भगत सिंह को विश्वास था, उनकी शहादत रंग लायेगी
जयंती पर बता रहे हैं कृष्ण प्रताप सिंह
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हम जानते हैं कि पंजाब के लायलपुर जिले के बंगा गांव (जो अब पाकिस्तान में है) में 28 सितंबर को जन्मे शहीद-ए-आजम भगत सिंह को 1931 में राजगुरु व सुखदेव के साथ लाहौर सेंट्रल जेल में निर्धारित तिथि 24 मार्च से एक दिन पहले 23 मार्च को ही शहीद कर सम्मानपूर्वक अंतिम संस्कार तक से वंचित कर दिया गया था. इस सबके पीछे उनकी शहादत को लेकर तत्कालीन गोरे सत्ताधीशों में समाया हुआ डर था, जिससे पार पाना उनके निकट बहुत कठिन हो गया था.
दरअसल, भगत सिंह अपने अंतिम दिनों में अपनी शहादत को लेकर इस विश्वास से भर गये थे कि इससे देश के युवाओं में देशप्रेम का अभूतपूर्व जज्बा पैदा होगा और आजादी के लिए बलिदान देने वालों की तादाद इतनी बढ़ जायेगी कि उस क्रांति को रोक पाना ब्रिटिश साम्राज्यवाद के बूते की बात नहीं रह जायेगी. इसलिए सात अक्तूबर, 1930 को उन्हें फांसी की सजा सुनाये जाने के बाद देश में कई स्तरों पर उन्हें बचाने के प्रयत्न आरंभ हुए, तो वे उनसे सर्वथा निर्लिप्त रहकर मांग करते रहे कि उन्हें युद्धबंदी मानकर गोली से उड़ा दिया जाए. क्योंकि उन्होंने कोई अपराध नहीं किया, बल्कि ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ युद्ध छेड़ा है. उनके विपरीत गोरों की समझ थी कि जैसे ही वे राजगुरु व सुखदेव के साथ उन्हें फांसी पर लटकायेंगे, भय और आतंक का ऐसा देशव्यापी माहौल बन जायेगा कि कोई भारतीय युवक उनके विरुद्ध चूं तक करने की जुर्रत नहीं कर सकेगा. यही कारण है कि उन्होंने लाहौर में उनके और उनके साथियों पर मुकदमा चलाने के लिए तीन सदस्यीय स्पेशल ट्रिब्यूनल गठित किया तो उसमें दो गोरे जजों को सदस्य बनाया. इनमें पहले न्यायमूर्ति जे कोल्डस्ट्रीम स्पेशल ट्रिब्यूनल के अध्यक्ष भी थे, जबकि दूसरे न्यायमूर्ति जीसी हिल्टन सदस्य थे. तीसरे और एकमात्र भारतीय सदस्य थे न्यायमूर्ति आगा हैदर जैदी. गोरे जज एकमत होकर जो भी फैसला सुनाते, वह बहुमत का फैसला हो जाता और न्यायमूर्ति जैदी के फैसले की ‘विमत’ फैसले से ज्यादा की हैसियत नहीं होती.
फिर भी न्यायमूर्ति जैदी ने अन्याय के समक्ष आत्मसमर्पण करना गवारा नहीं किया और जैसे-जैसे मामले की सुनवाई आगे बढ़ी, न्याय के तकाजे से बार-बार गोरे जजों की राजभक्ति के आड़े आकर उन्हें नंगा करते रहे. इसकी शुरुआत 12 मई, 1930 को हुई, जब न्यायालय लाये जाने पर भगत सिंह और उनके साथियों ने उन्हें हथकड़ियां लगाये जाने का विरोध करते हुए पुलिस के वाहन से उतरने से इनकार कर दिया. वे नारे लगाते हुए देशभक्ति के गीत भी गाने लगे, तो न्यायमूर्ति जे कोल्डस्ट्रीम ने पुलिस को उन पर वहीं बल प्रयोग का आदेश दे दिया. न्यायमूर्ति जैदी इसे बर्दाश्त नहीं कर पाये और कोल्डस्ट्रीम के आदेश पर कड़ी आपत्ति जतायी तथा उस दिन की अदालत की कार्यवाही पर हस्ताक्षर कर अपनी सहमति दर्ज करने से इनकार कर दिया. आगे चलकर उन्होंने और भी कई सुनवाई में निष्पक्षता की कमी पर आपत्ति की और गोरे जजों की मंशा के विपरीत अभियोजन पक्ष के गवाहों से बहुत बारीकी से पूछताछ की. प्रसिद्ध कानूनविद और लेखक एजी नूरानी ने अपनी पुस्तक ‘द ट्रायल ऑफ भगत सिंह: पॉलिटिक्स ऑफ जुडिशियरी’ में लिखा है कि ट्रिब्यूनल के दोनों गोरे जज भगत सिंह और उनके साथियों को, जैसे भी मुमकिन हो, फांसी की सजा सुनाने पर आमादा थे. न्यायमूर्ति जैदी इसे सह नहीं पाये तो अन्याय करार देते हुए ट्रिब्यूनल से इस्तीफा दे दिया था. जाहिर है कि गोरी सरकार मुकदमे की सुनवाई का महज नाटक कर रही थी और उसने भगत सिंह व उनके साथियों का अंजाम पहले ही तय कर लिया था.
उन दिनों भगत सिंह और उनके साथियों के क्रांतिकर्म को लेकर हिंसा और अहिंसा का सवाल उठाने वाले कुछ लोग यह कह कर उनकी आलोचना किया करते थे कि उनका अहिंसक संघर्ष में विश्वास ही नहीं है. लेकिन भगत सिंह और उनके साथियों ने जेल में अपने साथ राजनीतिक कैदियों जैसे व्यवहार, अखबार और अच्छे भोजन आदि की मांगों को लेकर पूरी तरह अहिंसक संघर्ष ही किया था. इस मांग को लेकर भगत सिंह द्वारा 14 जून, 1929 को शुरू की गयी भूख हड़ताल 116 दिन चली थी. क्रांतिकारी जतिन दास ने तो भूख हड़ताल के दौरान अपनी जान ही गंवा दी थी. तब लाहौर से ट्रेन से उनका पार्थिव शरीर कोलकाता ले जाये जाते वक्त और वहां अंतिम संस्कार के दौरान जिस तरह लोग भावविह्वल होकर उनका अंतिम दर्शन करने व श्रद्धांजलि देने उमड़े, उससे गोरे बुरी तरह डर गये कि भगत सिंह, सुखदेव व राजगुरु की शहादत के बाद उनके पार्थिव शरीर उनके परिजनों को सौंप दिये गये तो जानें क्या हो जाए. इसीलिए उन्होंने उन्हें तय वक्त से पहले शहीद कर डाला और उनके गुपचुप अंतिम संस्कार की कोशिश भी की.