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शिक्षा नीति की पहल

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केंद्र सरकार ने प्रस्तावित नयी शिक्षा नीति के मुख्य बिंदुओं को सार्वजनिक करते हुए सुझाव आमंत्रित किये हैं. शिक्षा नीति तैयार करने के लिए पूर्व कैबिनेट सचिव टीएसआर सुब्रमण्यम के नेतृत्व में पिछले साल बनी समिति ने अपनी रिपोर्ट मई में सौंपी थी.
इससे पहले राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986 में लागू की गयी थी, जिसे 1992 में संशोधित किया गया.
फिर 2010 में शिक्षा के अधिकार कानून के द्वारा भी कई नीतिगत पहलें की गयीं. लेकिन, बीते ढाई दशकों में सूचना-तकनीक, आर्थिकी और जीवनशैली में तेजी से बदलाव हुए हैं. ऐसे में प्रस्तावित नयी नीति में मौजूदा और भावी उम्मीदों को पूरा करने के उद्देश्य से कई नये आयाम जोड़े गये हैं. 1986 की शिक्षा नीति के परिणामस्वरूप सर्वशिक्षा अभियान, मिड-डे-मील, नवोदय और केंद्रीय विद्यालयों की शृंखलाएं तथा स्कूलों में सूचना-तकनीक जैसी कई पहलें की गयी थीं. बावजूद इसके, सरकारी और स्वयंसेवी संगठनों की विभिन्न रिपोर्ट शिक्षा की बदहाल होती स्थिति उजागर करते रहे हैं.
देश में ऐसे छात्रों की बड़ी संख्या है, जो अपनी कक्षा के स्तर का पाठ ठीक से पढ़ भी नहीं पाते. करीब 50 फीसदी छात्र गणित के बुनियादी कौशल के बिना ही आठवीं तक की शिक्षा पूरी कर लेते हैं. ऐसे में बच्चों को पांचवीं तक ही फेल न करने तथा दसवीं की परीक्षा को रुचि के मुताबिक दो चरणों में आयोजित करने के सुझाव व्यावहारिक कहे जा सकते हैं. विदेशी विश्वविद्यालयों को भारत में और भारतीय विश्वविद्यालयों को दूसरे देशों में परिसर स्थापित करने की अनुमति के अलावा उच्च शिक्षा की संरचना को अंतरराष्ट्रीय मानकों के अनुरूप बनाने के प्रस्ताव भी वक्त की जरूरत के अनुरूप हैं.
यह सच है कि अपने मानव संसाधन की क्षमता का संवर्धन और उपयोग करने में भारत काफी पिछड़ा है. विश्व आर्थिक मंच द्वारा पिछले दिनों जारी मानव पूंजी सूचकांक में भारत को 105वें स्थान पर रखा गया है. इसमें पड़ोसी देश चीन, श्रीलंका, भूटान और बांग्लादेश हमसे बेहतर स्थिति में हैं. यह इसलिए भी है, क्योंकि भारत उन देशों में है जो शिक्षा पर जीडीपी का अत्यंत कम हिस्सा खर्च करते हैं. प्रस्तावित नीति में कहा गया है कि शिक्षा पर खर्च को बढ़ा कर जीडीपी का छह फीसदी किया जाये. यदि सचमुच ऐसा हो सका, तो शिक्षा की गुणवत्ता बढ़ाने की दिशा में ठोस प्रगति हो सकती है.
जरूरी यह है कि हमारी शिक्षा ऐसी हो, जो बच्चों में रचनात्मकता और निष्पक्षतावाद को बढ़ावा दे. शिक्षा नीति या पाठ्यक्रम में कोई भी बदलाव किसी संकीर्ण सोच से प्रेरित न हो, जिसका एक खराब उदाहरण हमारा पड़ोसी देश पाकिस्तान है. उम्मीद करनी चाहिए कि सरकार बुद्धिजीवियों और विशेषज्ञों की राय का समुचित संज्ञान लेते हुए ही नयी नीति को अंतिम रूप देगी.
केंद्र सरकार ने प्रस्तावित नयी शिक्षा नीति के मुख्य बिंदुओं को सार्वजनिक करते हुए सुझाव आमंत्रित किये हैं. शिक्षा नीति तैयार करने के लिए पूर्व कैबिनेट सचिव टीएसआर सुब्रमण्यम के नेतृत्व में पिछले साल बनी समिति ने अपनी रिपोर्ट मई में सौंपी थी.
इससे पहले राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986 में लागू की गयी थी, जिसे 1992 में संशोधित किया गया.
फिर 2010 में शिक्षा के अधिकार कानून के द्वारा भी कई नीतिगत पहलें की गयीं. लेकिन, बीते ढाई दशकों में सूचना-तकनीक, आर्थिकी और जीवनशैली में तेजी से बदलाव हुए हैं. ऐसे में प्रस्तावित नयी नीति में मौजूदा और भावी उम्मीदों को पूरा करने के उद्देश्य से कई नये आयाम जोड़े गये हैं. 1986 की शिक्षा नीति के परिणामस्वरूप सर्वशिक्षा अभियान, मिड-डे-मील, नवोदय और केंद्रीय विद्यालयों की शृंखलाएं तथा स्कूलों में सूचना-तकनीक जैसी कई पहलें की गयी थीं. बावजूद इसके, सरकारी और स्वयंसेवी संगठनों की विभिन्न रिपोर्ट शिक्षा की बदहाल होती स्थिति उजागर करते रहे हैं.
देश में ऐसे छात्रों की बड़ी संख्या है, जो अपनी कक्षा के स्तर का पाठ ठीक से पढ़ भी नहीं पाते. करीब 50 फीसदी छात्र गणित के बुनियादी कौशल के बिना ही आठवीं तक की शिक्षा पूरी कर लेते हैं. ऐसे में बच्चों को पांचवीं तक ही फेल न करने तथा दसवीं की परीक्षा को रुचि के मुताबिक दो चरणों में आयोजित करने के सुझाव व्यावहारिक कहे जा सकते हैं. विदेशी विश्वविद्यालयों को भारत में और भारतीय विश्वविद्यालयों को दूसरे देशों में परिसर स्थापित करने की अनुमति के अलावा उच्च शिक्षा की संरचना को अंतरराष्ट्रीय मानकों के अनुरूप बनाने के प्रस्ताव भी वक्त की जरूरत के अनुरूप हैं.
यह सच है कि अपने मानव संसाधन की क्षमता का संवर्धन और उपयोग करने में भारत काफी पिछड़ा है. विश्व आर्थिक मंच द्वारा पिछले दिनों जारी मानव पूंजी सूचकांक में भारत को 105वें स्थान पर रखा गया है. इसमें पड़ोसी देश चीन, श्रीलंका, भूटान और बांग्लादेश हमसे बेहतर स्थिति में हैं. यह इसलिए भी है, क्योंकि भारत उन देशों में है जो शिक्षा पर जीडीपी का अत्यंत कम हिस्सा खर्च करते हैं. प्रस्तावित नीति में कहा गया है कि शिक्षा पर खर्च को बढ़ा कर जीडीपी का छह फीसदी किया जाये. यदि सचमुच ऐसा हो सका, तो शिक्षा की गुणवत्ता बढ़ाने की दिशा में ठोस प्रगति हो सकती है.
जरूरी यह है कि हमारी शिक्षा ऐसी हो, जो बच्चों में रचनात्मकता और निष्पक्षतावाद को बढ़ावा दे. शिक्षा नीति या पाठ्यक्रम में कोई भी बदलाव किसी संकीर्ण सोच से प्रेरित न हो, जिसका एक खराब उदाहरण हमारा पड़ोसी देश पाकिस्तान है. उम्मीद करनी चाहिए कि सरकार बुद्धिजीवियों और विशेषज्ञों की राय का समुचित संज्ञान लेते हुए ही नयी नीति को अंतिम रूप देगी.
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