राष्ट्रपति चुनाव में कमजोर हुआ विपक्ष
यह स्पष्ट दिख रहा है कि भाजपा हिंदी पट्टी और पश्चिमी भारत के साथ-साथ देश के अन्य हिस्सों में आक्रामकता के साथ अपने राजनीतिक विस्तार के लिए प्रयासरत है, लेकिन विपक्ष में एकता या रणनीति नहीं दिखती.
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राष्ट्रपति चुनाव में मतदान के दौरान अनेक राज्यों में कांग्रेस समेत कुछ विपक्षी दलों के विधायकों ने एनडीए उम्मीदवार द्रौपदी मुर्मू के पक्ष में वोट डाला है. पहले से विभाजित विपक्ष के लिए यह निश्चित ही एक झटका है. इसकी पृष्ठभूमि को ठीक से समझने के लिए हमें भाजपा और विपक्ष की रणनीतियों को देखना होगा. भाजपा ने बहुत सधे अंदाज में अपना दांव खेला, जबकि विपक्ष ने देर की.
कुछ दशक पहले राष्ट्रपति चुनाव में उम्मीदवार का चयन बहुत पहले हो जाता था. संभावित नामों पर हर पहलू से विचार होता था और चयनित व्यक्ति को बता भी दिया जाता था कि उन्हें इसे अभी सार्वजनिक नहीं करना है, पर उन्हें तैयार रहना चाहिए. इस बार ममता बनर्जी ने बैठक बुलायी और विचार-विमर्श शुरू हुआ. पहले ऐसी बैठकें अंतिम प्रक्रिया होती थीं, जिनमें नाम की घोषणा होती थी. प्रारंभिक दौर में शरद पवार, फारूक अब्दुल्ला और गोपाल कृष्ण गांधी के नाम आये, पर तीनों ने उम्मीदवार बनने से मना कर दिया. इससे संकेत गया कि कोई विपक्ष की ओर से खड़ा ही नहीं होना चाहता. आखिरकार यशवंत सिन्हा का नाम सामने आया.
किसी को भी यह अंदाजा नहीं था कि द्रौपदी मुर्मू भाजपा की ओर से राष्ट्रपति पद की उम्मीदवार होंगी. यह भी विपक्ष की एक विफलता है. आज सरकार में शामिल लोगों को पता है कि विपक्ष के भीतर क्या विचार-विमर्श चल रहा है, लेकिन विपक्ष को कोई भनक नहीं लग सकी. राजनीति में सामने खड़ी शक्ति के बारे में जानकारी रखना जरूरी होता है, तभी तो ठोस रणनीति बन सकेगी. भाजपा ने मुर्मू की उम्मीदवारी से बड़ा तीर मारा है.
देश के सर्वोच्च पद पर एक आदिवासी महिला का आसीन होना एक बहुत बड़ा संकेत है. पूर्वोत्तर और पूर्वी भारत के साथ हिंदी पट्टी और पश्चिमी भारत में यह तबका राजनीतिक रूप से बहुत महत्वपूर्ण है. इनमें कई इलाकों में भाजपा का व्यापक वर्चस्व है. लेकिन स्वाभाविक रूप से दस साल की सत्ता के बाद कुछ एंटी-इनकंबेंसी तो होगी ही. उसकी भरपाई के लिए जनाधार में नये तबकों को लाना जरूरी है. इस संबंध में यह रणनीति अपनायी गयी. यह भी उल्लेखनीय है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ बहुत लंबे समय से आदिवासी समुदायों के बीच सक्रिय है.
भाजपा की रणनीति का दूसरा पहलू था पूर्वी भारत में गैर-भाजपा सरकारों को कमजोर करना. भाजपा की नजरें दक्षिण भारत के साथ पूर्वी भारत पर भी हैं. पूर्वी भारत के तीन राज्यों- पश्चिम बंगाल, ओडिशा और झारखंड- में आदिवासी समुदाय में संथाल जनजाति की बड़ी संख्या है. द्रौपदी मुर्मू इसी जनजाति से आती हैं. वे ओडिशा से भी हैं. बंगाल के संथाल बहुल इलाकों में ममता बनर्जी का बड़ा जनाधार है.
वह पकड़ अब धीरे-धीरे कमजोर होगी. भाजपा ने आदिवासी समुदाय में आकांक्षा और आत्मविश्वास का संचार किया है. लोकतंत्र के लिए यह बड़ी बात है. जब मुर्मू का नाम सामने आया, तब ममता बनर्जी ने कहा कि अगर भाजपा इनके नाम पर सर्वसम्मति बनाने का प्रयास करती, तो विपक्ष मान जाता. बनर्जी के लिए मुर्मू का विरोध करना एक मुश्किल मामला था.
ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक ने शुरू में ही कह दिया कि वे भाजपा उम्मीदवार का समर्थन करेंगे. झारखंड में भी सत्तारूढ़ झारखंड मुक्ति मोर्चा को द्रौपदी मुर्मू का समर्थन करना पड़ा. महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे पर भी दबाव पड़ा. उत्तरी महाराष्ट्र में बड़ी तादाद में आदिवासी हैं. साथ ही, शिव सेना के अधिकतर सांसद भाजपा के साथ जाने के लिए इच्छुक थे. कुछ अन्य छोटी पार्टियों ने भी मुर्मू को समर्थन दे दिया.
ऐसे में पहली बात तो यह साफ हो गयी कि विपक्ष में एकजुटता नहीं है. दूसरा, यह भी संकेत मिल गया कि यशवंत सिन्हा को समर्थन दे रही पार्टियों के आदिवासी विधायक मुर्मू के पक्ष में मतदान कर सकते हैं. उल्लेखनीय है कि राष्ट्रपति चुनाव में राजनीतिक दल व्हिप जारी नहीं कर सकते और सांसदों तथा विधायकों को अपनी अंतरात्मा की आवाज पर वोट डालने की अनुमति होती है.
लेकिन आदिवासी विधायकों के अलावा भी विपक्ष के कुछ वोट मुर्मू को मिले हैं. इस मतदान से वे विधायक अपनी पार्टी के प्रति नाराजगी जाहिर कर रहे हैं. इस चुनाव में विपक्ष 2024 के आम चुनाव के मद्देनजर अपनी एकता को विस्तार दे सकता था. भले ही मजबूत एकता के बाद भी यशवंत सिन्हा या विपक्ष का कोई उम्मीदवार जीत नहीं पाता, लेकिन भाजपा उम्मीदवार को अच्छी टक्कर दे सकते थे. विपक्ष यह तो देश की जनता को दिखा ही सकता था कि उसमें एकताबद्ध होने की क्षमता व संभावना है. लेकिन आज विपक्ष पूरी तरह से तितर-बितर दिख रहा है. कहीं न कहीं राष्ट्रपति चुनाव की इस मुहिम ने विपक्ष को कमजोर ही किया है.
उपराष्ट्रपति चुनाव में हालांकि भाजपा और उसके सहयोगी दलों का पलड़ा बहुत भारी है, पर यह विपक्ष के लिए एक मौका है अपनी एकता दिखाने का. भाजपा ने जगदीप धनखड़ को अपना उम्मीदवार बनाकर जाट समुदाय के एक बड़े हिस्से को अपने पाले में लाने की कोशिश की है, जो किसान आंदोलन के समय से नाराज है.
उत्तर प्रदेश चुनाव में इस समुदाय का कुछ हिस्सा भाजपा के पास वापस लौटा है, पर पश्चिमी उत्तर प्रदेश, हरियाणा और राजस्थान में भाजपा की बढ़त के लिए यह जरूरी है कि जाट उसके पीछे लामबंद हों. राजस्थान पर भाजपा की नजरें टिकी हुई हैं. धनखड़ इसी राज्य से आते हैं. पश्चिम बंगाल के राज्यपाल के रूप में वे लगातार ममता बनर्जी सरकार से भिड़ते रहे. उनके इस तेवर का लाभ भाजपा राज्यसभा में उठाने का प्रयास कर सकती है.
इस चुनाव में भी विपक्ष ने सोच-विचार के साथ उम्मीदवार नहीं उतारा है. मार्गरेट अल्वा अनुभवी राजनेता हैं, पर वे लंबे समय से सक्रिय नहीं रही हैं. ऐसे में उनकी उम्मीदवारी से विपक्ष क्या संकेत देना चाहता है, यह समझ से परे है. यह स्पष्ट दिख रहा है कि भाजपा हिंदी पट्टी और पश्चिमी भारत के साथ-साथ देश के अन्य हिस्सों में आक्रामकता के साथ अपने राजनीतिक विस्तार के लिए प्रयासरत है, लेकिन विपक्ष में एकता या रणनीति नहीं दिखती. क्रॉस वोटिंग से इंगित होता है कि अपने ही नेताओं पर नेतृत्व का नियंत्रण कमजोर हो रहा है.