ऑटोवाले भी दिलवाले हैं

वीर विनोद छाबड़ा व्यंग्यकार किसी शहर का पीक आवर्स यानी सुबह नौ से ग्यारह. हरेक को गंतव्य पर पहुंचने की जल्दी. किसी को आॅफिस जाना है, तो किसी को दुकान खोलनी है. स्कूल-काॅलेजों का भी यही वक्त है. आॅटो और बसों में जगह पाने की खासी मारा-मारी होती है. मन करता है कि दो-चार रुपये […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | December 19, 2016 6:58 AM
वीर विनोद छाबड़ा
व्यंग्यकार
किसी शहर का पीक आवर्स यानी सुबह नौ से ग्यारह. हरेक को गंतव्य पर पहुंचने की जल्दी. किसी को आॅफिस जाना है, तो किसी को दुकान खोलनी है. स्कूल-काॅलेजों का भी यही वक्त है. आॅटो और बसों में जगह पाने की खासी मारा-मारी होती है. मन करता है कि दो-चार रुपये ज्यादा लेले, पिछवाड़ा टेकने भर की जगह मिल जाये. आॅटो वाला भी जानता है- आजकल दफ्तरों में बहुत सख्ती चल रही है. देर से पहुंचने पर क्रॉस लगता है. छुट्टी भी कटती है. बाबू जायेगा कहां? झक मार के देगा ज्यादा.
उस दिन बंदे को जैसे-तैसे ऑटो मिली. स्टॉप पर उतर कर पचास का नोट दिया. आॅटो वाले ने बीस की जगह पच्चीस रुपये काटे. बंदे ने हिम्मत जुटा कर प्रोटेस्ट किया. ज्यादा क्यों लिया?
किराया तो बढ़ा नहीं. आरटीओ से शिकायत करूंगा. चालान हो जायेगा. आॅटो चालक ने आंखें तरेरीं. कर दे शिकायत. चालान होगा तो स्ट्राइक भी होगी. ट्रैफिक जाम हो जायेगा. आज तक यही हुआ है. हमने जो रेट तय किये, उस पर सरकार ने ना-नुकुर के बाद झक मार के मोहर लगायी है. ज्यादा परेशानी है, तो बस पकड़ ले. वैसे तू है बस की सवारी. तेरी सूरत पर लिखा है.
बंदा ऑटो में बैठी अन्य सवारियों की ओर देखता है. कोई समर्थन नहीं करता, बल्कि सब ऑटो वाले की पीठ थपथपाते हैं. भाई जल्दी कर. लेट हुए तो क्रॉस लग जायेगा. आजकल बॉस बहुत कड़क है.
बंदा खून का घूंट पीकर रह गया. उसे अस्थमा है. बस में दम घुटता है. स्कूटर-बाइक से फोबिया है. पीछे बैठने तक से दहशत होती है. कार खरीदने की औकात नहीं. उसे उन सुहाने दिनों की याद आती है, जब वह हष्ट-पुष्ट था. किसी की धौंस बर्दाश्त नहीं थी. वक्त जाया नहीं होता था.
साइकिल जिंदाबाद थी. मीलों पैदल चलने का हौसला भी था.
आज वक्त कितना बदल गया है. निजी वाहनों के साथ-साथ आॅटो की भरमार है. अगर कुछ नहीं बदला है, तो आॅटो चालकों का मिजाज. लखनऊ वाले तो सुनने को तरसते हैं- आइए हुजूर, तशरीफ रखें. इंसानियत से किसी का कुछ लेना-देना नहीं. आपको जाना दक्षिण है और ये उत्तर जाने की बात करते हैं. बंदे को कई आॅटो खाली खड़े दिखते हैं, लेकिन मिन्नत के बाद भी नहीं हिलते. दरअसल, ऐसे शिकार की आस में घात लगाए बैठे होते हैं, जिसे फुल आॅटो चाहिए होता है. और ऐसे मिलते भी हैं. किसी को ट्रेन पकड़नी है, तो किसी को बस. फिर ढेर सारा सामान भी है. आॅटो वाला शहर की हर गली-कूचे से वाकिफ है. गारंटी देता है. गड्डी नहीं छूटने पायेगी. अपनी खुशी से दो पैसे ज्यादा दे देना. कोई बच्चों-परिवार के साथ है, तो कोई नयी-नवेली दुल्हन के साथ. अब ये धक्का-मुक्की में तो जायेंगे नहीं.
एक दिन बंदे को समाज सुधारक बनने की सूझी. भैया आॅटो पर आम आदमी बैठता है. तुम भी आम आदमी हो. एक आम आदमी को दूसरे आम आदमी से हमदर्दी होनी चाहिए.
आॅटो चालक भड़क गया. काहे का आम आदमी? कोई बैंक वाला है, तो कोई रेल वाला. कोई पानी-सीवर विभाग में काम करता है, तो कोई बिजलीघर में. डीएल बनानेवाले भी अपनी सवारी हैं. सभी अपनी-अपनी कुर्सी पर चौधरी हैं. फ्री में कोई काम नहीं करता. हमीं क्यों दें रियायत? महंगाई आसमान पर है. हमारे बच्चों को भी मॉल में शाॅपिंग का शौक है. मल्टीप्लैक्स में सिर्फ आप ही के बीवी-बच्चे फिल्म देखें? हमारे क्यों नहीं? एसी होटल में हमें भी महीने में एक बार डिनर चाहिए.यह तर्क सुन कर बंदा लाजवाब हो जाता है. और ऑटो वाले के पक्ष में वोट डाल देता है.

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