राष्ट्र-निर्माण के नायकों में शुमार प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू कहा करते थे कि तथ्य तो आखिर तथ्य ही हैं, वे आपकी पसंद-नापसंद के हिसाब से नहीं बदल सकते. यूपीए सरकार का दस सालों तक नेतृत्व करनेवाले पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी अर्थशास्त्र के प्रोफेसर होने के नाते समझते होंगे कि तथ्यों को व्यक्तिगत अच्छाई और नेकनीयती का हवाला देकर नहीं बदला जा सकता. तथ्य अपनी अपरिवर्तनीयता के कारण ही पवित्र होते हैं शायद! यह अमिट तथ्य यह है कि उसके शासन के आखिर के सालों में घोटालों की झड़ी लग गयी थी.
इन घोटालों को सार्वजनिक स्मृति से मिटाना आसान नहीं. ये घोटाले इतने भारी-भरकम थे, कि सामान्य सूझ से आकलन करने पर आम आदमी भूल जाता था कि किसी अंक के दाहिने कितने शून्य बिठाएं कि घोटाले में समायी राशि के करीब पहुंचा जा सके. परंतु विडंबना यह है कि मनमोहन सिंह आज भी अपनी पसंद-नापसंद के आधार पर ही चाहते हैं कि इन घोटालों की चर्चा हो तो उनका जिक्र न आये.
प्रधानमंत्री पद पर रहते इन घोटालों से पीछा छुड़ाने के लिए वे कभी यह तर्क देते थे कि गठबंधन धर्म की कुछ मजबूरियां होती हैं, तो कभी यह कि सरकार के मुखिया के रूप में उन्होंने कोई भी कदम निजी फायदे के लिए नहीं उठाया.
इस बात से इनकार नहीं हो सकता कि एक व्यक्ति के तौर पर मनमोहन सदा मितभाषी, संयमित और विनम्र विद्वान लगे, पर असल सवाल यह है कि उनके निजी गुणों, जिनमें व्यक्तिगत ईमानदारी भी शामिल है, से देश को क्या फायदा हुआ?
सादगी और ईमानदारी से उठाये गये उनके कितने फैसले देशहित में रहे और कितने सरकार व देश की साख को चोट पहुंचानेवाले! भाजपा ने मोदी सरकार का एक साल पूरा होने पर यूपीए शासन के घोटालों का जिक्र छेड़ते हुए इसका ठीकरा मनमोहन सिंह के लचर नेतृत्व पर फोड़ा है.
अब जहाज चाहे चंद चूहों के नुकीले दांतों में मची खुजली की वजह से डूबे, पर कैफियत तो हमेशा कैप्टन से ही तलब होगी कि निगरानी रखनेवाली आपकी उस नजर को क्या हुआ जो जहाज के तले में हुए छेद आपसे छुपे रहे!
मनमोहन सिंह के पास इस प्रश्न का जवाब न होना इस बात का प्रबल संकेत है कि प्रधानमंत्री के पद पर रहते हुए वे नेता नहीं, एक कार्यकारी मात्र थे, नेतृत्व की डोर किसी और हाथ में थी.