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सलाम इस्मत आपा!

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सुजाता युवा कवि एवं लेखिका फिल्मों की भीड़ में थिएटर अब कोई भूली हुई सी चीज हुई जाती है. किसी वक्त इप्टा और दूसरे संगठनों ने जिस थिएटर को एक आंदोलन की तरह विकसित किया था, आज वह कुछेक महानगरों और दूसरे केंद्रों तक ही सिमट गया है. होना तो यह था कि पिछले शनिवार […]

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सुजाता
युवा कवि एवं लेखिका
फिल्मों की भीड़ में थिएटर अब कोई भूली हुई सी चीज हुई जाती है. किसी वक्त इप्टा और दूसरे संगठनों ने जिस थिएटर को एक आंदोलन की तरह विकसित किया था, आज वह कुछेक महानगरों और दूसरे केंद्रों तक ही सिमट गया है. होना तो यह था कि पिछले शनिवार की बेरंग शाम भारतीय रंग महोत्सव के किसी भव्य नाटक को देखते हुए गुजारी जाती, लेकिन अपनी जांबाज पुरखिन इस्मत आपा के नाम ने शहीद थिएटरकर्मी सफदर हाशमी की याद में बने ‘स्टूडियो सफदर’ में खींच लिया.
मशहूर उर्दू लेखिका इस्मत चुगताई के जीवन और लेखन पर ‘कहानी की कहानी इस्मत की जुबानी’ ब्रेख्तियन मिरर और इप्टा के सहयोग से नूर जहीर के निर्देशन में तैयार कोई डेढ़ घंटे का एक शानदार नाटक है. अपनी जीवनी अधूरी ही छोड़ गयी थीं इस्मत आपा, जिसे नूर ने उनकी कहानियों और उनके वक्त के दूसरे लेखकों की उन पर लिखी तहरीरों को जोड़ कर तैयार किया है यह नाटक, जो गुजिश्ता वक्त के संघर्षों की कहानी तो है ही, हमारे वक्त के लिए एक आईना भी है.
इस्मत चुगताई जिस वक्त उर्दू की दबंग और ताकतवर लेखिका के रूप में उभरीं उस वक्त का समाज भारतीय और खासतौर से मुसलिम समुदाय के लिहाज से एक बेहद रूढ़िवादी समाज था, जहां औरतों को लिखने या बोलने की ही नहीं, पढ़ने की भी आजादी नहीं थी. खुद अपनी पढ़ाई के लिए इस्मत को संघर्ष करने पड़े और तोहमतें झेलनी पड़ीं.
ऐसे में जब अपनी अभिव्यक्ति के लिए उन्होंने कहानी का माध्यम चुना, तो स्वाभाविक था कि वह अपने आस-पास के विभिन्न मुद्दों को उठातीं, जो बाकी लोगों के लिए बेमानी से थे. जब उन्होंने गैरमामूली मुद्दों को पूरी बेबाकी से उठाया, तो खलबली मच गयी. उनकी सबसे ज्यादा उल्लेख की जानेवाली कहानी ‘लिहाफ’ के लिए तो 1941 में लाहौर हाइकोर्ट में अश्लीलता के लिए उन पर मुकद्दमा भी चला. मुकदमे के सहअभियुक्त बने उस दौर के ऐसे ही एक और बेबाक लेखक और इस्मत के अजीज दोस्त मंटो. शरीफ घरानों में जन्मे इन दोनों लेखकों ने हजार वर्षों की गलाजत के चेहरे से नकाब हटायी, तो समाज के अशराफ के सीनों में दर्द लाजिम ही था.
‘लिहाफ’ उस दौर में स्त्री यौनिकता और समलैंगिकता के मुद्दे को बेहद संवेदनशीलता से उठाती है, जिस पर आज भी बात करना विवादों और मुसीबतों को बुलावा देना है. वह अपनी दीगर कहानियों और उपन्यासों में भी विभिन्न स्त्री मुद्दों को उठाती हैं और कहीं भी किसी एक्स्ट्रीम में गये बिना बेहद सहज और चुलबुले तरीके से मार्मिक बातों को कह जाती हैं. तंज उनका अचूक हथियार है. वे उन स्त्रियों के बीच पैठती हैं, जिन्हें हम पतित, पिछड़ी और असभ्य कहते हैं. एक परंपरागत समाज में ऐसी औरतों के बीच से जीने की इच्छा, साहस व बेबाकी को निकाल कर आपा ने अपनी कहानियों में ढालने की जुर्रत की. वे अपने वक्त की आधुनिक स्त्रीवादी लेखिका हैं.
इस्मत को लेखन की परंपरा डॉ रशीद जहां से मिली, जो उनकी सीनियर थीं और जिन्हें वे अपना आदर्श मानती थीं. उनके आरंभिक लेखन पर रशीद जहां का प्रभाव कहा जाता है.
रशीद जहां भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी और प्रगतिशील लेखक संघ की सक्रिय कार्यकर्ता भी थीं और इस लिहाज से वे भारतीय उर्दू साहित्य की पहली विद्रोही लेखिका थीं. डॉ रशीद ने अपने कथा सहित्य में मुसलिम समाज के भीतर प्रचलित कट्टरपंथ और स्त्री मुद्दों को उठाया. रजिया जहीर (नूर जहीर की मां और उस्ताद), रशीद जहां और इस्मत चुगताई मिल कर उस जमाने में प्रगतिशील स्त्री लेखन का एक ऐसी तिकड़ी बनाती हैं, जिनकी खींची कई लकीरें अब तक पार नहीं की जा सकी हैं.
बंबई में रह कर आपा फिल्मों से भी जुड़ी रहीं. ‘गर्म हवा’ विभाजन की राजनीतिक सामाजिक विभीषिका पर बनी फिल्म थी, जिसकी कहानी उन्होंने लिखी थी. अनुवाद न होने से इस्मत को हिंदी में पढ़ा जाना काफी बाद में संभव हो सका. खुद इस्मत भी देवनागरी की हिमायती हुईं. बीबीसी को दिये एक साक्षात्कार में उनकी पुत्री सबरीना ने बताया कि वे चिंतित थीं कि अगर उर्दू साहित्य को देवनागरी में नहीं लिखा गया, तो उर्दू दम तोड़ देगी.
मुसलिम समाज का हिस्सा होते हुए इस्मत ने स्त्री के लिए बनाये चौखटे इस दम-खम से ढहाये कि अक्सर विवादों में घिरीं रहीं. लेकिन, स्त्री-लेखन की यही वह विद्रोही परंपरा है, जो उर्दू में आनेवाली लेखिकाओं को मिली और इस मायने में हिंदी कथा साहित्य में स्त्री की उपस्थिति देर से और कम मजबूत दिखायी दी.
‘निवाला’ में एक सीधी-सादी दाई का काम करनेवाली अविवाहिता सरलाबेन को अड़ोस-पड़ोस वालियां मिल कर लाली-पाउडर, कपड़े-लत्ते की अपने-अपने हिसाब से तमीज सिखा कर पुरुष को लुभाने के गुर सिखाने लगती हैं. सरलाबेन रोते हुए सोचती है- ‘क्या औरत होना काफी नहीं. एक निवाले में इतना अचार, चटनी, मुरब्बा क्यों लाजिमी है… और फिर उस निवाले को बचाने के लिए सारी उम्र की घिस-घिस .’ इस कहानी से एक पल में मानो आपा न केवल सौंदर्य की अवधारणा पर चोट करती हैं, बल्कि शादी के रिश्ते में पति-पत्नी वाली सारी असहज युक्तियों को भी निशाने पर ले आती हैं. यह उनकी विशेषता है कि गंभीर बात कहते हुए भी चुटकी लेना नहीं भूलतीं.
‘लिहाफ’ तो इतनी प्रसिद्ध हुई कि लेबल की तरह उनके नाम से चिपक गयी. एक तरफ उनकी कहानियां पितृसत्ता के चरित्र को उघाड़ती हैं, तो वहीं स्त्री के विद्रोही तेवर भी देखने को मिलते हैं.
‘घरवाली’ जैसी कहानी में अपनी कामवाली लाजो को काबू में करने के लिए मियां उससे निकाह करते हैं और मस्तमौला लाजो को जब तलाक देते हैं, तो लाजो की जान में जान आती है. आपा की कहानियां पितृसत्तात्मक व्यवस्था में पली-बढ़ी औरतों के विभिन्न रंग भी दिखाती हैं. ‘बिच्छू मौसी’ हो ‘सास’ हो या चाल में रहने वाली, धंधा करनेवाली औरतें या ‘दोजखी’ जैसी मार्मिक कहानियां हों, वे अपने समाज की सच्चाइयों को संवेदनशीलता, चुटीलेपन और बेबाकी से कह देने की कला जानती हैं.
स्त्री लेखन में बोल्ड लेखन के नाम पर जो भी लिखा जाता है, उसे इस्मत के लेखन से सरोकार के साथ बेबाक होना सीखने की जरूरत आज भी कतई कम नहीं है. आज जो हमारे हाथों में एक हद तक आजाद कलम है, तो उसमें इस्मत आपा जैसी पुरखिनों के पसीने और लहू का बड़ा योगदान है.

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