जरूरी है कि सबका भरोसा बना रहे

विश्वनाथ सचदेव वरिष्ठ पत्रकार ‘सबका साथ, सबका विकास’ के नारे पर लोगों ने भरोसा किया था, लेकिन यह भरोसा बना रहे, इसके लिए जरूरी है यह दिखना कि सरकार सबको साथ लेकर बढ़ रही है. अभी तो सरकार और संघ-परिवार भी साथ-साथ चलते नहीं नजर आ रहे. अपनी सरकार के एक साल पूरा होने का […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | May 29, 2015 5:09 AM

विश्वनाथ सचदेव

वरिष्ठ पत्रकार

‘सबका साथ, सबका विकास’ के नारे पर लोगों ने भरोसा किया था, लेकिन यह भरोसा बना रहे, इसके लिए जरूरी है यह दिखना कि सरकार सबको साथ लेकर बढ़ रही है. अभी तो सरकार और संघ-परिवार भी साथ-साथ चलते नहीं नजर आ रहे.

अपनी सरकार के एक साल पूरा होने का जश्न मना रही है भाजपा. इसी संदर्भ में मथुरा के निकट प्रधानमंत्री की एक विशेष सभा आयोजित की गयी थी. स्वाभाविक है प्रधानमंत्री इस अवसर पर अपनी सरकार की उपलब्धियों का बखान करते. यह काम उन्होंने अच्छी तरह से किया. लेकिन उनके भाषण का एक बड़ा हिस्सा पिछली सरकार की नाकामियों को गिनाने से ही जुड़ा था.

ऐसे में यह सवाल वाजिब है कि हमारे प्रधानमंत्री और भाजपा के अन्य नेताओं को पिछली कांग्रेस सरकार की कमियों और कारगुजारियों को गिनाने की आवश्यकता क्यों पड़ रही है? चुनाव-प्रचार के दौरान यही तो किया गया था और इसी के आधार पर तो ‘अच्छे दिनों’ की आशा में मतदाताओं ने भाजपा को एक प्रचंड बहुमत देकर कुछ कर दिखाने का मौका दिया है.

‘दुख भरे दिन बीते रे भैया’ का राग अलापना एक बात है और ‘सुख आयो रे’ का एहसास कराना दूसरी बात. किसी के कहने से यह एहसास नहीं जगता. इस एहसास का तो अनुभव होता है, इस एहसास को जीना पड़ता है. आज हमारी सरकार को आम आदमी के भीतर सुख आने का यह एहसास जगाना है. अखबारों और टेलीविजन में बड़े-बड़े विज्ञापनों अथवा पांच हजार जनसभाओं के माध्यम से कोई संदेश पहुंचाने से यह काम नहीं होगा, यह काम जमीन पर कुछ करके दिखाने से होगा.

हालांकि जैसे यह कहना गलत है कि पिछले साठ वर्षो में सरकारों ने कुछ काम नहीं किया अथवा भारत में जन्म लेने को शर्म की बात माना जाता था, वैसे ही गलत यह भी है कि इस एक साल में नयी सरकार ने कुछ नहीं किया. बहुत सारी अच्छी योजनाएं हैं, जिनकी शुरुआत इस एक साल में हुई है.

इस शुरुआत का श्रेय सरकार को मिलना चाहिए, लेकिन यह स्थिति भी अच्छी नहीं है कि लोग कहने लगें ‘अंजाम खुदा जाने’. सरकार को अपनी बातों से नहीं, कार्य से जनता को आश्वस्त करना होगा कि अंजाम भी अच्छा ही होगा. विश्वास जगाने की यह प्रक्रिया छोटी भी नहीं होती और आसान भी नहीं होती. यह प्रक्रिया लंबी लकीर खींचनेवाली है- और लकीर भी ऐसी जो मिटायी न जा सके.

बहुत सारे सर्वेक्षण इस दौरान हुए और कराये गये हैं. मोदी सरकार के एक साल के कार्य-काल से जुड़े इन सर्वेक्षणों में कुल मिला कर यही स्वर उभरता है कि सरकार को स्वयं को प्रमाणित करने के लिए कुछ समय दिया जाना चाहिए. कई मुद्दों पर, यथा जन-धन योजना, सफाई अभियान जैसे मुद्दे, कदम काफी तेजी से उठे हैं. भ्रष्टाचार का कोई बड़ा मुद्दा भी सामने नहीं आया है. अंतरराष्ट्रीय राजनीति में दखल देने के प्रति भी प्रधानमंत्री काफी सक्रिय नजर आ रहे हैं.

मुद्रास्फीति भी नियंत्रण में है- भले ही इसका बड़ा कारण कच्चे तेल की वैश्विक कीमतों में आयी कमी हो. लेकिन, सच्चाई यह भी है कि जो परिवर्तन दिख रहा है, असकी गति उससे कहीं धीमी है, जितनी अपेक्षित है. नयी सरकार ने आशाएं बहुत जगायी थीं. जरूरी था कि परिवर्तन और विकास की गति शुरू से ही तेज होती. पर ऐसा दिख नहीं रहा. हालांकि, अभी जनता कुछ प्रतीक्षा करने के मूड में है, पर यह मूड जल्दी ही बदल भी सकता है.

सरकार दावे भले ही कुछ भी कर रही हो, पर वह इस बात से बेखबर नहीं हो सकती कि आर्थिक मोर्चे पर जो हो रहा है, वह पर्याप्त नहीं है. निर्यात और औद्योगिक उत्पाद दोनों ही मंदे पड़े हैं, रोजगार की स्थिति में भी कोई बड़ा अंतर नजर नहीं आ रहा, शिक्षा के क्षेत्र में भी किसी अच्छे बदलाव के संकेत नहीं हैं, सेंसेक्स में भी बड़ा उछाल नहीं आया. यानी बहुत कुछ नकारात्मक है.

लग रहा है सरकार आकर्षक नारों से लुभाने की कोशिश कर रही है. प्रधानमंत्री ने जोर-शोर से किसान चैनल शुरू किया है, लेकिन जरूरत तो कृषि-नीति और किसानों के प्रति दृष्टिकोण में बदलाव लाने की है.

कुल मिलाकर कहें तो, एक नकारात्मक वातावरण बन रहा है, जिसका प्रभाव आनेवाले दिनों में दिखने लगेगा.

‘सबका साथ, सबका विकास’ के नारे पर लोगों ने भरोसा किया था, लेकिन यह भरोसा बना रहे, इसके लिए जरूरी है यह दिखना कि सरकार सबको साथ लेकर बढ़ रही है. अभी तो सरकार और संघ-परिवार भी साथ-साथ चलते नहीं नजर आ रहे. संघ-परिवार से जुड़े व्यक्ति, और भाजपा के कुछ नेता भी, अपनी डफली-अपना राग की नीति अपनाये हुए हैं. मोदी-सरकार को यह प्रमाणित करना है, और जल्दी ही, कि वह सबके विकास में विश्वास करती है.

प्रधानमंत्री यह तो कह रहे हैं कि पार्टी के नेताओं को सोच-समझ कर बयान देने चाहिए, पर अनसोचे बयानों पर जिस कठोरता से कार्रवाई होनी चाहिए, वह कहीं नहीं दिख रही. ऐसी ठोस कार्रवाई ही वह बड़ी लकीर होती है, जो जिम्मेवार सरकारों को खींचनी चाहिए, तभी सही अर्थो में किसी दूसरे की लकीर छोटी होगी. किसी भी प्रकार के रबड़ से लकीर छोटी करने की कोशिश ईमानदारी और विवेकशीलता पर भी सवालिया निशान लगाती है.

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