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इकरारनामे को जरा गौर से देखो. उसमें लिखा है कि जिस घराने को यह जमीन सरकार मुहैया कराएगी, अगर वह किन्हीं कारणों से नहीं चल पाया, तो बड़े घराने उस जमीन का मनमाने ढंग से उपयोग कर सकेंगे. जमीन उनकी पूंजी होगी. तिल का ताड़ कैसे बनता है, देखना हो तो नाक के सीधे चले […]

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इकरारनामे को जरा गौर से देखो. उसमें लिखा है कि जिस घराने को यह जमीन सरकार मुहैया कराएगी, अगर वह किन्हीं कारणों से नहीं चल पाया, तो बड़े घराने उस जमीन का मनमाने ढंग से उपयोग कर सकेंगे. जमीन उनकी पूंजी होगी.

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तिल का ताड़ कैसे बनता है, देखना हो तो नाक के सीधे चले आइये, जहां कहीं भी गांव दिखे देख लीजिए. कोई न कोई आपको धूर की रस्सी बनाता दिख जायगा. मखदूम की अम्मा मरहूम जब तक जिंदा रही हर बखत कोई न कोई आफत लिए खड़ी रहती और पूरे गांव को हलाकान में डाले रहती. उनके जाने के बाद यह काम अधिया पे होने लगा. कोलई दुबे और कीन उपाधिया इसे मिलजुल कर करने लगे. और उनकी जिंदगी इसी एक व्यापार से चलने और फिरने लगी. र्हे लगे न फिटकरी रंग चोखा. और इसी चोखे की खेती पर दोनों झूठ बोते हैं और सांझ का भोजन काटते हैं. कल सांझ जब कोलई दुबे कचहरी से लौटे तो उनके कमल छाप झोले में आधी पत्ता गोभी, लमका हरियर मिर्चा और धनिया का पत्ती मुफ्तवाली के साथ दिल्ली की खबर वाला अखबार भी रहा. सबूत के लिए- भुच्च समझते हैं का? बिसेसर ने पूछा- आज की खबर का रही? कोलई ने बताया- ये तो गनीमत समझो लम्मरदार! समय रहते अपनी सरकार ने सब भांप लिया कि किसान की जमीन जदी सरकार ने ना लिया तो दुश्मन इसका फायदा उठाएगा और हम खतरे में पड़ जायंगे. इसलिए सरकार दुश्मन को चतावनी देने के लिए कानून बना लिया कि अब किसान की जमीन किसी भी दाम पर सरकार ले सकती है. समङो काका? इस तरह फागुन की एक उदास सांझ उलझ कर फैल गयी. फागुन की भोर जानलेवा होती है. गुलाबी मदमाती बयार ऐसे बहती है जैसे बगल खड़ी पद्मिनी सांस ले रही हो.

पलक नहीं खुलते. लेकिन जगना तो है ही. और जग गए तो निश्चित समय पर चौराहे की गप्पों में कूदेगा कौन? सो बिसेसर सिंह भी कोलई दुबे की दी गयी खबर कांधे पर लादे चल पड़े आसरे की दूकान की ओर. लाल साहेब कीन उपाधिया को चांपे पड़े हैं- अबे कीन के बच्चे! तैं जदी पहिले बताए होते कि ई सरकार ससुरी आते ही हमारी जमीन कब्जिआय लेई त हम काहे वोट देइत बे? कीन उपाधिया पुरान खेलाड़ी- देश की सुरक्षा खातिर, दुश्मन से बचे वास्ते इ कानून जरूर हाउ कि सरकार जब चाहे जितना चाहे, जौने भाव चाहे जमीन ले ले. कयूम ने ताना मारा- और किसान जोर से चीखे कि हां हुजूर अच्छा दिन दिखात बा. लाल साहेब की आंखें लाल हैं- देखैब अच्छा दिन? आये द बखत बताइब, अबे एक बात बताव इ जमिनिया ले के सरकार करी का? मद्दू मुस्कुराए.

हम बताते हैं गौर से सुनो- सरकार इस जमीन में बारूद पैदा करेगी. छर्रा बोयेगी, गोला खोदेगी. बाद बाकी? उमर ने कैंची मारा. ये तो अरुण जेटली बताएंगे. चिखुरी ने रोका. सुनो यह इतना आसान नहीं है. यह तो अभी शुरूआत है. उसके पास झांसा देने के कई तरकीब हैं. और यह झांसे का खेल शुरू हो गया है. इतना ही नहीं तुम उसके खेल में भी शामिल हो गए हो. तुम्हें अब भी विदेशी स्कूल से प्यार है. तुम्हें अब भी अंगरेजियत से मोहब्बत है. और इसकी नींव पड़ चुकी है. तुम्हें अच्छी सड़क चाहिए, अच्छा एसी शिक्षण संस्थान चाहिए, विदेशी डाक्टरों से भरा हस्पताल चाहिए. बुलेट ट्रेन चाहिए. तुम्हें वे तमाम भौतिक सुविधाएं चाहिये, जिन पर तुम इतरा सको. उसने बहुत सटीक ढंग से तुम्हें अपने जाल में फंसा लिया है. अब इन सब के लिए उसे जमीन चाहिए. तो जमीन देगा कौन? जिसके पास जमीन होगी. यह जमीन औने-पौने दाम पर वह बड़े घराने को देगा. उस पर हस्पताल बनेगा, स्कूल, यूनिवर्सिटी खुलेगी. तुम्हें भी अच्छा लगेगा. लेकिन जरा गौर से इकरारनामे को देखो. लिखा है जिस घराने को यह जमीन सरकार मुहैया कराएगी, अगर वह किन्हीं कारणों से नहीं चल पाया तो बड़े घराने जमीन का मनमाने ढंग से उपयोग कर सकेंगे. जमीन उनकी पूंजी होगी. उनके हिस्से में अच्छी जमीन होगी, तुम्हारे हिस्से में अच्छा दिन होगा.

लेकिन अन्ना तो लड़ रहा है? चिखुरी हत्थे से उखड़ गए- कौन अन्ना बे? यह तो उसी खेल का जोकर है. राजनीति की भाषा में इसे प्रायोजित विदूषक कहते हैं. लेकिन इस बार दिल्ली में वह भी उघार हो गया. मीडिया को कहा गया था कि यह आंदोलन मोदी बनाम अन्ना बनाओ, मीडिया ने बनाया भी लेकिन अन्ना के मंच पर न भीड़ मिली न नेता. डिपर बाबा के पापड़ और दवाइयां बिकती रही. भीड़ तो वहां थी, जहां किसान जुटे थे. लाल झंडे लिए, कांग्रेस का तिरंगा लिए, बच्चे यह

लड़ाई दूर तक जायगी. इस लड़ाई को केवल गांधी लड़ सकता है.

– गांधी? कौन गांधी? चिखुरी ने लंबी सांस ली- वही गांधी, जिसका इन लोगों ने कत्ल किया है. वह मरा कहा हैं. कल वह उठेगा और कहेगा जमीन तो बंट चुकी है. अब पूंजी बांटो. इस पूंजी पर मालिकाना हक हमारा है. यह पूंजी हमारी मेहनत मसक्कत की कमाई है. अब इसे बांटो.

– और वो बांट देंगे? – कत्तई नहीं. – तो? – इन सब ने मिल कर जमीन तैयार की है कि जमीन सरकार ले. यह है खेल. तो? तो क्या, करो तैयारी. न मारेंगे. न मानेंगे. जो जमीन को जोते बोये, वो जमीन का मालिक है. डटे रहो बस.

चंचल

सामाजिक कार्यकर्ता

samtaghar@gmail.com

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