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आकर्षक नारों की अकाल मौत का शोक!

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महज कुछ ही महीने में ‘सबका साथ, सबका विकास’ जैसे समतावादी नारे के तो परखच्चे उड़ गये. वैसे भी जनसंघ और उसकी नयी अवतार-भाजपा जैसी पार्टी का इस तरह के समतावादी नारे से मेल नहीं बैठता था. पर अपने देश के चुनावों में सबकुछ चलता है. क्या यह दुख का विषय नहीं है कि ‘न […]

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महज कुछ ही महीने में ‘सबका साथ, सबका विकास’ जैसे समतावादी नारे के तो परखच्चे उड़ गये. वैसे भी जनसंघ और उसकी नयी अवतार-भाजपा जैसी पार्टी का इस तरह के समतावादी नारे से मेल नहीं बैठता था. पर अपने देश के चुनावों में सबकुछ चलता है.
क्या यह दुख का विषय नहीं है कि ‘न खाऊंगा, न खाने दूंगा’ जैसे सुंदर-आकर्षक नारे की मौत हो गयी, अकाल मौत! बिहार में कुछ ही माह बाद चुनाव होनेवाले हैं, पर इस नारे को अब चुनाव-मैदान में फिर कोई कैसे दुहरायेगा? इस शानदार नारे की उम्र महज सवा साल रही! ‘काला धन वापस लायेंगे’ को तो स्वयं भाजपा अध्यक्ष ने ‘चुनावी-जुमला’ कह कर दफन कर दिया था. इसी तरह का एक और आकर्षक नारा था- ‘सबका साथ, सबका विकास’. ठोस तथ्यों, घटनाक्रमों और हाल के रहस्योद्घाटनों ने इन नारों को इतिहास के तहखाने में डाल दिया है. क्या अकाल मौत के शिकार ऐसे नारे फिर आसानी से खोजे जा सकेंगे और खोज भी लिये गये, तो उन नये नारों की जनता में वैसी ही स्वीकार्यता होगी?
यह चिंता की बात जरूर है, पर हमारे देश-समाज में ऐसा पहली बार नहीं हुआ है. समय की सच्चाइयों से टकरा कर आकर्षक नारों की अकाल मौत पहले भी होती रही है. ऐसे नारों की मौत के लिए न तो हम ‘दो या तीन देवियों’ को कसूरवार ठहरायेंगे और न ही किसी अन्य महाशय को. यह तो इतिहास-चक्र है. जो नारे अपने समय के यथार्थ को नहीं बदलते, उनका यही हश्र होता है. याद कीजिए, ‘गरीबी हटाओ’ का आकर्षक नारा. 1971 का दौर. जादू बिखेर दिया था इस नारे ने. लेकिन गरीबी कहां मिटनेवाली थी! वह तो हमारे यहां मानो स्थायी भाव बन गयी. गरीबी, भुखमरी और कुपोषण में हमने रिकॉर्ड कायम किया. इस तरह ‘गरीबी हटाओ’ का नारा अपने आप दफन हो गया.
आइए, हाल के दो नये नारों- ‘न खाऊंगा, न खाने दूंगा’ और ‘सबका साथ, सबका विकास’ के दफन होने की प्रक्रिया पर नजर डालें. संयोग देखिए, 1971 में ‘गरीबी हटाओ’ का नारा देनेवाली उस वक्त की लोकप्रिय नेत्री और 2014 में ‘न खाऊंगा, न खाने दूंगा’ जैसा नारा लेकर अवतरित नेता में राजनीतिक-सांगठनिक पृष्ठभूमि की भिन्नताओं के साथ मिजाज व शासन की शैली में समानताएं भी हैं! हम जल्दबादी में किसी को कसूरवार नहीं ठहरा रहे हैं. हाल के किसी बड़े विवाद या भ्रष्टाचार के मामले में अभी जांच आयोग या न्यायालय के फैसले नहीं आये हैं. मामला ‘ललितगेट’ यानी ललित मोदी प्रकरण का हो या भाजपा-शासित मध्य प्रदेश के ‘व्यापमं घोटाले’ से जुड़ी 25 या 45 रहस्यमय मौतों का, इन सबने आम जनजीवन में सत्ता-संस्कृति, नेताओं और हुक्मरानों के दावों की विश्वसनीयता धोकर रख दी. सत्ता और नेतृत्व को लेकर जन-धारणा अचानक बदली. विवादों-आरोपों में घिरे अपने नेताओं-मंत्रियों को बेदाग साबित होने तक सत्ता से अलग होने का निर्देश देकर सत्ताधारी दल और सरकार का नेतृत्व शायद इस बड़ी चुनौती का सामना कर सकता था. लेकिन उसने ऐसा नहीं किया. इसके उलट शीर्ष स्तर से बयान आया कि यह केंद्र की एनडीए सरकार है, यूपीए की नहीं, इसमें मंत्रियों के इस्तीफे नहीं होते.
‘ललितगेट’ में अपने दलीय मंत्री-मुख्यमंत्री को बचाने के लिए पार्टी और सरकार के बड़े नेताओं ने दलील दी कि उक्त दोनों ने ‘मानवीय भावना’ से ओतप्रोत होकर ललित मोदी की मदद की, तो इसमें क्या गुनाह है! सवाल है, इस तरह की ‘मानवीय भावना’ सिर्फ ऐसे विवादास्पद थैलीशाह के प्रति ही क्यों दर्शायी गयी, जिसके साथ उक्त दोनों नेत्रियों या उनके परिजनों के व्यावसायिक रिश्ते साफ-साफ उजागर हो चुके हैं? वह भी तब, जब उक्त थैलीशाह देश की विभिन्न जांच एजेंसियों, खासतौर पर वित्तीय अनियमितता की जांच से जुड़ी एजेंसियों के निशाने पर और इनसे बचने के लिए परदेस में पड़ा हो!
केंद्र में बहुमत की सरकार को एक साल से ज्यादा वक्त हो गये. लेकिन उसने अब तक मध्य प्रदेश के ‘व्यापमं’ के आपराधिक भ्रष्टाचार की व्यापकता (55 मुकदमे, 2530 आरोपी, 1980 की गिरफ्तारी और 550 फरार) से लगातार नजरें क्यों चुरायीं? क्या कोई भी राज्य प्रशासन अपने ही गुनाहों की निष्पक्ष छानबीन अपनी एजेंसी से करा सकता है? सत्तारूढ़ दल और उसके शीर्ष नेताओं का दामन साफ था, तो वे पहले ही आसानी से कह सकते थे कि ‘व्यापमं-घोटाले’ की जांच सर्वोच्च न्यायालय की निगरानी में विशेष जांच टीम (एसआइटी) करे. भाजपा-शिवसेना शासित महाराष्ट्र में मंत्रियों की ठेका-आबंटन शैली पर गंभीर सवाल उठे हैं. उन मामलों में भी भरोसेमंद जांच का कोई ऐलान नहीं. यूपीए दौर में हर छोटे-बड़े घोटाले के आरोप में सर्वोच्च न्यायालय की निगरानी वाली एसआइटी से जांच की मांग करनेवाली पार्टी सत्ता में आने के बाद उच्चस्तरीय जांच से किनारा क्यों करने लगी?
महज कुछ ही महीने में ‘सबका साथ, सबका विकास’ जैसे समतावादी नारे के तो परखच्चे उड़ गये. वैसे भी जनसंघ और उसकी नयी अवतार-भाजपा जैसी पार्टी का इस तरह के समतावादी नारे से मेल नहीं बैठता था. पर अपने देश के चुनावों में सबकुछ चलता है. एनडीए सरकार ने याराना-पूंजीवाद (क्रोनी कैपिटलिज्म) को मानो अपना शासकीय-मंत्र मान लिया है. जनहित की कीमत पर चहेते कॉरपोरेट घरानों को मदद देने के मामले में इसने अतीत की सारी सरकारों को पीछे छोड़ दिया. आंकड़े बताते हैं कि महज सवा साल में कुछेक घरानों के औद्योगिक साम्राज्य और मुनाफे में अभूतपूर्व इजाफा हुआ है. विवादास्पद भूमि अधिग्रहण अध्यादेश तीसरी बार जारी हुआ. यह भी एक कीर्तिमान है. एक ऐसा विधेयक, जो संसद की मंजूरी नहीं पा सका, को अध्यादेश की शक्ल में लाकर तीन-तीन बार जारी किया जाना सरकार की असंदिग्ध कॉरपोरेट-पक्षधरता का नमूना है. क्या इस तरह के भूमि अधिग्रहण कानून से सबका भला-सबका विकास संभव है?
शिक्षा और स्वास्थ्य को निजी क्षेत्र के हवाले कर राज्य अपनी जिम्मेवारी से मुक्त होना चाहता है. उनका ‘डिजिटल इंडिया’ का नया नारा भारत को कॉरपोरेट हाथों में सौंपने के इरादे का खुला इजहार है. एडम स्मिथ के जमाने से चली आ रही पूंजीवादी दलील को यह सरकार पुरजोर ढंग से दुहराती है- ‘राज्य का काम कारोबार में उतरना नहीं.’ लेकिन राज्य का काम व्यापक जनता के हितों यानी अपनी कल्याणकारी भूमिका को नजरंदाज कर सिर्फ कॉरपोरेट-कारोबार में इजाफा कराना तो नहीं हो सकता! ऐसे में यह संयोग नहीं कि निम्न मध्यवर्ग व किसान, जिसने ‘सबका साथ-सबका विकास’ के नारे में भरोसा किया, आज छला हुआ महसूस कर रहा है. इस नारे के शोर में गरीबों के अलावा अल्पसंख्यक-हितों पर चोट सबसे ज्यादा हुई है. दंगों और फर्जी मुठभेड़ों के आरोपी छोड़े जा रहे हैं. आम लोगों को नारा बदला सा लग रहा है, ‘आम का साथ, खास का विकास’. तो क्या हम फिर कुछ नये आकर्षक नारे सुननेवाले हैं, वोट खींचने वाले नारे!
उर्मिलेश
वरिष्ठ पत्रकार
urmilesh218@gmail.com

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