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आयल चईत उतपतिया!

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प्रभात रंजन कथाकार यह चैत का महीना है. अभी एक लेखक का लिखा पढ़ रहा था, जिसमें उन्होंने चैत के महीने को याद करते हुए गेहूं की पकी फसलों, महुए के फल, पलाश के फूलों का जिक्र किया है. मन गांव में चला गया. लेकिन, मेरी बेटी ने यह पूछा कि जब नया साल एक […]

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प्रभात रंजन
कथाकार
यह चैत का महीना है. अभी एक लेखक का लिखा पढ़ रहा था, जिसमें उन्होंने चैत के महीने को याद करते हुए गेहूं की पकी फसलों, महुए के फल, पलाश के फूलों का जिक्र किया है. मन गांव में चला गया. लेकिन, मेरी बेटी ने यह पूछा कि जब नया साल एक जनवरी को शुरू होता है, तो लोग दोबारा हैप्पी न्यू इयर क्यों बोल रहे हैं, तो मेरे लिए उसे यह समझा पाना मुश्किल है कि चैत का महीना क्या होता है. मैंने सोचा कि उसको केदारनाथ सिंह की यह कविता सुनाऊं- ‘झरने लगे नीम के पत्ते, बढ़ने लगी उदासी मन की… प्राण आ गये दिन दर्दीले, बीत गयी रातें ठिठुरन की.’ लेकिन, क्या इससे चैत के महीने को समझाया जा सकता है.
असल में, ऐसे मौसमों में ही यह समझ में आता है कि ग्रामीण और शहरी जीवन का विभाजन कितना बढ़ गया है. गांवों में चैत पुराने को विदा करके नये के स्वागत का महीना होता है. खेतों में गेहूं की सुनहरी बालियों के हवाओं के संग झूमने, गेहूं की फसल के कटने, अरहर की फसल के कटने का मौसम. इसीलिए किसानी जीवन में चैत के महीने का विशेष महत्व है.
ऋतुराज वसंत की विदाई के बाद आनेवाले चैत के महीने का लोक-परंपरा में काफी महत्व है. कहते हैं कि पतझड़ के साथ जो उदासी का वातावरण बनता है, वह कवियों-कलाकारों के लिए बहुत मुफीद होता है.
अंगरेजी में इसको ‘मेलनकली’ कहा जाता है. एक तरफ नयी फसल की आमद की खुशी, दूसरी तरफ गरमी बढ़ते जाने की पीड़ा. एक तरफ रूमानी सुबह का सपनीलापन, दूसरी तरफ दोपहर का सन्नाटा. लोक गायन में चैती गायन की परंपरा रही है- आयल चईत उतपतिया हो रामा! चैत महीना भगवान राम के जन्म का महीना भी होता है, इसलिए चैती के गीतों में रामा शब्द बहुधा आ जाता है.अच्छी फसल से किसानों को आय होती है, इसीलिए गांव-देहातों में पशु मेले भी इसी महीने में लगते हैं.
मेरे बचपन के शहर सीतामढ़ी में सबसे बड़ा मेला चैत के महीने में लगता था. एक महीने तक चलनेवाले इस मेले में तरह-तरह के पशुओं को देखने का मौका मिलता था. वह मेला आज भी कायम है, जिसको अस्सी के दशक में ‘माधुरी’ पत्रिका में शत्रुघ्न सिन्हा ने अपने एक इंटरव्यू में याद किया था कि जब वे बचपन के दिनों में सीतामढ़ी में थे, तो किस तरह से इस मेले में मटरगश्ती किया करते थे.
बेटी के सवाल, वरिष्ठ लेखक के लिखे से चैत से जुड़ा कितना कुछ याद आ गया. लेकिन, ये सारे महीने गांव की तरह पीछे छूटते जा रहे हैं.
गांवों में तमाम बदलावों के बावजूद मौसम का यह फसल-चक्र के साथ बंधे होने का कारण बना हुआ है. वह गांव जो अब मन में ही रह गया है- चैता का वन ओ मेरे मन!

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