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वैश्विक तापन की चिंता

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वर्ष 1970 से जलवायु परिवर्तन की वजह से बढ़े वैश्विक तापमान का लगभग 93 प्रतिशत हिस्सा धरती पर उपलब्ध जल द्वारा अवशोषित कर लिया गया है. बढ़ते तापमान के दुष्प्रभावों से चिंतित मानव समुदाय भूमि पर तापमान की कटौती को लेकर चिंतित है, लेकिन सागरों के बदलते मिजाज से खतरे में पड़े जीव-जंतुओं के जीवन […]

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वर्ष 1970 से जलवायु परिवर्तन की वजह से बढ़े वैश्विक तापमान का लगभग 93 प्रतिशत हिस्सा धरती पर उपलब्ध जल द्वारा अवशोषित कर लिया गया है. बढ़ते तापमान के दुष्प्रभावों से चिंतित मानव समुदाय भूमि पर तापमान की कटौती को लेकर चिंतित है, लेकिन सागरों के बदलते मिजाज से खतरे में पड़े जीव-जंतुओं के जीवन से बेखबर है. मानवीय क्रिया-कलापों से वैश्विक तापमान लगातार बढ़ रहा है.
वैज्ञानिक भी इस बात को लेकर ज्यादा आश्वस्त नहीं हैं कि मानवीय गतिविधियों से बढ़नेवाले तापमान का दुष्प्रभाव किस स्तर तक होगा. वैज्ञानिक विषयों की प्रतिष्ठित पत्रिका ‘नेचर’ विभिन्न जलवायुवीय क्षेत्रों के अध्ययन के आधार पर दावा करती है कि 50 से 70 फीसदी तक जलवायु परिवर्तन के लिए मानव जिम्मेवार है, जिसकी वजह से आर्कटिक सागर का हिमाच्छित क्षेत्र सिमट रहा है.
गर्मियों में वायुमंडल की उष्णता बढ़ने से वर्ष 1979 से अब तक समुद्रीय हिम में 60 फीसदी तक गिरावट आ चुकी है. आर्कटिक हिम क्षेत्र लगातार घट रहा है, जनवरी में इसका क्षेत्रफल 12.6 लाख वर्ग किलोमीटर दर्ज किया गया, जो 1981-2010 के औसत से 8.6 प्रतिशत कम है. जनवरी-फरवरी, 2017 का औसत वैश्विक तापमान भी सामान्य से 1.69 डिग्री फॉरेनहाइट अधिक दर्ज किया गया, हालांकि पिछले वर्ष 2016 के मुकाबले तापमान में मामूली गिरावट आयी है. इसमें कोई शक नहीं कि वैश्विक तापन (ग्लोबल वार्मिंग) धरती के सात अरब बाशिंदों के सामान्य जीवन के लिए बड़ी चुनौती है. हम यह भी जानते हैं कि इसे रोक पाने के लिए कोई तकनीक अभी तक विकसित नहीं हो सकी है.
इस स्थिति में राजनीतिक और आर्थिक स्थितियों के मद्देनजर ऐसे विश्लेषणों और ऐसी नीतिगत पहलों की आवश्यकता है, जो परस्पर साझेदारी और नयी तकनीकी विकास के हिमायती हों. बाढ़, सूखा, जंगली आग जैसे पूर्व संकेतों को भांपते हुए जलवायु परिवर्तन को निकट भविष्य की चुनौती नहीं, वरन वर्तमान की चुनौती मान कर आगे बढ़ना होगा. लगभग 80 प्रतिशत वैश्विक ऊर्जा जीवाश्म ईंधनों (कोयला, तेल और प्राकृतिक गैस) से आती है, जो कार्बन डाइऑक्साइड के उत्सर्जन का प्रमुख कारण है. फिलहाल, इसका कोई विकल्प नहीं बन सका है.
ऊर्जा के मुद्दे पर कोई देश अपने आर्थिक हितों से समझौता नहीं कर सकता, ऐसे में अक्षय ऊर्जा स्रोतों पर निर्भरता बढ़ाने और जीवाश्म ईंधनों पर निर्भरता कम करने एवं परस्पर हितों को ध्यान में रखते हुए समन्वयपूर्ण हल निकालने की दिशा में आगे बढ़ना होगा.

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