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भुजंगी भाईजान

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बिहार वचन और दिशा के स्तर पर परिवर्तन का आकांक्षी है, और वह उस पार्टी का समर्थन करेगा जो निभाने लायक उम्मीदें लेकर आयेगी. शत्रुओं का भाईचारा कोई गुजरी हुई बात हो चुकी है. अमूल मक्खन के विज्ञापनों की तरह परिहासपूर्ण किसी भी चीज को बहुत गंभीरता से लिया जाना चाहिए, भले ही उनमें परेशान […]

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बिहार वचन और दिशा के स्तर पर परिवर्तन का आकांक्षी है, और वह उस पार्टी का समर्थन करेगा जो निभाने लायक उम्मीदें लेकर आयेगी. शत्रुओं का भाईचारा कोई गुजरी हुई बात हो चुकी है.

अमूल मक्खन के विज्ञापनों की तरह परिहासपूर्ण किसी भी चीज को बहुत गंभीरता से लिया जाना चाहिए, भले ही उनमें परेशान करने वाले अनेकार्थी शब्दों का प्रयोग हुआ हो. जो लोग अमूल के विज्ञापन बनाने हैं, उन्हें देश के जनमत के नब्ज की बहुत सही पकड़ है. इसी कारण से वह बहुत असरदार होता है. इसीलिए जब उन्होंने राजनीतिक मतभेदों पर मानवीय भावनाओं की जीत का बखान करती फिल्म बजरंगी भाईजान की प्रशंसा की तो मौजूदा परेशानियों के बावजूद भारत-पाक में आम तौर पर व्याप्त मिल-जुल कर टकरावों के समाधान की भावना का उसमें रेखांकन करना आसान था. इसका अर्थ यह नहीं है कि ऐसा हो ही जायेगा, यह तो बस यह संकेत है कि उम्मीद टूटी नहीं है. मैं अगले अमूल मक्खन विज्ञापन के लिए एक सुझाव दे रहा हूं : बिहार के सीएम नीतीश कुमार लंबे समय तक दुश्मन रहे और अब बड़े भाई लालू प्रसाद को भुजंगी भाईजान के संबोधन के साथ माला पहना रहे हैं. संस्कृत में भुजंग का अर्थ सांप होता है और उर्दू में बड़े भाई को भाईजान कहते हैं. पीछे की पृष्ठभूमि को समझना समीचीन होगा.

बिसार दिये गये कुछ हफ्तों पहले नीतीश कुमार और लालू यादव ने एक छोटा-सा तमाशा किया था और आगामी बिहार विधानसभा चुनावों में भाजपा का सामना करने के लिए एक-दूसरे की विरोधी रहीं अपनी दोनों पार्टियों के विलय की घोषणा की थी. इस कदम में इस बात का स्पष्ट स्वीकार था कि अकेले उनकी संभावना नहीं है, लेकिन ऐसी मजबूरी भी उत्सव के ढोलों के रु कने से पहले ही मिलन की योजना को बरबाद होने से नहीं सकी. इसके बदले उन्होंने साथ रहना स्वीकार किया. लालू ने अपने समर्थकों को इस व्यवस्था को यह कर समझाया कि बड़े उद्देश्यों के लिए जहर पीना ही था.

तब नीतीश ने कुछ नहीं कहा, लेकिन इस बयान से वे कुढ़े हुए थे. पिछले सप्ताह जब उनसे गंठबंधन की मुश्किलों के बारे में पूछा गया तो उन्होंने प्रसिद्ध लोकोक्ति दुहरा दी : चंदन विष व्यापत नहीं, लिपटे रहत भुजंग. संदेश यह कि लालू भले ही मेरे आस-पास हैं, मेरी सुगंध बनी हुई है. इस बयान का शुरूआती नतीजा हुआ कि लालू के खेमे में शोर मचा. और फिर नीतीश का बयान आया कि उनके बयान का गलत मतलब निकाला गया. उन्होंने 23 जुलाई को देर रात तक लालू से बैठक की और उसके बाद नीतीश ने उन्हें बड़ा भाई कहा. यह भुजंगी भाईचारा है. पिछले सालों में नीतीश और लालू के संबंध कई कारकों के कारण विषाक्त हुए हैं : व्यक्तिगत आकांक्षाएं, समर्थन के विपरीत ध्रुव, शासन नीति, अंदाज और उद्देश्य. ये दोनों एक दूसरे की अंतिर्नहित भावनाओं को नापसंद करते हैं.

यह सही है कि गंठबंधन के लिए आपको प्रेम में पड़ने की जरूरत नहीं है. लेकिन दो मजबूत प्रतिद्वंद्वियों में इतना क्र ोध भरा हुआ है कि यह दोस्ती कभी भी स्थायी नहीं होगी. बिहार का वोटर जानता है कि विकास के लिए स्थायित्व जरूरी है, और यह विधान सभा चुनाव विकास के वादों पर ही निर्भर करेगा. इस बात की पुष्टि आमने-सामने के पहले ही अवसर में हो गयी, जब 25 जुलाई को पीएम नरेंद्र मोदी और सीएम नीतीश कुमार ने अनेक परियोजनाओं के उद्घाटन के लिए मंच साझी किया. प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के मंत्रिमंडल में रेल मंत्री रहे नीतीश कुमार ने इस बात को रेखांकित किया कि जिस परियोजना को शुरू किया जा रहा है, वह 2004 में ही पूरी हो जाती अगर वाजपेयी सरकार को छह माह का समय और मिल जाता. प्रधानमंत्री इस बात से पूरी तरह सहमत हुए, और फिर उन्होंने सवाल पूछा. इसको कांग्रेसराज में किसने अवरु द्ध किया? इसका उत्तर है, लालू प्रसाद, जो सोनिया गांधी के नेतृत्व और मनमोहन सिंह की कैबिनेट में रेल मंत्री बने थे. तो फिर नीतीश कुमार उस व्यक्ति के साथ क्या कर रहे हैं जिसने बिहार को विकसित होने से रोका?

बड़े यकीन से कहा जा सकता है कि चुनाव प्रचार के दौरान यह खूब चर्चित मसला होगा. यह चंदन के पेड़ पर भुजंग के होने का प्रमाण है. जिसने लालू को बार-बार जंगल-राज का सीएम कहा था, वे नीतीश ही थे. मुङो संदेह है कि इन दोनों में से कोई भी इस बात को भूला होगा. सर्वोच्च होने की उनकी रस्साकशी सीटों के बंटवारे के साथ शुरू होगी जिसमें दोनों अधिक-से-अधिक जीतने लायक सीटों पर दावा करेंगे.

राजनीतिक समीकरण में लालू का आकर्षण भी कमजोर हुआ है. राज्य के नेता से अब वे एक जाति-विशेष के नेता बन गये हैं. निवेश के ठिठके तरीकों की तरह पारंपरिक वोट बैंक भी अब उतने फायदेमंद नहीं रहे हैं. आर्थिक वृद्धि जाति या जातीय समर्पणों से अधिक महत्वपूर्ण हो गयी है क्योंकि पुराने ढरें का लाभ मुट्ठी भर आभिजात्यों के हिस्से में ही जाता है. बिहार वचन और दिशा के स्तर पर परिवर्तन का आकांक्षी है, और वह उस पार्टी का समर्थन करेगा जो निभाने लायक उम्मीदें लेकर आयेगी. शत्रुओं का भाईचारा कोई गुजरी हुई बात हो चुकी है.

एमजे अकबर

प्रवक्ता, भाजपा

delhi@prabhatkhabar.in

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