्स (एफएटीएफ) बनाया गया है. उसके अलावा यह पहल भी हुई थी, जिसकी बैठक भारत में अभी हुई है. कुछ साल पहले इसका अधिवेशन हुआ था, पर बीच में कोरोना महामारी के कारण प्रक्रिया बाधित हो गयी थी. इस पहल का उद्देश्य उन उपायों को निर्धारित करना है, जिनसे आतंक को मिलने वाले आर्थिक सहयोग को रोका जा सके.
टेरर फंडिंग को रोकना है, तो वह कोई देश अकेले नहीं कर सकता है. इसे प्रभावी होने के लिए सभी देशों के आपसी सहयोग की आवश्यकता है. इस लिहाज से ‘नो मनी फॉर टेरर’ सम्मेलन एक अच्छी पहल है. इससे कई देश जुड़ रहे हैं और वे परस्पर सहकार के लिए मन भी बना रहे हैं. लेकिन अभी तक इस संबंध में कोई सांगठनिक संरचना नहीं बन पायी है, जैसा संगठन एफएटीएफ का है. पर यह सम्मेलन इस लिहाज से अहम है कि इसमें टेरर फंडिंग के नये-नये तरीकों और उन्हें रोकने से जुड़ी चुनौतियों पर चर्चा हुई है.
यह बहुत महत्वपूर्ण है कि विभिन्न देश अपने अनुभवों से एक-दूसरे को अवगत करा रहे हैं तथा परस्पर सीख भी ले रहे हैं. भारत ने अंतरराष्ट्रीय मंचों पर टेरर फंडिंग के मुद्दे को लगातार उठाया है, लेकिन हमारे देश में इसकी गंभीरता का अहसास बहुत देर से हुआ है. जब से केंद्र में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में सरकार बनी है, तभी से इस मसले को दुनिया के सामने जोर-शोर से उठाया जा रहा है. पहले यह समझदारी मुख्य थी कि अगर आतंक की रोकथाम करनी है, तो आतंकी समूहों के हथियारों को पकड़ा जाना चाहिए. अगर आप असलहा पकड़ लेंगे, तो आप आतंकवाद की कमर तोड़ देंगे, यह सोच हावी थी. इसीलिए आर्म्स एक्ट जैसे कानून लाये गये थे.
बाद में यह अहसास हुआ कि हथियारों को पकड़ने की जरूरत तो है, पर फंड को रोकने की भी अहमियत है. जब से भारत इस आयाम से अवगत हुआ है, तब से फंडिंग रोकने पर बहुत बल दिया जाने लगा है. भारत में भी आप देखें, तो दस्तावेजीकरण की कोशिश हो रही है, पर पूरी तरह से नहीं हो पाया है. फिर भी हमारे तंत्र में इस पहलू पर बहुत काम हुआ है. मेरा मानना है कि गिलास अभी आधा ही भरा हुआ है. प्रधानमंत्री मोदी की यह बात बिलकुल सही है कि उनकी सरकार आने के बाद इस मुद्दे को चर्चा के केंद्र में लाया गया है.
हमारे देश में तीस वर्षों से अधिक समय से आतंकवाद चल रहा है. आतंकवाद से जुड़े लोगों ने बहुत पैसा भी बनाया है. कश्मीर में तो आतंकवाद एक उद्योग का रूप ही ले चुका है. जितने भी आतंकी सरगना हैं, वे रेहड़ी चलाते थे, पर आज वे शॉपिंग मॉल और रियल इस्टेट के मालिक बने हुए हैं. इन्होंने पैसा हर जगह और हर तरीके से बनाया है. इन लोगों ने भारत सरकार से भी पैसा लिया कि हम ये करेंगे और वो नहीं करेंगे. फिर पाकिस्तान से तो इन्हें पैसे मिले ही हैं. ये लोग आपराधिक नेटवर्किंग से भी जुड़ जाते हैं.
बिना पैसे के कोई भी आतंकी गिरोहों में शामिल नहीं होता है. जब कश्मीर में पत्थरबाजी होती थी, तब उसका भी रेट होता था. जब पैसे को रोकने की कोशिश हुई, तो कश्मीर में बहुत सी चीजें होनी बंद हो गयी हैं. पंजाब में दहशतगर्दी के दौर में हमने देखा था, वह दौर फिर से लौटता हुआ दिख रहा है, उसमें पैसे की बड़ी भूमिका होती थी क्योंकि अपराधी भी उसका हिस्सा बन जाते हैं. पंजाब में अब जो हालात हैं, उसमें नशीले पदार्थों की तस्करी का पहलू भी बड़े पैमाने पर जुड़ गया है. उससे आने वाले धन का कुछ हिस्सा अपराधियों को जाता है और बाकी धंधे को बढ़ाने में इस्तेमाल होता है, जिसमें दहशतगर्दी भी शामिल है.
माओवादी संगठनों के बारे में भी आकलन है कि वे कहां-कहां से पैसे कमाते हैं. बीड़ी पत्ते के धंधे, लकड़ी की चोरी, उगाही आदि उनकी आमदनी के स्रोत हैं. अगर यह पैसा नहीं होगा, तो वे अपना संगठन नहीं चला सकते. पूर्वोत्तर के राज्यों में गिरोहों का उगाही का व्यापक नेटवर्क रहा है. इसीलिए अब फंडिंग पर बहुत अधिक ध्यान दिया जा रहा है क्योंकि समझ में यह बात आ गयी है कि यह तो नया उद्योग, नया व्यवसाय बन चुका है. इसे रोकने का एक ही तरीका है कि इस पैसे पर हाथ डाला जाए.
आतंक में बाहरी स्रोतों से आने वाले पैसे की बड़ी भूमिका है. अब हर जगह यह नियम है कि आप नगद में एक सीमित राशि लेकर ही आ-जा सकते हैं. वैश्वीकरण के इस युग में पैसे को एक जगह से दूसरी जगह भेजना आसान हो गया है और अगर आप छोटी-छोटी मात्रा में रकम विभिन्न खातों में भेजें, तो वह राडार पर भी नहीं आ पाता. पैसा ट्रांसफर करने के नये-नये जरिये भी बन गये हैं, चाहे वह इंटरनेट के माध्यम से हो या ऐप या क्रिप्टोकरेंसी के द्वारा हो. छोटी छोटी रकम को किसी एक जगह पर इकट्ठा किया जा सकता है.
अनेक देशों में ऐसे लोग और संगठन हैं, जो दहशतगर्द समूहों को पैसा मुहैया कराते हैं. तुर्की, पाकिस्तान और कुछ देश भी हैं, जो अपने कूटनीतिक हितों को साधने के लिए आतंकियों को प्रोत्साहित करते हैं. ऐसे धन को पूरी तरह रोक पाना बहुत मुश्किल है. जैसा मैंने पहले कहा, बड़ी रकम तो तुरंत पकड़ में आ सकती है, पर छोटी रकम की निगरानी कठिन है. आपके पास ऐसे तरीके हैं, जिन्हें बिग डाटा एनालिटिक्स कहते हैं, जिनके इस्तेमाल से आप ऐसा तंत्र बना सकते हैं, जिससे पैसे को ट्रेस किया जा सके क्योंकि चाहे जैसे भी पैसा आये, वह कहीं न कहीं वैध बैंकिंग से होकर जाता है.