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आतंक का कोई रंग और धर्म नहीं

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उर्मिलेश वरिष्ठ पत्रकार खबरों की दुनिया के भी अपने रहस्य-रोमांच होते हैं. कभी खबरों में सनसनी और रहस्य सहज उपलब्ध होते हैं, इसलिए उनमें विश्वसनीयता होती है. लेकिन कई बार रहस्य-रोमांच बुनने पड़ते हैं, उनमें प्रामाणिकता लाने की कारीगरी करनी पड़ती है. हाल ही में, देश के कुछ बड़े अंगरेजी अखबारों और कुछेक चैनलों में […]

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उर्मिलेश
वरिष्ठ पत्रकार
खबरों की दुनिया के भी अपने रहस्य-रोमांच होते हैं. कभी खबरों में सनसनी और रहस्य सहज उपलब्ध होते हैं, इसलिए उनमें विश्वसनीयता होती है.
लेकिन कई बार रहस्य-रोमांच बुनने पड़ते हैं, उनमें प्रामाणिकता लाने की कारीगरी करनी पड़ती है. हाल ही में, देश के कुछ बड़े अंगरेजी अखबारों और कुछेक चैनलों में एक साथ खबरें आयीं कि ‘इसलामिक स्टेट’ (आइएस) नामक दुनिया के एक दुर्दात आतंकी गुट के बारे में जानकारी पाने की इच्छा भारत के कुछ बड़े महानगरों के साथ अपेक्षाकृत छोटे शहरों में भी बढ़ती जा रही है. खबर लिखने और छापने का मकसद साफ था कि आइएस नामक इस आतंकी गुट के बारे में भारत के कुछेक हलकों और लोगों में उत्सुकता बढ़ रही है.
इशारे-इशारे में यह भी बताया गया कि ऐसी उत्सुकता दिखानेवालों में एक खास समुदाय विशेष के युवाओं की संख्या ज्यादा है.
इस बारे में एक बड़े अंगरेजी अखबार की पहले पेज की खबर दिलचस्प विरोधाभास के साथ शुरू होती है. वह बताती है, ‘सरकार भले ही भारतीय मुसलमानों के बीच आइएस के बेहद सीमित असर की बात कहती हो.. लेकिन देश की एक खुफिया एजेंसी द्वारा कराये गये राष्ट्रीय स्तर के सर्वेक्षण से पता चलता है कि देश के सिर्फ कुछ बड़े शहरों में ही नहीं, अपेक्षाकृत छोटे शहरों में भी सोशल मीडिया और नेट के जरिये उक्त आतंकी गुट के बारे में जानकारी लेनेवालों की संख्या तेजी से बढ़ी है.’
जिन राज्यों में यह सिलसिला ज्यादा तेज बताया गया है- वे हैं जम्मू-कश्मीर, महाराष्ट्र, असम, उत्तर प्रदेश और बंगाल. खबरों में उल्लिखित उक्त सर्वेक्षण के संकेत साफ हैं कि इस तरह की जानकारी लेनेवालों में किस समुदाय और किस उम्र के लोग ज्यादा हैं!
इस कथित सर्वेक्षण के नतीजे को चुनौती देने का मेरे पास कोई आधार नहीं है. उसे हू-ब-हू मान लेने का भी मेरे पास कोई आधार नहीं है. लेकिन खबर का अपना विरोधाभास स्वयं उजागर होता है. खबर के शुरू में कहा गया है कि सरकार भारतीय मुसलमानों में आइएस जैसे आतंकी गुट के खास असर की बात नहीं मानती.
पर खबर की अगली पंक्ति बताती है कि खुफिया एजेंसी के सर्वेक्षण से खुलासा होता है कि उक्त आतंकी गुट का असर और उसके बारे में जानकारी पाने की उत्सुकता बढ़ रही है! जाहिर है, वह खुफिया एजेंसी सरकार की ही होगी.
फिर सरकार के विचार और खुफिया एजेंसी के बीच अलग-अलग राय दिखाने की ‘कारीगरी’ नकली और नियोजित लगती है. इसके पीछे सरकार को निष्पक्ष बताने की मंशा छिपी है. जाहिर है, भारतीय मुसलमानों पर आइएस के असर के बारे में ऐसा कोई खुफिया सर्वेक्षण वाकई हुआ है, तो वह सरकारी आदेश के बगैर नहीं हुआ होगा!
इसमें कोई दो राय नहीं कि इसलामिक स्टेट जैसा आतंकी गुट पश्चिम एशिया के कई मुल्कों में बड़े खतरे के तौर पर मंडरा रहा है.
भारत सहित अन्य एशियाई मुल्कों का चिंतित होना भी स्वाभाविक है. लेकिन पूरी दुनिया की तरह हमारे मुल्क में भी आतंक और उग्रवाद के कई चेहरे हैं. चिंता सबको लेकर होनी चाहिए.
कई बार एक तरह का आतंक दूसरे तरह के आतंक को जगह मुहैया कराता है. कश्मीर में सक्रिय कुछेक एजेंसियों के जरिये बीते 10-15 सालों से हमें बताया-डराया जाता रहा कि भारत में तालिबान दस्तक दे चुका है. फिलहाल, इसके ठोस प्रमाण आज तक नहीं मिले.
ऐसे में यह सवाल जायज है कि क्या इस तरह के हौव्वे कुछ खास किस्म के निहित स्वार्थ वश तो नहीं खड़े किये जाते? डॉ मनमोहन सिंह के ‘राजनीतिक निंदक’ भी मानेंगे कि उनके कार्यकाल में कश्मीर के हालात बेहतर हुए.शुरुआत वाजपेयी के एनडीए दौर में हो गयी थी. लेकिन, पिछले सवा साल से कश्मीर में फिर आतंकी और अलगाववादी खुराफातें बढ़ती नजर आ रही हैं.
इस बीच ऐसा क्या हो गया? भू-राजनीतिक परिदृश्य में ऐसा क्या बदलाव आ गया?कहीं ऐसा तो नहीं कि आज एक खास किस्म के कट्टरपंथ और संकीर्णता को जायज और तार्किक ठहराने के लिए कुछ विदेशी खूंखार आतंकी गुटों का हौव्वा खड़ा करने की रणनीति अपनायी जा रही है! इस रणनीति के जरिये घरेलू स्तर पर पनपते-उभरते कट्टरवाद-उग्रवाद को ‘वक्त की जरूरत’ या ‘राष्ट्रीय एकता का मंत्र’ बताया जा सकता है!
क्या सरकार की किसी खुफिया एजेंसी ने हाल के दिनों में ऐसा कोई सर्वेक्षण कराया है कि हिंदुत्ववादी कट्टरपंथी गुटों की सक्रियता कर्नाटक, महाराष्ट्र, ओडिशा, राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, गुजरात, उत्तर प्रदेश, तमिलनाडु, केरल और असम में क्यों और कैसे बढ़ रही है?
महज संयोग नहीं कि महाराष्ट्र के जाने-माने तर्कवादी विचारक नरेंद्र दाभोलकर, फिर वामपंथी विचारक-कार्यकर्ता गोविंद पनसारे और अब मशहूर कन्नड़ विचारक-लेखक एमएम कलबुर्गी की हत्याओं का पैटर्न एक जैसा है.
कर्नाटक के धारवाड़ में एमएम कलबुर्गी की नृसंश हत्या के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे लोगों ने आरोप लगाया कि हाल ही में एक हिंदुत्ववादी कट्टरपंथी संगठन से जुड़े नेता भुवित शेट्टी ने ट्विट करके धमकाया था- ‘पहले यू आर अनंतमूर्ति थे, अब एमएम कलबुर्गी हैं.
हिंदुत्व का मजाक उड़ाओ और कुत्ते की मौत मरो. डीयर, केएस भगवान अब आपकी बारी है.’ केएस भगवान भी जाने-माने लेखक और विचारक हैं. उन्होंने स्वयं भी कहा है कि अब तक कई बार उन्हें जान से मारने की धमकियां मिल चुकी हैं.
खुद को एक ‘हिंदुत्ववादी सेना’ का प्रमुख बतानेवाला एक स्वयंभू ‘अनुशासक’ कई बरसों से कर्नाटक के कई शहरों के सार्वजनिक स्थलों पर युवतियों के जीन्स पहनने या पुरुष दोस्तों के साथ घूमने के खिलाफ हमले करा रहा है.
क्या इस तरह की गतिविधियों पर खुफिया एजेंसियों या केंद्र सरकार ने कभी चिंता जतायी! इसकी छानबीन भी होनी चाहिए कि हमारी एजेंसियों में एक खास तरह के सोच के लोगों का वर्चस्व तो नहीं बढ़ रहा है!
आज जिस तरह के आतंक-उग्रता के खतरे पूरी दुनिया पर मंडरा रहे हैं और जिस तरह की चुनौतियां भारत के सामने हैं, उनका मुकाबला किसी अन्य तरह के आतंक-उग्रता के रास्ते नहीं किया जा सकता.
कानून-व्यवस्था के लिए अस्त्र-शस्त्र जरूरी हैं, पर कोई समाज सिर्फ अस्त्रों-शस्त्रों से नहीं टिकता. इसके अस्तित्व की संजीवनी कहीं और होती है.
हमारी संजीवनी है-भारतीय संविधान. इसकी आधारशिला है-लोकतंत्र और धर्मनिरेपक्षता. सिर्फ सेक्युलर-लोकतांत्रिक मूल्यों की मजबूती और समावेशी विकास की प्रतिबद्धता से ही हर तरह के आतंक-उग्रवाद को पराजित किया जा सकता है.लोकतंत्र के व्यापक मूल्यों को कागज से जमीन पर लाना होगा, सेक्युलरिज्म को सिर्फ नारा नहीं, राष्ट्रधर्म बनाना होगा. क्या हम ऐसा कर रहे हैं?

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