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भूलने की हमारी आदत

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गिरींद्र नाथ झा ब्लॉगर एवं किसान हम सभी विकास और बदलाव को लेकर लंबी-लंबी बातें करते हैं, लेकिन इसके साथ गांव की लोक संस्कृति, लोक कला और लोकगीत को हम सबने जिस तेजी से मिटाने की कोशिश की है, वह परेशान करनेवाला मुद्दा है. मुझे उस वक्त बेहद शर्मिंदा होना पड़ता है, जब आॅस्ट्रेलिया स्थित […]

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गिरींद्र नाथ झा
ब्लॉगर एवं किसान
हम सभी विकास और बदलाव को लेकर लंबी-लंबी बातें करते हैं, लेकिन इसके साथ गांव की लोक संस्कृति, लोक कला और लोकगीत को हम सबने जिस तेजी से मिटाने की कोशिश की है, वह परेशान करनेवाला मुद्दा है.
मुझे उस वक्त बेहद शर्मिंदा होना पड़ता है, जब आॅस्ट्रेलिया स्थित ला ट्रेबो यूनिवर्सिटी के हिंदी के प्रोफेसर इयान वुलफोर्ड पूछते हैं कि आपके गांव में विदापत नाच के बारे में बतानेवाला कोई है. पिछले 15 साल में बदलाव की इस आंधी में पुरानी चीजों को हमने चुटकी में उड़ा दिया है.
वाशिंगटन पोस्ट के युवा पत्रकार मैक्स बराक ने भी सवाल किया था कि वे आदिवासियों की लोक कलाओं को नजदीक से देखना चाहते हैं, लेकिन मैं उनके सवाल का भी जवाब नहीं दे सका, क्योंकि अब गिनती के ऐसे लोग हैं, जो इस मुद्दे पर बात कर सकते हैं.
प्रधानमंत्री ग्रामीण सड़क योजना हो या फिर ग्रामीण इलाकों में बिजली पहुंचाने की योजना, यह सच है कि इस तरह की योजनाओं की वजह से ही गांव की तकदीर बदली है, लेकिन जरा सोचिये उन गीतों के बारे में जो पहले धनरोपनी के वक्त गाये जाते थे. आखिर अब कोई लोकगीतों की बात क्यों नहीं करता?
बचपन में अगहन शुरू होते ही पके हुए ‘धनखेतों’ से अगहनी सुगंध आने लगती थी. अलाव तापते हुए खलिहान में दवनी को आये हुए लोगों से बाबूजी बातें करते थे. ‘प्रातकी’ गीत की पहली कड़ी सुबह-सुबह सुनने को मिल जाती थी. ‘प्रातकी’ को अगहन से माघ तक भुरुकुवा तारा उगने के बाद लोग गाते थे. लेकिन, अब कोई इस विषय पर बात करनेवाला नहीं है.
लोकगीत ही क्यों, नयी पीढ़ी तो अब बैलगाड़ी से भी अनजान है. बैलगाड़ी, संपनी, पटुआ-संठी, टप्पर, कचिया-खुरपी, बखारी, इस तरह के शब्दों के बारे में यदि आप बात करेंगे, तो लोग कहेंगे कि ‘जनाब! गुजरे जमाने की बात न करिये’. सच्चाई यह है कि अंचल की डाइरेक्टरी में ऐसे शब्दों का बड़ा महत्व है.
किसानी करते हुए ऐसे शब्दों से मेरा अपनापा बढ़ गया है. बैलगाड़ी हो या फिर बखारी, अब अंचल से ये सब गायब होने के कगार पर हैं, तो भी मेरा मानना है कि अंचल की आंचलिकता इसके बिना अधूरी ही मानी जायेगी. गांव के बारे में जब भी लिखने बैठता हूं, तो बैलगाड़ी की याद आती है, वह भी टप्पर वाली. मेरी जान-पहचान में ऐसे कई हैं, जो बैलगाड़ी को लिखते-पढ़ते हैं, लेकिन इसे कभी देखा नहीं है.
एक ने मुझसे पूछा कि क्या तुमने बैलगाड़ी देखी है (पर्दे पर नहीं सच्ची में)? मैंने कहा कि सवारी भी की है और वह भी टप्पर लगे बैलगाड़ी पर.
यह सब लिखते हुए इतिहासकार सदन झा याद आने लगे हैं. उन्होंने लिखा है- ‘रेणु का आंचलिक गांव तीन बातों पर टिका हुआ है. ये हैं- रेणु का अनोखा लहजा, जो उन्हें प्रेमचंद की विरासत से अलग करती है; दूसरा, उनके द्वारा अंचल-गांव के जीवन से जुड़ी सूचनाओं का अपार संग्रह और उपयोग, जिसे मैं अंचल की सांस्कृतिक स्मृति कहूंगा; और तीसरा, उनके कथा कहने का अनूठापन.
ये तीनों अंचल की एक विशिष्ट छवि बनाते हैं, जिसमें आंचलिक ग्राम्य के साथ अपनापे की अहम भूमिका है. यह अपनापा हमें एक खास ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में आंचलिक ग्राम्य का एक वैकल्पिक आर्काइव प्रदान करता है.’
सदन झा की इन पंक्तियों में डूब कर गांव में रहनेवाले हम जैसे लोग खुद से ही सवाल करने लगे हैं कि आखिर बदलाव और विकास की बात करते हुए अंचल की संस्कृति को हमने क्यों भुला दिया.

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