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हमारी स्कूली शिक्षा का हाल

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आकार पटेल कार्यकारी निदेशक, एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया मौलाना अबुल कलाम आजाद भारत के पहले शिक्षा मंत्री थे. वे बहुत विद्वान थे और दुनिया के कुछ चुनिंदा पढ़े-लिखे नेताओं में से एक थे. उन्हें मौलाना इसलिए कहा जाता था, क्योंकि वे धार्मिक मामलों के जानकार थे. कुरान को सरलता से पठनीय बनाने का उनका काम आज […]

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आकार पटेल
कार्यकारी निदेशक, एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया
मौलाना अबुल कलाम आजाद भारत के पहले शिक्षा मंत्री थे. वे बहुत विद्वान थे और दुनिया के कुछ चुनिंदा पढ़े-लिखे नेताओं में से एक थे. उन्हें मौलाना इसलिए कहा जाता था, क्योंकि वे धार्मिक मामलों के जानकार थे. कुरान को सरलता से पठनीय बनाने का उनका काम आज भी सराहनीय है, जिसे भारत और पाकिस्तान के मौलवी पढ़ते हैं. उनके इतिहास और साहित्य के ज्ञान के मुकाबले कांग्रेस पार्टी में कोई भी नहीं था.
साल 1931 में जेल से पंडित नेहरू ने जब 900 पन्नों की ‘ग्लिम्प्सेज ऑफ वर्ल्ड हिस्ट्री’ लिखा, तब नेहरू के पास ऐतिहासिक तथ्यों और तारीखों को चेक करने के लिए कोई संदर्भ पुस्तक नहीं थी. लेकिन, नेहरू के पास उस वक्त मौलाना आजाद और उनका प्राचीन मिस्र, यूनान और रोम के इतिहास से लेकर चीन की चाय तक का विश्वकोश मौजूद था. स्वतंत्र भारत के पहले शिक्षा मंत्र रहने के दौरान आजाद ने साहित्य अकादेमी की स्थापना की. यह सब बताने का मेरा तात्पर्य सिर्फ इतना ही है कि शिक्षा मंत्री के पद पर कितने विद्वान लोग रह चुके हैं.
आज शिक्षा मंत्रालय काे दूसरे नाम से जाना जाता है- मानव संसाधन विकास मंत्रालय, जिसकी मंत्री स्मृति ईरानी हैं. स्मृति ईरानी को विश्वास है कि वे मंत्री रहते हुए अच्छा काम कर रही हैं, जबकि नरेंद्र मोदी के ही कुछ समर्थक ऐसा नहीं मानते, क्योंकि वे शिक्षा के क्षेत्र में स्मृति की जानकारी और अनुभव को कम पाते हैं.
कुछ दिनों पहले स्मृति ईरानी ने अपनी उपलब्धियों की सूची बनायी थी. इस सूची में है कि एक साल में देशभर के स्कूलों में चार लाख ट्वाॅयलेट बनवाये गये, गणित और विज्ञान के स्तरों में सुधार पर ध्यान दिया गया और बच्चों के पढ़ने-लिखने का स्तर सुधारने में ध्यान दिया गया. उनका मानना है कि इस तरह के कई महत्वपूर्ण कार्य पहली बार उनके दिशा-निर्देश में ही संपन्न हुए. उनकी इस सूची में और भी बहुत सी चीजें शामिल थीं, जैसे कि मूर्तियों की स्थापना और उपस्थिति दर्ज करने की व्यवस्था आदि, लेकिन फिलहाल इनकी स्थिति देखते हैं. भारत में शिक्षा की समस्या क्या है? सबसे बड़ी समस्या है प्राथमिक शिक्षा की गुणवत्ता.
कहीं कुछ भी ठीक नहीं हो रहा है. जरूरी सुविधाओं का अभाव है, शिक्षक लापरवाह हैं और मध्याह्न भोजन को जैसे-तैसे बनाया जाता है, जिससे कई बार बच्चों की जान तक जा चुकी है. सरकार इन महत्वपूर्ण कार्यों को पूरा कर पाने में नाकाम हो चुकी है और गरीब बच्चाें को भी प्राइवेट स्कूलों में जाने के लिए मजबूर कर रही है. साल 2006 में 20 प्रतिशत से भी कम बच्चे प्राइवेट स्कूलों में पढ़ते थे, लेकिन दस साल बाद आज यह आंकड़ा 30 प्रतिशत से ज्यादा का हो गया है. प्राइवेट स्कूलों में भी गुणवत्ता में कमी है और बहुत से प्राइवेट स्कूलों की हालत तो सरकारी स्कूलों से भी खराब है.
इसका परिणाम यह हुआ है कि हमारे स्कूलों से निकले अधिकतर बच्चे शिक्षित हैं ही नहीं. भारत में प्राथमिक शिक्षा को लेकर प्रथम नामक संस्था ने सबसे बेहतरीन सलाना सर्वे किया है.
इस सर्वे में दर्ज गुजरात के आंकड़ें हमारी आंखें खोलनेवाले हैं. साल 2014 में ग्रामीण गुजरात में सिर्फ 22 प्रतिशत सातवीं कक्षा के छात्र ही अंगरेजी के वाक्य पढ़ सकते थे. 2007 में तो यह आंकड़ा 37 प्रतिशत था यानी हमारी शिक्षा का स्तर गिर रहा है, उस गुजरात में भी, जिसे ज्यादातर भारतीय गुड गवर्नेंस वाला राज्य मानते हैं. कक्षा पांचवीं के सिर्फ 6 प्रतिशत बच्चे यानी 10 साल के गुजराती छात्र अंगरेजी का एक वाक्य तक नहीं पढ़ सकते. यहां यह जोड़ना जरूरी है कि इस सर्वे में 20,000 से ज्यादा गुजराती छात्र शामिल किये गये थे, इसलिए समस्या बड़ी दिख रही है.
कक्षा पांचवीं के 44 प्रतिशत बच्चों में कक्षा तीन स्तर की गुजराती पढ़ पाने की क्षमता थी. बीते कुछ वर्षों में यह संख्या और भी खराब हुई है. कक्षा तीन के सिर्फ एक तिहाई (35 प्रतिशत) छात्र पहली कक्षा की गुजराती पढ़ने में सक्षम थे, यह संख्या साल 2007 से 10 प्रतिशत और बढ़ चुका है.
यह आंकड़ा तो गुजरात के सरकारी स्कूलों का है, लेकिन वहां प्राइवेट स्कूलों की स्थिति भी लगभग ऐसी ही है. उदाहरण के लिए, जहां सरकारी स्कूलों के सिर्फ 13 प्रतिशत पांचवीं कक्षा के छात्र ही भागगणित कर सकते थे, वहीं प्राइवेट स्कूलों में यह संख्या सिर्फ 16 प्रतिशत था. ऐसा माना जाता है कि गुजराती पैदाइशी व्यापारी होते हैं, लेकिन यदि उनमें से 80 प्रतिशत से ज्यादा लोग जहां साधारण अंकगणित की क्षमता तक नहीं रखते, वहां भविष्य बड़ा डरावना है.
इस स्थिति के लिए हम संसाधनों की कमी का दोष मढ़ सकते हैं. अमेरिका अपने 6 से 15 साल के प्रत्येक बच्चे की शिक्षा पर 1,15,000 डॉलर खर्च करता है. यानी एक साल में एक बच्चे पर 7 लाख रुपये का खर्च. भारत में यह अकल्पनीय है. हमें इस स्तर पर पहुंचने के लिए सौ साल लगेंगे.
लेकिन हमें यह भी स्वीकार करना चाहिए कि कुछ ऐसे गरीब देश भी हैं, जहां हमारे जितनी समस्याएं नहीं हैं. जिम्बाबवे की शिक्षा की बात करें, तो वहां प्रति व्यक्ति आय भारत से भी कम है, लेकिन वे शिक्षा के मामले में हमसे बेहतर हैं. कुल मिला कर मामला सिर्फ पैसे की कमी का नहीं है.
मैं हमेशा यह लिखता हूं कि भारत की समस्याएं सिर्फ सरकारी स्तर पर नहीं है. बड़ी समस्याएं हमारे समाज में हैं और इन्हें एक मंत्री ठीक नहीं कर सकता, भले ही वह चाहे जितना भी प्रतिभाशाली क्यों न हो या ईरानी ही खुद को प्रतिभाशाली क्यों न मानती हों. भारत साक्षर और बेरोजगार नागरिकों को पैदा कर रहा है. भविष्य में ये उत्पादक नहीं होंगे और इसके लिए वे खुद जिम्मेवार भी नहीं होंगे, ये आधुनिक अर्थव्यवस्था में काम करने योग्य नहीं होंगे.
हम अपने मानव संसाधन को विकसित करने में फेल हो रहे हैं. बड़ी विनम्रता से मानव संसाधन विकास मंत्री ईरानी को यह स्वीकार करना चाहिए, क्योंकि यह उनकी गलती नहीं है. भले ही वह मानती हों िक उनके मंत्री रहते बहुत से नयी चीजें पहली बार हो रही हैं, हालांकि उनसे पहले भी बहुत से लोगों ने इस पर अच्छे काम किये हैं, लेकिन सब फेल हो चुके हैं.

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