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देशप्रेम का सैलाब

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डॉ सुरेश कांत वरिष्ठ व्यंग्यकार पंद्रह अगस्त फिर आया और चला भी गया. अब तो वह बेचारा पूरे दिन भी नहीं टिक पाता, पहर भर रह कर ही खिसक लेता है. सुबह-सवेरे, जो अब ज्यादातर लोगों का नौ-दस बजे से पहले नहीं होता, कॉलोनीवासी दस-बीस की भारी संख्या में बाहर निकलते हैं, जिनमें भी वेलफेयर-एसोसिएशन […]

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डॉ सुरेश कांत

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वरिष्ठ व्यंग्यकार

पंद्रह अगस्त फिर आया और चला भी गया. अब तो वह बेचारा पूरे दिन भी नहीं टिक पाता, पहर भर रह कर ही खिसक लेता है. सुबह-सवेरे, जो अब ज्यादातर लोगों का नौ-दस बजे से पहले नहीं होता, कॉलोनीवासी दस-बीस की भारी संख्या में बाहर निकलते हैं, जिनमें भी वेलफेयर-एसोसिएशन के पदाधिकारी ही ज्यादा होते हैं. उन बेचारों को एसोसिएशन में रहने के गैरवाजिब फायदे उठाने की यह वाजिब कीमत चुकानी पड़ती है. दफ्तरों में कर्मचारी और स्कूलों में विद्यार्थी तथा अध्यापक भी पूरे उत्साह से, जितना भी वह इस काम के लिए उनके भीतर होता है, जुटते हैं.

लाउडस्पीकर पर बजते देशभक्ति के गानों की सहायता से अपने भीतर बजबजाते देशप्रेम को भाषणबाजी के परनाले से बहा देने के बाद वे लोग तो मौज-मस्ती करने मॉल वगैरह की तरफ निकल लेते हैं, पंद्रह अगस्त बेचारा इधर-उधर धूल-धूसरित पड़े कागज और प्लास्टिक के झंडों के बीच अकेला खड़ा सोचने लगता है कि अब क्या करूं? फिर जब कुछ समझ में नहीं आता, तो वह भी वहां से चल देता है.

पंद्रह अगस्त आता है तो लगता है, जैसे हम थोड़े और आजाद हो गये हों. आजादी हालांकि हमें उनहत्तर साल पहले दे दी गयी थी और भलमनसाहत दिखाते हुए हमने वह ले भी ली थी, पर आजाद तब हम पूरी तरह से नहीं हुए थे, इसलिए हर साल पंद्रह अगस्त को थोड़े-थोड़े आजाद होते रहते हैं. बल्कि, बस एक दिन आजाद अनुभव करने के बाद फिर से खुद को गुलाम समझने लगते हैं. आजाद समझने का कुछ तो आधार दिखाई दे! ऐसी आजादी देख कर ही पुराने आदमी गुलामी के दिनों को बेहतर बताने के लिए मजबूर होते हैं.

अंगरेज भारत को जितना संभव हुआ, चट करने के बाद इसे देसी लोगों के हाथों में थमा कर चले गये, जो अंगरेजों से भी बड़े खाऊ निकले. खा-खाकर देश को निखालिस खाऊ गली में बदल दिया. आम जनता ने भी अंगरेजों को खदेड़ कर अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ ली. अपनों द्वारा ठगे जाने के लिए वह भी तैयार दिखी, मानो कबीर के शब्दों में ऐतराज उसे सिर्फ गैरों से ठगे जाने में था- कबिरा आप ठगाइये, और न ठगिये कोय! इसीलिए तो सभी विपक्षी नेता जनता से लगभग इसी अंदाज में वोट मांगते हैं कि सत्ताधारी पार्टी ने आपको बहुत ठग लिया, अब हमें भी मौका दीजिये.

क्या ऐसी ही आजादी की कल्पना गांधीजी ने की थी? यह जानने के लिए मैंने गांधीजी से लौ लगायी.

दर्शन अलबत्ता मुझे उनके बंदरों ने दिये, वह भी बड़े अनौपचारिक ढंग से. उनमें से किसी के भी हाथ अपने मुंह, आंख या कान पर नहीं थे. कारण पूछने पर पहले बंदर ने कहा- जैसे गांधीजी के कुछ अन्य बंदर… मेरा मतलब है अनुयायी… धोती-कुरता-टोपी वाली अपनी वेशभूषा चुनाव या ऐसे ही कुछ अन्य विशिष्ट अवसरों के लिए रख छोड़ते हैं, हमने वह मुद्रा फोटो-खिंचाई के अवसर के लिए रख छोड़ी है. दूसरे बंदर ने तर्क दिया- वैसे भी देखा जाये, तो तीनों सिद्धांत अब बिलकुल बेकार हो गये हैं.

बुरा मत देखो, बुरा मत सुनो, बुरा मत कहो के सिद्धांतों पर पहले फिर भी चला जा सकता था, क्योंकि तब कुछ अच्छा देखने, सुनने या कहने को रहता था. अब बुरा न देखने, सुनने और कहने का मतलब है- सदा के लिए अपनी आंखें फोड़ लो, कानों के परदे फाड़ लो और जीभ कटवा लो. तीसरे बंदर ने भी कहा- सच तो यह है कि बुरा मत देखो, सुनो और कहो के बजाय गांधी बाबा को बुरा मत करो का उपदेश देना चाहिए था. ऐसा न करने का नतीजा यह हुआ कि उनका नाम लेनेवाले ज्यादातर लोग बुरा देखते, सुनते या कहते तो नहीं, पर बुरा करने में किसी से पीछे नहीं रहते.

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