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शहीद की बेटी और हमारा देश-समाज

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तरुण विजय राज्यसभा सांसद, भाजपा कर्नल राय की शहादत दिल्ली के अखबारों में आयी, तो कुछ चर्चा हो गयी. कांस्टेबल संजीव सिंह भी तो शहीद हुए. उनके बारे में न कुछ ज्यादा छपा, न चर्चा हुई. ऐसे विषयों में रैंक या ओहदे की बात नहीं होनी चाहिए. सारे भारत को उनका कृतज्ञ होना चाहिए. अलका […]

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तरुण विजय
राज्यसभा सांसद, भाजपा
कर्नल राय की शहादत दिल्ली के अखबारों में आयी, तो कुछ चर्चा हो गयी. कांस्टेबल संजीव सिंह भी तो शहीद हुए. उनके बारे में न कुछ ज्यादा छपा, न चर्चा हुई. ऐसे विषयों में रैंक या ओहदे की बात नहीं होनी चाहिए. सारे भारत को उनका कृतज्ञ होना चाहिए.
अलका छठी कक्षा में पढ़ती है.
अपने पिता की शहादत पर रुलाई को कड़ाई से थामते हुए, चिल्ला कर बोली थी- जय महाकाली, आयो गोरखाली. उसके पिता कर्नल मुनींद्र नाथ राय गोरखा राइफल्स के युद्ध सेवा मेडल से अलंकृत अधिकारी थे, जिनकी 27 जनवरी को कश्मीर में आतंकियों से मुठभेड़ में शहादत हो गयी. उनके साथ जम्मू-कश्मीर पुलिस के सिपाही संजीव सिंह भी शहीद हुए. 39 वर्षीय कर्नल राय के पिता नागेंद्र प्रसाद राय यूपी के गाजीपुर जिले के निवासी हैं.
एक अध्यापक के रूप में उन्होंने दर्जीलिंग में नौकरी की और वहीं अपने तीनों बेटों को पढ़ाया. तीनों ही बेटे फौज में भर्ती हुए. ऐसे माता-पिता कितने हैं, जो उत्साह से बच्चों को फौज में भेजते हैं!
उनसे मिल कर बड़ा सुकून महसूस हुआ. हम सोचते हैं राष्ट्रपति भवन में जिन्हें खिताब मिलते हैं, वे ही बड़े होते हैं. कितना गलत है यह. जिसने अपने सब बच्चे देश के लिए दिये, उससे बड़ा खिताबधारी कौन होगा. नागेंद्र राय हमारा हाथ अपनी दोनों हथेलियों में दबाये भावुक हो गये. आंखों से आंसू इतने निकले कि भूल ही गये उनकी संतान कहां पढ़ी. दो बेटियां हैं.
कर्नल राय की माता जी अब बहुत वृद्ध हो गयी हैं. जब हम गये तो थल सेनाध्यक्ष की सहधर्मिणी उनको बहुत आत्मीयता से ढाढस बंधा रही थीं. हम सब कुछ मदद करेंगे, आप फिक्र मत करो. मां क्या कहती? बस धन्यवाद, किसी तरह मुंह से निकाल रोती रही. अलका ने पिता को एक फौजी की तरह सेल्यूट देते हुए विदा किया. मैंने अलका से कहा, बेटा तुम्हारी हिम्मत देख कर मैं मिलने आया. रोना मत. अलका बोली, नहीं रोऊंगी, मुझे अपने पापा पर गर्व है, मैं क्यों रोऊं?
आतंकियों से मुठभेड़ या पाकिस्तानी गोलीबारी में शहीद सैनिक अब साधारण समाचार हैं. हमें उनसे मिलने, उनके परिजनों से सांत्वना के दो शब्द कहने की भी या तो फुर्सत नहीं मिलती, या आवश्यकता नहीं महसूस होती. सैनिक हैं तो ऐसी घटनाओं के लिए वे स्वयं और उनके परिवार के लोग मन से तैयार ही रहते होंगे, यह सोच कर हम राजनीति, नारेबाजी, आरोप-प्रत्यारोप या घर-दफ्तर के कामकाज में व्यस्त हो जाते हैं.
कर्नल राय की शहादत दिल्ली के अखबारों में आयी, तो कुछ चर्चा हो गयी. कांस्टेबल संजीव सिंह भी तो शहीद हुए. उनके बारे में न कुछ ज्यादा छपा, न चर्चा हुई. ऐसे विषयों में रैंक या ओहदे की बात नहीं होनी चाहिए. संजीव सिंह हों या एमएन राय, मुहम्मद फजल, जो जहां भी भारत के लिए काम किया, सारे भारत को उनका कृतज्ञ होना चाहिए.
लेकिन, हमारी दृष्टि में शहादत का अर्थ राष्ट्रीय दिवसों पर गीत और कुछ फिल्मों का ही मामला रहता है. इस देश में सैनिक की शहादत पर समाज सिर्फ बातें करता है- सम्मान का भाव भाषण या शब्दों के विलास तक सीमित रहता है. रेलगाड़ी में सफर करते समय अकसर देखा जाता है कि अगर फौजी का आरक्षण नहीं है, तो वह अपना बिस्तर और ट्रंक टॉयलेट के पास सटा कर रात बिता देता है- यात्री, जो देशभक्त और भारतीय ही होते हैं, तनिक सिकुड़ कर अपनी बर्थ पर उसे बैठने की भी जगह नहीं देते.
सैनिक की छुट्टी का बड़ा हिस्सा आने-जाने में चला जाता है- आपातकाल या घर के सुख-दुख के वक्त छुट्टी मिलेगी ही, यह जरूरी नहीं. हफ्ते भर की छुट्टी भी मिले तो लेह, तवांग या सिक्किम से मुजफ्फरपुर, पिथौरागढ़ या कोयंबटूर पहुंचने में ही तीन दिन लग जाते हैं. आरक्षण न हो तो भी जाता है.
हम फौजियों को बर्थ पर दो इंच की जगह नहीं देते. एक टिकट चेकर को मैंने एक फौजी की पत्नी से बहुत खराब भाषा में बात करते देखा, जो जम्मू में अपने पति से मिल कर मेरठ लौट रही थी और यात्र चालान का शायद कोई कागज भूल आयी थी. मैं टीटीइ पर गुस्सा हुआ, तो कोई सहयात्री मेरे साथ खड़ा नहीं हुआ.
फौजी के परिजन का क्या उनके जिलों के अधिकारी सम्मान करते हैं? अगर मकान-जायदाद या स्कूल में प्रवेश जैसे साधारण मामलों में फौजी के घरवाले किसी अफसर या प्रधानाचार्य से मिलने जायें, तो क्या वे लोग यह जान कर कि आनेवाले सज्जन फौजी परिवार से हैं, उनकी अतिरिक्त सुनवाई करते हैं? जल्दी काम का भरोसा देते हैं? वे तो दफ्तर के बाहर बेंच पर फौजी की पत्नी, माता-पिता को घंटों इंतजार करवा कर चपरासी से कहलवा देते हैं- आज मिलना नहीं होगा, कल दोबारा आना.
जिन विदेशियों की हम हजारों वर्ष पुराने इतिहास का दंभ दिखा कर बुराई करते हैं और जिनकी बाजारवादी संस्कृति का मखौल उड़ाते हैं, उनसे सीखिए कि सैनिक और उसके परिवार का सम्मान कैसे होता है. उनकी शहादत पर शहर उमड़ता है, श्रद्धांजलि दी जाती है और बताया जाता है कि यहां उस वीर के बच्चे पढ़ते हैं- इसलिए यह स्कूल महान है.
कर्नल एम एन राय की दो बेटियां हैं- अलका और ऋचा. एक बेटा है- आदित्य जो शायद पहली कक्षा में है. क्या अलका और ऋचा के विद्यालय में प्रधानाचार्य ने यह कष्ट किया कि बच्चों के सामने उस कर्नल की वीरता का बखान कर मौन श्रद्धांजलि दी जाये और बताया जाये कि इस विद्यालय में उस शहीद के बच्चे पढ़ते हैं. क्या उनके किसी कक्ष में उस वीर कर्नल का चित्र लगेगा?
शायद नहीं. प्रधानाचार्य का सरोकार बच्चों की पढ़ाई से है, यह काम उस परिधि में नहीं आता. स्कूल में जाति, बिरादरी, दानदाताओं, धार्मिक नेताओं या स्कूल के प्रबंधन से जुड़े लोगों के चित्र लग सकते हैं, लेकिन उनके नहीं, जिनकी हिम्मत की बदौलत ये तमाम लोग जिंदा हैं और उनकी इमारतें सही-सलामत हैं.
एक बात बस कह कर देख लीजिए कि जिन कायरों ने हमारे सैनिक पर हमला कर उन्हें शहीद किया, उनकी तमाम जमातों को खत्म कर इस शहादत का प्रतिशोध लेना होगा. बस बिफर पड़ेंगे आप पर-ये तमाम खद्दरधारी नक्सली विचारक और गिलानी के दिल्लीवाले रक्षा-कवच.
आपको सांप्रदायिक, युद्धोन्मादी, हिंसक और पाकिस्तान से दोस्ती का विरोधी जंग-खोर साबित कर दिया जायेगा. भाई, अपनी सरहद के भीतर अगर हम संविधान विरोधी आतंकवाद खत्म करने की बात करें, तो इसमें पाकिस्तान से दोस्ती का खाना खराब करने का कहां से मिजाज आ गया? दोस्ती की खातिर हम अपने जवानों पर हमले सहन करते रहेंगे?
एम एन राय और अलका तीन पीढ़ियों के प्रतिनिधि हैं. एक पीढ़ी ने अपने तीनों बेटों को फौज में देने का मन बनाया, यह नहीं सोचा कि एक भले फौज में जाये, बाकी दो तो अपने आसपास नौकरी करे. तीसरी पीढ़ी ने पिता की शहादत पर अपनी गोरखा पलटन का नारा बुलंद करते हुए गर्वीली श्रद्धांजलि दी. ऐसा परिवार धन्य है.
वे तमाम नेता और अभिनेता, जिनके परिवार का कोई बेटा शायद ही कभी दुर्लभता से फौज में गया होगा, उन साधारण अध्यापक नागेंद्र प्रसाद राय और उनकी पोती अलका के सामने निहायत बौने हैं.

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