श्रद्धांजलि के अवसर पर राजनीति, प्रभु चावला का खास आलेख
डॉ. अजीत रानाडे, अर्थशास्त्री एवं सीनियर फेलो, तक्षशिला इंस्टीट्यूशन
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अप्रैल से जून की तिमाही में जीडीपी के 24 प्रतिशत तक गिरने के बीच कृषि क्षेत्र में 3.4 प्रतिशत की सकारात्मक वृद्धि एक उम्मीद की किरण रही. भारत के इतिहास में यह पहली बार हो रहा है, जब कृषि के सूखा या मानसून संकट के कारण प्रभावित नहीं होने के बावजूद हम गंभीर आर्थिक संकट का सामना कर रहे हैं. एक सकारात्मक बात रही कि रबी फसलों, खास कर गेहूं की बड़े पैमाने पर सरकारी खरीद हुई है. पंजाब और हरियाणा जैसे बड़े उत्पादक राज्यों के साथ-साथ राजस्थान, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश से भी केंद्र सरकार के भारतीय खाद्य निगम (एफसीआइ) ने रबी की अच्छी खरीद की. जब एफसीआइ नामित एजेंसियों के माध्यम से खरीद करती है, तो इसका मतलब होता है कि किसानों को सुनिश्चित लाभ यानी निर्धारित न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) मिला है, जो कि इस समय 19,00 रुपये प्रति क्विंटल से अधिक रहा.
एमएसपी का निर्धारण राजनीतिक फैसला है, जो कृषि लागत एवं मूल्य आयोग (सीएसीपी) के इनपुट पर आधारित होता है. इस आयोग का गठन 60 वर्ष पहले हुआ था और यह लागत के आधार पर फसलों के लिए कितना उचित मूल्य तय हो, उसे तार्किक और वैज्ञानिक तरीके से तय करता है. बीज, कीटनाशकों, डीजल, कर्ज, उर्वरकों आदि से कृषि लागत बढ़ने के कारण एमएसपी का भी बढ़ाया जाना जरूरी है, ताकि किसानों को पर्याप्त लाभ मिल सके. अन्यथा यह घाटे का सौदा है. बीते 50 वर्षों में गेहूं और चावल के लिए एमएसपी औसतन छह प्रतिशत की दर से बढ़ी, लेकिन इस अवधि में सरकार द्वारा खरीद 70 से 80 गुना तक बढ़ गयी.
एफसीआइ द्वारा खरीद तीन उद्देश्यों से की जाती है- पहला किसानों को पर्याप्त समर्थन मूल्य मिले, दूसरा कि बफर भंडारण कर राष्ट्र के लिए खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित हो और तीसरा, सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) के लिए अनाज उपलब्ध हो सके, ताकि राशन दुकानें इसे गरीबों और जरूरतमंदों को दे सकें. किसानों को भुगतान किये जानेवाले और पीडीएस से प्राप्त मूल्य के बीच का अंतर केंद्र सरकार के बजट की खाद्य सब्सिडी है. यह दो लाख करोड़ रुपये से अधिक हो चुकी है, यानी जीडीपी के एक प्रतिशत के बराबर. खरीद प्रक्रिया व्यापक है.
यह गेंहू और धान को मिला कर 90 मिलियन टन से अधिक हो चुकी है. एमएसपी के अंतर्गत 23 फसलों को शामिल किया जाता है. इसमें अनाज, तिलहन, दालों के अलावा गन्ना व कपास जैसी वाणिज्यिक फसलें भी होती हैं, लेकिन वास्तव में अधिकांश खर्च केवल दो फसलों- गेंहू और धान पर ही किया जाता है. राष्ट्रीय नीति होने के बावजूद, एफसीआइ को फसल बेचनेवाले किसान मात्र आधा दर्जन राज्यों से ही होते हैं. यह देश में कुल किसानों का मात्र छह प्रतिशत ही हिस्सा है.
एफसीआइ द्वारा बड़े पैमाने पर खरीद होती है, जो देश में कुल अनाज उत्पादन की लगभग एक तिहाई है. कृषि अर्थव्यवस्था में यह बड़ी पहल है और इससे विश्व व्यापार संगठन नाखुश रहता है. साल 1994 में डब्ल्यूटीओ का गठन कर रहे लोगों को भारत यह बताने मे सफल रहा था कि कुल मिलाकर भारतीय किसानों को इससे संरक्षण नहीं मिल रहा है, सरकार की तरफ से यह नकारात्मक समर्थन है. वास्तव में, व्यापार की शर्तें उद्योगों के मुकाबले किसानों के खिलाफ हैं और इसकी भरपाई एमएसपी जैसे उपायों से करने की कोशिश की जाती है. हालांकि, अगर एफसीआइ खरीद से केवल छह प्रतिशत किसानों को ही लाभ मिलता है, तो भी तय एमएसपी का फायदा अप्रत्यक्ष रूप से बड़े पैमाने पर किसानों को मिल रहा है.
संभवतः पहली बार, 40 साल पहले करिश्माई नेता शरद जोशी के नेतृत्व में किसानों का व्यापक आंदोलन हुआ था. वे गणित स्नातक थे और उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि कृषि नहीं थी. फिर भी, वे किसानों को समझते थे, उनका नारा था- हमारी मेहनत और पसीने की सही कीमत दो. यह 1978-79 का प्याज किसानों का प्रसिद्ध आंदोलन था, 1981 में तंबाकू किसानों का भी आंदोलन हुआ. प्रकृति की मार झेलनेवाले किसान, ऊपर से बिचौलियों के शोषण की वजह से और भी बुरे हालात में पहुंच जाते हैं.
वे छल और कपट से छोटे किसानों का बहुत शोषण करते हैं. इसी वजह से कृषि उपज विपणन समिति (एपीएमसी) का प्रस्ताव आया, और इस व्यवस्था को 1960 में पूरे देश में लागू किया गया. यह माना गया कि नियमित चुनाव और किसानों की भागीदारी से इसे लोकतांत्रिक तरीके से संचालित किया जायेगा. सदियों से मौजूद मंडी व्यवस्था का यह औपचारीकरण था, लेकिन बाद के वर्षों में राजनीतिक और वंशवाद के निहित स्वार्थों के लिए एपीएमसी प्रणाली पर कब्जा कर लिया गया. वर्तमान में मात्र 4000 ही एपीएमसी बाजार केंद्र हैं, जबकि पूरे देश में 40,000 बाजार केंद्रों की आवश्यकता है. एपीएमसी सिस्टम के लाइसेंसराज की किसानों और खरीदारों पर मजबूत पकड़ होती है, जिससे उन्हें इस वैधानिक बिचौलिये के आगे मजबूर होना पड़ता है.
नया कृषि कानून इस बिचौलिये की ताकत को कम करेगा. अब किसान अपनी उपज को एपीएमसी या उससे बाहर भी बेचने के लिए स्वतंत्र होगा, लेकिन इस सुधार का परिणाम आने में अभी वक्त लगेगा. कॉरपोरेट हितों को साधनेवाले एक नये प्रकार के बिचौलियों के उभरने का डर है, लेकिन अनजान डर की वजह से सुधारों को टाला तो नहीं जा सकता. हालांकि, कीमतों को लेकर कुछ आश्वासन योजना की जरूरत है, जोकि एफसीआइ और एमएसपी माध्यम से तय होती हैं.
पूर्ण विकसित बाजार अर्थव्यवस्थाओं में, किसानों के लिए वायदा बाजारों से मूल्य आश्वासन की व्यवस्था है, लेकिन इसे अटकलबाजी माना जाता है. वायदा बाजार को अधिक तरल और कीमत निर्धारण को पारदर्शी बनाने की जरूरत है. तब तक के लिए एमएसपी के रूप में सरकारी हस्तक्षेप की आवश्यकता है. इस बात का भय है कि एपीएमसी को कमजोर किये जाने से एमएसपी की व्यवस्था खत्म हो जायेगी, जिससे किसान आक्रोशित हैं. इसका समाधान केवल मौखिक आश्वासन ही नहीं, बल्कि नीति निर्माताओं को लिखित रूप में भी देना चाहिए. इस जरूरी सुधार से यह कृषि कानून, कृषि क्षेत्र में आर्थिक सुधार का महत्वपूर्ण कदम होगा.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)