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बांधना है, तो विश्वास का धागा बांधे

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वक्त बदल रहा है. बदलते वक्त में कुछ फैसले ऐसे भी होते हैं, जो पारिवारिक और सामाजिक स्तर से ऊपर उठ कर करने होते हैं. ऐसे फैसले करने का अधिकार व्यक्ति विशेष को तो है, तो सार्वजनिक जीवन जीनेवाले देश के राजनेता और अन्य नामचीन व्यक्तियों को भी. पारिवारिक और सामाजिक सुरक्षा का रिवाज रक्षा […]

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वक्त बदल रहा है. बदलते वक्त में कुछ फैसले ऐसे भी होते हैं, जो पारिवारिक और सामाजिक स्तर से ऊपर उठ कर करने होते हैं. ऐसे फैसले करने का अधिकार व्यक्ति विशेष को तो है, तो सार्वजनिक जीवन जीनेवाले देश के राजनेता और अन्य नामचीन व्यक्तियों को भी. पारिवारिक और सामाजिक सुरक्षा का रिवाज रक्षा बंधन है.

जिस प्रकार हमारे पास देश का प्रधानमंत्री चुनने का अधिकार है, उसी प्रकार देश के रीति-रिवाजों को भी अपने तरीके से अपनाने का भी व्यक्तिगत अधिकार प्राप्त है. इस बीच घर का कानून कुछ ऐसे फैसले भी नहीं करने देता, जिससे हम कुछ अहम काम कर सकें. जब से हमने होश संभाला है, तभी से हमारे सामने कई सवाल खड़े होते रहे हैं. जैसे, हमें कहां जाना है, किसके साथ जाना है, क्या खाना है, क्या पहनना है, कितने बजे घर लौटना है, क्या पहन कर जाना है? आदि. हमारे ऊपर इन सवालों का जवाब देने का भी दबाव बना रहता है.

हम यह भी जानते हैं कि इस प्रकार के सवाल हमारी भलाई के लिए ही होते हैं. इस बीच एक बड़ा सवाल यह भी पैदा होता है कि सिर्फ रक्षा बंधन के नाम पर अपनी बहनों की रक्षा करने का सौगंध क्यों खाते हैं? क्या दूसरी लड़कियां किसी की बहन नहीं है? होना तो यह चाहिए कि रक्षा बंधन के दिन देश के भाई अपनी बहनों के साथ अन्य लड़कियों की रक्षा करने का भी सौगंध उठायें. अच्छा तो यही होगा कि लोग सिर्फ धागेवाली राखी बांधने और बंधवाने के बजाय विश्वास के धागे को बांधे और बंधवाएं. इससे देश और समाज में सिर्फ लड़कियों को ही नहीं, समस्त नारी जाति की रक्षा का संकल्प लेकर लोग आगे बढ़ेंगे. इससे किसी को शर्मसार भी नहीं होना पड़ेगा. इससे बड़ी सामाजिक सुरक्षा कोई हो ही नहीं सकती.

असगर अली, माटीघर, धनबाद

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