आतंकवाद ताकतवर इसलिए हुआ है कि जो नेता उसके विरुद्ध बयान देते हैं, वे बिना दांत की संस्था चला रहे हैं. लादेन को मार गिराने पर गर्व करनेवाले ओबामा ने कभी यह नहीं कहा कि हम सईद, दाऊद, लखवी को कमांडो भेज कर मार गिरायेंगे.
अगर मृतकों की संख्या कम हो, तो इसका मतलब यह नहीं कि उन आतंकवादियों के इरादों पर देश-दुनिया में चर्चा ही नहीं हो. झारखंड और कश्मीर के चुनाव विश्लेषण में पूरा देश इतना व्यस्त था कि बहुत बाद इसका एहसास हुआ कि असम में बोडो आतंकियों ने कितना बड़ा कांड किया है. शायद टीवी चैनलों को लगा होगा कि 70 से अधिक वनवासियों की मौत पर क्या बहस करें, पिछले हफ्ते ही पेशावर के तालिबान आतंकियों पर जम कर जुबानी जमाखर्च कर लिया था, जिन्होंने 145 जानें ली थीं. संयुक्त राष्ट्र महासचिव बान की मून ने जब पेशावर घटना पर बयान दिया कि आतंक के विरुद्ध दुनिया के देश एक हों, उस समय भारत को चाहिए था कि वह इस विचार को आगे बढ़ाता. पता नहीं बान की मून के लिए असम के आदिवासी, जो अब इस दुनिया में नहीं हैं, कितना महत्व रखते हैं. असम में 2016 में विधानसभा चुनाव होना है, उससे पहले पूर्वोत्तर में आतंकवाद नये सिरे से दस्तक दे रहा है, इसे लेकर केंद्र को अभी से सतर्क हो जाना चाहिए.
असम से बहुत दूर दिल्ली में बैठे बुद्घिजीवी और नीति-निर्माता अब तक यही समझते रहे कि दक्षिणी भूटान में बोडो, अल्फा के 12 कैंपों को ध्वस्त करने के बाद पूर्वोत्तर को आतंकवाद से मुक्ति मिल गयी. 2003 में जब बोडो अतिवादियों के कैंप ध्वस्त किये गये, तब दिसंबर का ही महीना था, और देश में भारतीय जनता पार्टी की सरकार थी. 13 दिसंबर, 2003 को तत्कालीन भूटान नरेश जिग्मे सिग्ये वांगचुक ने उस समय के प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को 12 बोडो कैंपों को ध्वस्त कर देने के बारे में जानकारी दी थी. इस ऑपरेशन के बाद बोडो सरगना परेश बरुआ समेत कई बड़े आतंकी बांग्लादेश भाग गये. 23 दिसंबर, 2014 को कोकराझार और सोनितपुर में हुए हिंसक कांड के पीछे एनडीएफबी (नेशनल डेमोक्रेटिक फ्रंट ऑफ बोडोलैंड) का हाथ बताते हैं. एनडीएफबी के दो लोग पिछले हफ्ते एक पुलिस ऑपरेशन में मारे गये थे. असम के आइजी (कानून-व्यवस्था) एसएन सिंह ने इसे बदले की कार्रवाई कहा है. असम में चूंकि गैर-भाजपा सरकार है, इसलिए केंद्र इसे कितनी गंभीरता से लेता है, यह एक बड़ा सवाल है.
संयुक्त राष्ट्र महासचिव बान की मून 10 और 11 जनवरी को ‘गुंजायमान गुजरात शिखर बैठक-2015’ के लिए भारत आ रहे हैं. बान की मून के आने के पखवारे भर पहले असम में यह कांड हुआ है. असम में 2016 में विधानसभा चुनाव होना है, इसलिए 2015 में कई बार आतंकी हमले होने की आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता. भूटान, बांग्लादेश और म्यांमार के कारण पूर्वोत्तर में सक्रिय आतंकी गुट, और उनके काम करने के तरीके इसलामी दहशतगर्दो से थोड़े अलग हैं. इनसे निपटना एक अलग किस्म की चुनौती है, जिसके लिए जंगल युद्ध में माहिर कमांडो, और उसी तरह के हथियार चाहिए. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पता होना चाहिए कि पूर्वी एशिया तक व्यापार और विकास का मार्ग प्रशस्त करना है, तो पूर्वोत्तर में आतंकवाद को समाप्त करना ही होगा. यह संयोग है कि 2015 में संयुक्त राष्ट्र की स्थापना के 70 साल पूरे हो जायेंगे, और संयुक्त राष्ट्र महासचिव बान की मून भी 70 साल के हो जायेंगे. ऐसे जोश-ओ-जश्न के माहौल में आतंकवाद पर चिंता क्या औपचारिकता भर रहेगी, या उसके उन्मूलन में संयुक्त राष्ट्र की कोई अहम भूमिका भी होगी?
यों, पाकिस्तान से आतंकवाद उन्मूलन के वास्ते नये सिरे से बातचीत का एक अच्छा अवसर हम धीरे-धीरे खोते जा रहे हैं. बल्कि, पेशावर हमले के बाद भारत को चाहिए था कि वह पूरी दुनिया में इसका आह्वान करता कि दक्षिण एशिया को आतंक मुक्त करने के लिए एक संयुक्त मोर्चा बने. इसमें पूर्वी एशिया के देशों से भी भारत सहयोग ले सकता है, जिनसे हमारे दोस्ताना संबंध हैं. पाकिस्तान के विरुद्ध भारतीय संसद में प्रस्ताव पास कर हमने यह संदेश तो दे दिया कि भारत अब बर्दाश्त करनेवाला देश नहीं है, और हमारे सांसद पाकिस्तान के दोहरे रवैये के सवाल पर एकमत हैं. लेकिन इससे इसलामाबाद से संवाद का मार्ग अवरुद्ध हो गया. सवाल यह है कि 2015 को दहशत से मुक्ति का वर्ष क्यों नहीं घोषित किया जा सकता?
एक लाख 11 हजार 512 की संख्यावाली संयुक्त राष्ट्र शांति सेना में जब भारत-पाकिस्तान के सैनिक साझा रूप से फ्रंट पर लड़ सकते हैं, तो आतंकग्रस्त दक्षिण एशिया में साथ-साथ क्यों नहीं लड़ सकते? इसकी तारीफ कीजिये कि ‘नाटो’ में सिर्फ 40 हजार सैनिक हैं, लेकिन इराक से लेकर अफगानिस्तान तक आतंकवाद से भिड़ने में सबसे आगे यही लोग रहे हैं. क्या संयुक्त राष्ट्र के किसी महासचिव ने कभी इस पर विचार किया कि दुनियाभर में आतंकवाद से लड़ने के लिए बहुराष्ट्रीय सेना, और एक ताकतवर खुफिया एजेंसी को विकसित करना जरूरी है. ऐसा क्यों है कि चेचन्या से लेकर शिंचियांग, नाइजीरिया से लेकर सोमालिया, और सीरिया से लेकर अफगानिस्तान तक आतंक की लड़ाई को वहीं के लोग, और सरकारें ङोल रही हैं?
नाटो जैसी संस्था को अमेरिका और उसके पश्चिमी मित्र अपने हिसाब से चला रहे हैं, तो उसके पीछे संयुक्त राष्ट्र का मूकदर्शक बने रहना भी है. अपने पूर्ववर्तियों की तरह बान की मून की विवशता है कि वह आतंक के विरुद्ध बहुराष्ट्रीय अभियान छेड़ने का अहद, अकेले नहीं कर सकते. उसके लिए उन्हें व्हाइट हाउस की अनुमति लेनी होगी. यही आतंकवाद विरोधी अभियान का सच है. आतंकवाद ताकतवर इसलिए हुआ है कि जो नेता उसके विरुद्ध बयान देते हैं, वे बिना दांत की संस्था चला रहे हैं. ओसामा बिन लादेन को मार गिराने पर गर्व करनेवाले राष्ट्रपति ओबामा ने कभी यह नहीं कहा कि हम हाफिज सईद, दाऊद इब्राहिम, जकीउर रहमान लखवी को कमांडो भेज कर मार गिरायेंगे. फिर भी हमारे मोदी जी गणतंत्र दिवस पर मुख्य अतिथि के रूप में आनेवाले ओबामा पर गर्व करेंगे. ओबामा के आने पर, यदि इस मसले पर बात हो कि भारत को उसके पड़ोस से प्रायोजित आतंकवाद से कैसे निजात दिलायी जाये, तो शायद देशहित में यह एक अच्छी पहल होगी. भारत को यह भी देखना होगा कि 2015 के अफगानिस्तान में चीन और रूस की क्या दिलचस्पी है, और उसके अनुरूप हमें किस तरह से रणनीतिक बदलाव करना है. कश्मीर में विधानसभा चुनाव के बाद यदि हम यह सोचते हैं कि वहां पर संपूर्ण शांति बहाल हो जायेगी, तो यह हमारी सबसे बड़ी भूल होगी. फाटा, स्वात और बलूचिस्तान के सैन्य अभियान से बचे-खुचे आतंकी कश्मीर सीमा की ओर रुख करेंगे, ऐसे खतरों के प्रति सरकार को अभी से सतर्क हो जाना चाहिए!
पुष्परंजन
संपादक, ईयू-एशिया न्यूज
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