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प्रभात खबर के चार नवंबर के अंक में ‘राजव्यवस्था, लोकतंत्र और भीड़तंत्र’ शीर्षक से बेहद उम्दा लेख प्रकाशित हुआ. भारत औसत आयु के हिसाब से एक युवा देश है. करोड़ों नौजवान ही देश का वर्तमान तय कर रहे हैं और इसी वर्तमान के आधार पर हमारा भविष्य तैयार होगा.
लेकिन, आपने जिस समस्या का जिक्र किया है, यह तो खास कर हमारे नौजवानों की मानसिकता पर चोट है. ऐसे में आनेवाला भविष्य किस कदर अंधकारमय होगा, इसकी तो हम सब सिर्फ कल्पना ही कर सकते हैं. खैर, अभी सिर्फ ‘तुरंत न्याय’ की बात करते हैं. इस रोग को बढ़ाने और बेहद जटिल करने में सबसे बड़ा योगदान आज की मीडिया का ही है. फिल्मों में ऐसे ‘तुरंत न्यायकर्ता’ को हमेशा ही नायक का दर्जा दे दिया जाता है.
हमारे देश में जहां अशिक्षा, बेरोजगारी, गरीबी व भुखमरी चरम पर है, वहीं नायक प्रधान फिल्मों की सफलता और कमाई के आंकड़े क्या बताते हैं?
असल सवाल है कि क्यों हम भीड़ से उसकी मानसिकता बदलने की गुहार लगाते हैं और उस दिन का इंतजार करते हैं, जब सब ठीक हो जायेगा. सरकार की दशा और दिशा क्या है, यह बुद्धिजीवी लोग भली-भांति समझ रहे हैं, जिसे हम जैसे आम लोग नहीं समझ सकेंगे. यदि कुछ समझ भी गये, तो कुछ कर नहीं सकेंगे. लेखकों को किसी मुद्दे पर प्रकाश डालने के साथ समाधान पर भी प्रकाश डालना चाहिए. वे समाधान नहीं बता पाते. बुद्धिजीवी लोगों को आगे बढ़ कर समाधान की ओर भी मार्गदर्शन करना चाहिए?
राजन सिंह, ई-मेल से

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