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68 वर्षो का सफर

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आज जब भारत अपनी आजादी की 69वीं वर्षगांठ मना रहा है, वह इस बात पर गर्व कर सकता है कि उसे दुनिया में सबसे तेजी से आगे बढ़ते देश के रूप में आंका जा रहा है. आर्थिक एवं सैन्य ताकत जैसे कई पैमानों पर हम दुनिया के शीर्ष देशों की जमात में शामिल हैं. गगनचुंबी […]

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आज जब भारत अपनी आजादी की 69वीं वर्षगांठ मना रहा है, वह इस बात पर गर्व कर सकता है कि उसे दुनिया में सबसे तेजी से आगे बढ़ते देश के रूप में आंका जा रहा है. आर्थिक एवं सैन्य ताकत जैसे कई पैमानों पर हम दुनिया के शीर्ष देशों की जमात में शामिल हैं.

गगनचुंबी इमारतें अब हमारे महानगरों की भी पहचान बन रही हैं. हम चांद पर पहुंच कर ‘सारे जहां से अच्छा हिंदोस्तां हमारा’ का उद्घोष कर चुके हैं और कुछ वर्षो बाद गर्व का यही उद्घोष मंगल पर भी गूंजनेवाला है.

आज सवा सौ करोड़ लोग यदि ‘सबसे आगे होंगे हिंदुस्तानी’ की उम्मीदें, आकांक्षाएं और सपने पाल रहे हैं, तो यह 68 वर्षो के सफर में हासिल इन्हीं उपलब्धियों की देन है. लेकिन, स्वाधीनता दिवस की पावन वेला हमें हर साल यह सवाल पूछने पर भी मजबूर कर रही है कि तरक्की का यह उजाला देश के कितने परिवारों तक पहुंचा है?

इस सवाल का सबसे ताजा जवाब मिला है सामाजिक-आर्थिक जनगणना के हाल में जारी आंकड़ों से. आज यदि गांवों में रहनेवाले 90 फीसदी से अधिक परिवार हर माह 10 हजार रुपये से भी कम अजिर्त करते हैं और 50 फीसदी से अधिक परिवार भूमिहीन हैं, तो यह इस बात का सबूत है कि 68 वर्षो में चलायी गयीं कल्याणकारी योजनाओं और ढाई दशक से जारी आर्थिक उदारीकरण की नीतियों का लाभ ग्रामीण भारत तक काफी कम पहुंचा है, जहां आज देश की दो तिहाई से अधिक आबादी निवास करती है.

गांवों में रहनेवाले 74.49 फीसदी कुल परिवारों, जबकि 83.56 फीसदी दलित और 86.57 फीसदी आदिवासी परिवारों की मासिक आय का पांच हजार रुपये से भी कम होना बताता है कि देश की तरक्की को इसके अंतिम जन तक पहुंचाने का गांधी का सपना अभी कोसों दूर है.

आजादी के 68 वर्षो बाद हमारे पास एक तरफ कुछ उपलब्धियों के गर्व करने लायक वे आंकड़े हैं, जिनसे दूसरे स्वाधीन देशों को ईष्र्या हो सकती है, तो दूसरी तरफ उदासीनता और गम के अंधेरे में डूबे वे करोड़ों चेहरे भी हैं, जो दुनिया के सबसे गरीब लोगों में शुमार होते हैं.

आजादी के इन वर्षो की बड़ी उपलब्धि जहां यह रही है कि देश और समाज सती प्रथा जैसी कुछ रूढ़ियों से आजाद हुआ है और आधुनिक तकनीक के साथ हमारे युवा तरक्की की नयी कहानियां लिख रहे हैं, वहीं बड़ी विफलता यह रही है कि शहर और गांव ही नहीं, अमीर और गरीब के बीच का फासला भी लगातार बढ़ा है.

देश के 68 वर्षो के सफर की विडंबनाएं यहीं तक सीमित नहीं है. इन सालों में एक तरफ हम अपने संसदीय जनतंत्र को लगातार मजबूती प्रदान करने में सफल रहे हैं, तो दूसरी तरफ निर्थक हंगामों के बीच संसद के लगातार अनुत्पादक होते जाने की चिंता भी हमें सता रही है.

इस बीच धनशक्ति, बाहुबल और वोटबैंक की राजनीति ने राष्ट्र निर्माण के प्रति देश की राजनीतिक प्रतिबद्धता को लगातार कमजोर किया है. कहने को तो हम अपने नागरिकों को शिक्षा, सूचना, भूख से सुरक्षा आदि जैसे अधिकार देकर लगातार अधिकार संपन्न बना रहे हैं, लेकिन अशिक्षा और भुखमरी के पैमानों पर हम आज भी दुनिया के सबसे पिछड़े देशों की जमात में खड़े हैं. एक तरफ हमारा समाज महिलाओं के सशक्तीकरण के लिए लगातार मुखर हो रहा है, तो दूसरी तरफ महिलाओं के उत्पीड़न की घटनाएं भी साल-दर-साल बढ़ रही हैं.

वंचित तबकों को समाज की मुख्यधारा से जोड़ने के उद्देश्य से चलाये गये अनेक कल्याणकारी कार्यक्रमों और आरक्षण की व्यवस्था के बावजूद इन वर्षो में यदि हम सामाजिक-आर्थिक विषमता की खाई को पाटने में विफल रहे हैं, तो हमें विकास की नीतियों पर नये सिरे से गौर करने की जरूरत है. यह जरूरत इसलिए भी है, क्योंकि सामाजिक-आर्थिक विषमता की यही खाई देश के कई इलाकों में उग्रवाद और अलगाववाद को फलने-फूलने का मौका प्रदान कर रही है.

जाहिर है, 69वें स्वाधीनता दिवस पर हमें उपलब्धियों से पैदा आत्मविश्वास के साथ मौजूदा चुनौतियों के लिए आसाधारण सक्रियता की जरूरत का भी ध्यान रखना होगा. देश के अंतिम जन को खुशहाल बनाने की मंजिल यदि अब भी कोसों दूर है, तो हमें विकास का कोई ऐसा रास्ता तलाशना होगा, जो देश को सवा सौ करोड़ लोगों के सपनों की मंजिल की ओर तेजी से ले जाये.

15 अगस्त के आसपास गूंजनेवाला फिल्म ‘सिकंदर-ए-आजम’ का यह गीत हर साल हमारी उम्मीदों को जवां कर देता है- ‘जहां डाल-डाल पर सोने की चिड़िया करती है बसेरा, वह भारत देश है मेरा’, पर यह सवाल अनुत्तरित छोड़ जाता है कि देश का वह सुनहरा अतीत वर्तमान की धरातल पर कब उतरेगा!

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