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मर्दाना पर्सनल लॉ बोर्ड

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नासिरुद्दीन वरिष्ठ पत्रकार एक बार फिर ऑल इंडिया मुसलिम पर्सनल लॉ बोर्ड सुर्खियों में है. और इतिहास गवाह है कि पर्सनल लॉ बोर्ड के सुर्खियों में आने की ज्यादातर एक ही वजह होती है. वह है, मुसलिम महिलाएं. एक बैठकी में तीन तलाक, भरण पोषण, मर्दों की एक साथ कई शादियां जैसी एकतरफा मर्दाना हकों […]

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नासिरुद्दीन
वरिष्ठ पत्रकार
एक बार फिर ऑल इंडिया मुसलिम पर्सनल लॉ बोर्ड सुर्खियों में है. और इतिहास गवाह है कि पर्सनल लॉ बोर्ड के सुर्खियों में आने की ज्यादातर एक ही वजह होती है. वह है, मुसलिम महिलाएं.
एक बैठकी में तीन तलाक, भरण पोषण, मर्दों की एक साथ कई शादियां जैसी एकतरफा मर्दाना हकों के खिलाफ पिछले कुछ महीनों में महिलाओं की आवाज तेज हुई है. ये आवाजें सुप्रीम कोर्ट की चौखट तक पहुंच गयी हैं. जैसी उम्मीद थी, बोर्ड इस आवाज को दबाने के लिए पूरी मुस्तैदी से आगे आ गया है. आवाज दबाने का सबसे आसान और आजमाया नुस्खा है- किसी बात को धर्म के खिलाफ कह दिया जाये.
पिछले दिनों बोर्ड ने सुप्रीम कोर्ट में उन मुद्दों पर 68 पेज का एक जवाबी हलफनामा दायर किया. बोर्ड ने कहा कि एक साथ तीन तलाक, बहुविवाह या ऐसे ही अन्य मुद्दों पर किसी तरह का विचार करना शरीयत के खिलाफ है. इनकी वजह से मुसलिम महिलाओं के अधिकारों के हनन की बात बेमानी है. इसके उलट, इन सबकी वजह से मुसलिम महिलाओं के अधिकार और इज्जत की हिफाजत हो रही है. (कैसे हो रही है, यह बात तो वे महिलाएं ज्यादा बेहतर बता पायेंगी, जिनकी जिंदगी एकतरफा तीन तलाक, बहुविवाह से गुजरी हैं या गुजर रही हैं.) यही नहीं, बोर्ड ने कहा कि कोर्ट को यह हक नहीं बनता कि वह मुसलमानों के निजी मामलों में दखल दे. अभी इस पर बात नहीं करते हैं कि एक झटके में तलाक, एक साथ कई बीवियां रखना जैसे मुद्दे इसलाम की रूह के कितने खिलाफ हैं. इस वक्त सवाल यह है कि ऑल इंडिया मुसलिम पर्सनल लॉ बोर्ड किसके हक की हिफाजत कर रहा है?
भारत में इसलाम की उम्र 13 सौ साल से ज्यादा है, जबकि पर्सनल लॉ बोर्ड महज साढ़े चार दशक पुरानी गैर-सरकारी संस्था है, जिसका कोई संवैधानिक दर्जा नहीं है. न ही यह भारतीय मुसलमानों की एकमात्र प्रतिनिधि संस्था ही है. इसके सदस्यों का चुनाव भी भारत के आम मुसलमान नहीं करते हैं. बोर्ड के विचार को मानना किसी पर लाजिमी नहीं है. हां, यह भारतीय उलमा की बड़ी संस्था है. इसमें शामिल उलमा, सुन्नी मुसलमानों के एक पंथ के बीच पैठ रखते हैं. ज्यादातर उलमा पारंपरिक ख्याल के हैं. वे जिस शरीयत को बचाने की बात करते हैं, वह पुरातन है. मुसलमानों में भी सुन्नियों के एक ही पंथ का विचार है. गौरतलब है, मुसलमानों में कई पंथ हैं.
यह बोर्ड पितृसत्तात्मक मूल्यों और मर्दाना सामाजिक ढांचे की हिफाजत करनेवाला एक संगठन है. इसलिए गाहे-बगाहे यह महिलाओं की बात जरूर करता है, लेकिन हिफाजत मर्दों के हकों की करता है. या यों कहना चाहिए कि बोर्ड मर्दों के निजाम की हिफाजत करने और महिलाओं की आवाज को काबू में करने के लिए ही है. इसमें शामिल ज्यादातर उलमा इसलाम की रूह के दायरे में भी किसी तरह की नयी सोच के मुखालिफ हैं.
इसलिए हफलनामे के जरिये बोर्ड ने जो विचार रखे, वह उसके मर्दाना नजरिये का ही आईना है. बोर्ड का हलफनामा कहता है, महिलाएं जज्बाती होती हैं, इसलिए सही फैसले नहीं ले सकतीं. इसलिए तलाक का हक मर्दों को है. वैसे, बोर्ड चाहे तो एक काम कर सकता है. कुछ दारुल इफ्ता के फतवों पर गौर कर ले और देख ले कि जज्बात में इसलाम की धज्जियां उड़ाते हुए एक वक्त में तीन तलाक मर्द देता है या औरत.
बोर्ड के हलफनामे के मुताबिक, फैसले लेने का काम मर्दों का है. इसलिए मर्दों को ज्यादा हक दिये गये हैं. फैसला लेने में औरतें कमजोर हैं. मर्दों को हक ज्यादा है, इसलिए जिम्मेवारियां भी ज्यादा हैं. इसलाम में महिलाओं को कम अधिकार दिये गये हैं, इसलिए उनकी जिम्मेवारियां भी कम हैं. और तो और बोर्ड के मुताबिक, अधिकारों की यह गैरबराबरी, सामंजस्य पैदा करता है! हम जरा सोचें, यह किस सदी में बात हो रही है? यह किस मुल्क में बात हो रही है? यह किसके लिए बात हो रही है?
बतौर इनसान यह महिलाओं की बेइज्जती है और यह बेइज्जती मजहब के नाम पर है. यह बेइज्जती उन करोड़ों महिलाओं की है, जो मर्दों को पैदा करती हैं और उनकी पर‍वरिश करती हैं. घर चलाती हैं. वोट देती हैं. सरकारें चुनती हैं. चुन कर जाती हैं और समाज व देश के बारे में फैसला लेती हैं. लगे हाथ एक सवाल यह भी तो हो सकता है कि हजारों घरों, दफ्तरों की मुखिया महिलाएं हैं. उन पर जिम्मेवारियां हैं. वे अकेले फैसला लेती हैं. क्या ऑल इंडिया मुसलिम पर्सनल लॉ बोर्ड ऐसी सभी महिलाओं को मर्दों से ज्यादा हक देगा?
इस मुल्क में एक संविधान है, जो ‘भारत के लोग’ की बात करता है, हिंदू या मुसलमान की नहीं. वह मजहब मानने की आजादी देता है. सभी नागरिकों को बराबरी का हक देता है. बतौर नागरिक, बराबरी का हक देते वक्त वह यह नहीं कहता कि मुसलमान महिलाओं को, मर्दों के मुकाबले कम हक होंगे. किसी भी विचार या मजहब की कोई बात, अगर संविधान के मूल्यों से टकरायेगी, तो अंतत: बात संविधान की ही मानी जायेगी. अब कोई इससे सहमत हो या न हो. तो बोर्ड ने जो हलफनामा दिया है, वह संविधान के मुताबिक है या उसके खिलाफ? बतौर नागरिक, किसी भारतीय का हक ज्यादा है न कम. मर्द के वोट की कीमत, महिला से न ज्यादा हुई है न होगी. हां, अगर बोर्ड का बस चले, तो शायद यह दिन भी देखना पड़े!
पिछले साढ़े चार दशकों में भारत की मुसलिम महिलाओं की जिंदगी तय करने में लॉ बोर्ड की अहम भूमिका रही है. सरकारों, न्यायपालिकाओं, मीडिया और समाज के दूसरे अंगों ने इसे ही मुसलमानों का नुमाइंदा मान लिया है. नतीजतन मुसलमानों से जुड़े मसलों में इनकी राय अहम मान ली जाती है. बोर्ड ने अपनी इस हैसियत का मुसलिम महिलाओं को क्या सिला दिया है?
बोर्ड के हलफनामे में जाहिर विचार एक खास खांचे में खास तरह की मुसलिम महिला की तसवीर गढ़ता है. इसके लिए महिलाएं अभी इनसान के दर्जे में ही नहीं हैं. वह पुरुषों से न सिर्फ नीचे है, बल्कि वह उसके इस्तेमाल के लिए महज एक जिस्म है. अगर ऐसा न होता, तो बोर्ड को जीती-जागती महिलाओं की तकलीफ सुनाई-दिखाई देती. इसलाम की रूह इंसाफ और बराबरी है. मुसलिम महिलाएं तो यही मांग रही हैं न.

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