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प्रकृति को विकास की नहीं है जरूरत

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आज विकास की भ्रमात्मक अवधारणा के अंतर्गत हम प्राकृतिक संसाधनों का अत्यधिक दोहन कर चमक-दमक से परिपूर्ण एक कृत्रिम, अनुपयोगी अप्राकृतिक एवं असंतुलित जीवन-व्यवस्था का सृजन कर रहे हैं. इसका परिणाम यह हो रहा है कि हम तथाकथित विकास के क्रम में तेजी के साथ विनाश की ओर अग्रसर हो रहे हैं. खाद्य पदार्थ स्वाभाविक […]

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आज विकास की भ्रमात्मक अवधारणा के अंतर्गत हम प्राकृतिक संसाधनों का अत्यधिक दोहन कर चमक-दमक से परिपूर्ण एक कृत्रिम, अनुपयोगी अप्राकृतिक एवं असंतुलित जीवन-व्यवस्था का सृजन कर रहे हैं. इसका परिणाम यह हो रहा है कि हम तथाकथित विकास के क्रम में तेजी के साथ विनाश की ओर अग्रसर हो रहे हैं.
खाद्य पदार्थ स्वाभाविक पौष्टिकता एवं स्वाद खो रहे हैं. वायु एवं जल प्रदूषण हानिकारक स्तर को प्राप्त कर चुके हैं. अनेक उपयोगी जीव-जंतु विलुप्त हो चुके हैं. यही स्थिति रही, तो धरती से मानव भी विलुप्त हो जायेंगे. अप्राकृतिक विकास से हम कृत्रिम सुख-सुविधाएं चाहे जितनी भी भी मात्र में पा लें, अपने अंत में पूर्व असीमित शारीरिक एवं मानसिक यंत्रणा अवश्य पायेंगे. कृत्रिमता प्रकृति को स्वीकार नहीं है.
फूलों में प्राकृतिक सुगंध होती है, जिसे आप कृत्रिम कागज के फूल में नहीं प्राप्त कर सकते. विकास की सही अवधारणा है, ‘ऐसा विकास जो प्रकृति के निकट हो, उसके अनुसार हो तथा उसके साथ सामंजस्य स्थापित करता हो.’ विकास की सार्थकता प्राकृतिक निर्माण में निहित है. अत: सही विकास के लिए हमें प्रकृति के अनुसार काम करना होगा तथा आदर्श नागरिकों का सृजन करना होगा. यदि आप प्रकृति के अनुरूप कार्य करते हों, तो निश्चय समृद्ध, स्वस्थ, स्वाभाविक, शांत एवं संतुष्ट जीन व्यतीत कर सकेंगे. प्रकृति को विकास की आवश्यकता नहीं होती.
वह अपने आप में संपूर्ण एवं विकसित है. किसी समाज और राष्ट्र के नागरिक यदि आदर्श हैं, तो वह समाज एवं राष्ट्र भी आदर्श ही होगा. जरूरत इस बात की है कि हम उसका निर्माण कैसे और किस अनुपात में करते हैं. आदर्श समाज से ही आदर्श देश का निर्माण होगा.
अविनाश चंद्र श्रीवास्तव, हजारीबाग

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