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16.05.2014 और 10.02.2015 का महत्व

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रविभूषण वरिष्ठ साहित्यकार तिथियां जनता बनाती है. बिगाड़ने का काम राजनीतिक दल करते हैं. इन दो तिथियों से राष्ट्रीय-क्षेत्रीय दलों को बहुत सीखने-समझने की जरूरत है. क्या सचमुच भाजपा सीखेगी? बिहार और झारखंड से ऐसा नहीं लगता. मात्र नौ महीने के भीतर दो तिथियों का ऐतिहासिक महत्व होना भारत के चुनावी इतिहास में अकेला उदाहरण […]

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रविभूषण
वरिष्ठ साहित्यकार
तिथियां जनता बनाती है. बिगाड़ने का काम राजनीतिक दल करते हैं. इन दो तिथियों से राष्ट्रीय-क्षेत्रीय दलों को बहुत सीखने-समझने की जरूरत है. क्या सचमुच भाजपा सीखेगी? बिहार और झारखंड से ऐसा नहीं लगता.
मात्र नौ महीने के भीतर दो तिथियों का ऐतिहासिक महत्व होना भारत के चुनावी इतिहास में अकेला उदाहरण है. इन दो तिथियों (16 मई, 2014 और 10 फरवरी, 2015) को ऐतिहासिक बनाने का श्रेय उन जागरूक और प्रबुद्ध मतदाताओं यानी जनता को है, जो नामहीन रह कर अपने सुचिंतित निर्णय से भविष्य वेत्ताओं और चुनाव विश्लेषकों को हैरत में डाल चुकी है. लोकतंत्र की वास्तविक शक्ति किसी राजनीतिक दल में न होकर जनता में निहित है.
16वीं लोकसभा के चुनाव में किसी ने यह कल्पना नहीं की थी कि कांग्रेस और अनेक क्षेत्रीय दलों की ऐसी दुर्गति होगी, भाजपा स्पष्ट बहुमत प्राप्त करेगी. समस्त आकलन धरे रह गये और भाजपा को 282 सीट प्राप्त हुई. वोट प्रतिशत भी बढ़ा. कांग्रेस के सहयोगी दल सपा, बसपा, राजद, द्रमुक सबकी करारी हार हुई. ये सभी दल जनता से लगभग विच्छिन्न हो चुके थे. राजनीतिक दलों के पृथकतावादी क्रियाकलापों, झूठे आश्वासनों, घोटालों की भरमार, महंगाई, भ्रष्टाचार से सब त्रस्त थे.
नरेंद्र मोदी को सबने हाथों-हाथ लिया. भाजपा का वोट प्रतिशत मात्र 31 था, पर जनता ने उसमें विश्वास किया. उसने मोदी को लगभग नायक के रूप में स्वीकारा. पहली बार चुनाव-प्रचार और अभियान अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव के तर्ज पर हुआ. यह आस्था एक व्यक्ति में थी, उसके आश्वासनों और लुभावने नारों में थी. ‘हर-हर मोदी, घर-घर मोदी’ से लेकर अनेक नारे लोगों की जुबान पर थे. फिर ऐसा क्या हुआ कि मात्र नौ महीने के भीतर दिल्ली विधानसभा चुनाव के नतीजों ने सारे किये-धरे पर पानी फेर दिया?
मोदी और अरविंद केजरीवाल में अंतर है. अंतर भाजपा और ‘नवजात’ पार्टी में है. ‘आप’ का झाड़ू और ‘स्वच्छता-अभियान’ का झाड़ू भी एक समान नहीं है. लोकसभा चुनाव में मोदी ने विपक्ष का सफाया किया था. दिल्ली विधानसभा चुनाव में केजरीवाल ने विपक्ष का सफाया कर दिया.
भारतीय राजनीति में विपक्ष की लोककल्याणकारी भूमिका बाद के वर्षो में बहुत कम रही है. कांग्रेस को आज की स्थिति में पहुंचने में साठ से अधिक वर्ष लगे. वह निरंतर पराजित हो रही है. भाजपा को दिल्ली चुनाव के नतीजे एक नसीहत हैं. एेंठ और अहंकार पतन का कारण बनता है. लोकसभा चुनाव के बाद मोदी का विजय-रथ आगे बढ़ता जा रहा था. उसे दिल्ली में रोक दिया गया. तीन सीट की कल्पना किसी ने नहीं की थी. मोदी-शाह ने लगातार गलतियां कीं. सत्ता-मद उन्हें और पार्टी को दिल्ली में ले डूबा.
लोकसभा चुनाव मुख्यत: कांग्रेस और उनके सहयोगी दलों के विरुद्ध था. दिल्ली चुनाव आम जनता के पक्ष में था. एक करोड़ 33 लाख 14,215 मतदाता कम नहीं होते हैं. पिछले चुनाव में वोट प्रतिशत 65.60 था, जो इस बार बढ़ कर 67.08 हुआ. पिछले चुनाव में भाजपा को 32 सीटें मिली थीं, इस बार मात्र तीन. वोट प्रतिशत भी घटा. 28 सीट प्राप्त करनेवाली ‘आप’ ने 67 सीट पर जीत हासिल की. वोट प्रतिश्त 29.5 से बढ़ कर 63 हो गया. आठ सीट पानेवाली कांग्रेस शून्य में सिमट गयी. वोट प्रतिशत 24.6 से घट कर 9.7 हो गया. कांग्रेस ने कभी कोई सीख नहीं ली.
वह वर्तमान से अधिक अतीत में जीती है. वह कार्यकर्ताओं की नहीं नेताओं की पार्टी है. भाजपा के पास कार्यकर्ता कम हैं. संघ के कार्यकर्ता उसके लिए प्रचार करते हैं. विज्ञापनों, प्रचारों में वह डूबी हुई थी. उसने जमीन से जुड़े स्थानीय नेताओं-कार्यकर्ताओं को महत्व नहीं दिया. गाली-गलौज, आरोप-प्रत्यारोप से चुनाव नहीं जीता जाता. ‘आप’ ने मोदी-शाह और भाजपा को एक सीख दी है. राजनीति में विनम्रता-शालीनता का महत्व है. दस लाख के सूट पर गले में लिपटा हुआ डेढ़-दो सौ का मफलर भारी पड़ता है. धन के तराजू पर सबको तौला नहीं जा सकता.
दिल्ली के मतदाताओं ने जाति, समुदाय, धर्म, लिंगा आदि को महत्व नहीं दिया. वोट बैंक की अब तक राजनीति पर इस चुनाव-नतीजे ने प्रश्न खड़े कर दिये हैं. जाट आधारित भारालोद और सिख आधारित अकाली दल को एक प्रतिशत भी वोट नहीं मिला. जनशक्ति, धनशक्ति से कहीं अधिक प्रबल होती है. कविताओं में इसकी अभिव्यक्तियां बार-बार होती रही हैं-‘दिनकर’ से गोरख पांडेय तक. ‘सिंहासन खाली करो कि जनता आती है’ से लेकर ‘जनता के आवे पलटनिया हिलेला झकझोर दुनिया.’ यह मानना कठिन है कि भाजपा दिल्ली चुनाव नतीजों के बाद अपने को बदल लेगी. मोदी से लेकर क्षेत्रीय दलों के नेताओं द्वारा केजरीवाल को दी गयी बधाई मात्र एक औपचारिकता है.
‘आप’ की स्पष्ट विचारधारा नहीं है. उसकी परीक्षा बाद के दिनों में होगी. वह चुनावी भारतीय राजनीति का विश्वसनीय विकल्प इस अर्थ में है कि उसने सामान्य जनता को फिलहाल केंद्र में ला खड़ा किया है. अब तक राष्ट्रीय दलों और क्षेत्रीय दलों की जो भूमिका रही थी, वह आमजन के पक्ष में नहीं थी. आर्थिक नीतियां सभी दलों की समान रही हैं. वोट बैंक की राजनीति अभी शायद ही समाप्त हो. चुनाव परिणामों के संदेश शायद ही समङो जायें. राजनीति फिलहाल बड़ी करवट नहीं लेगी. व्यवस्था जैसी है, वैसी बनी रहेगी. आम आदमी पार्टी ‘इन्कलाब’ नहीं ला सकेगी.
कांग्रेस सुन्न स्थिति में है. भाजपा अवसन्न है, पर उनके क्रियाकलाप पूर्ववत हैं. बिहार और झारखंड फिलहाल दो बड़े उदाहरण हैं. बिहार में जीतन राम मांझी की सरकार अल्पमत के बावजूद टिकी हुई है. जदयू के मात्र 12 विधायक उनके साथ हैं. नीतीश का जदयू अब संयुक्त, संगठित न रह कर जद डी (विभाजित) हो चुका है. भाजपा ने अभी तक मांझी को समर्थन नहीं दिया है, पर मांझी 20 फरवरी को बहुमत समर्थन में भाजपा के समर्थन के बिना आश्वस्त कैसे हो सकते हैं? मांझी को पद की चिंता है, पार्टी की नहीं. बिहार और झारखंड में दल-बदलुओं की चांदी है. यहां गिरगिटी राजनीति प्रमुख है. क्या भाजपा को शुचिता की राजनीति से सचमुच कोई मतलब है? बिहार में चुनाव के पहले और झारखंड में चुनाव के बाद लगभग समान स्थिति है. 2006 में गठित झाविमो के छह सदस्य भाजपा में जा चुके हैं. समस्याओं का हल कांग्रेस मुक्त भारत नहीं है, बल्कि भ्रष्टाचार मुक्त भारत है.
मांझी कमीशन लेने की बात खुलेआम स्वीकार कर रहे हैं. बिहार और झारखंड में सत्ता का यह गिरगिटी खेल भारतीय राजनीति में शायद ही समाप्त हो. जनता के भरोसे का फिलहाल कोई एक दल नहीं है. सबको वह आजमा चुकी है, देख चुकी है. दिल्ली में उसने ‘आप’ को सिर पर उठाया. तिथियां जनता बनाती है. बिगाड़ने का काम राजनीतिक दल करते हैं. इन दो तिथियों से राष्ट्रीय-क्षेत्रीय दलों को बहुत सीखने-समझने की जरूरत है. क्या सचमुच भाजपा सीखेगी? बिहार और झारखंड से ऐसा नहीं लगता.

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