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संस्कृति की राजनीति और ‘घर वापसी’

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धर्म-परिवर्तन को ‘घर-वापसी’ कहना नये अर्थो के निर्माण के जरिये इतिहास में वापसी का ही अभियान है. इस अभियान का विरोध कानून की भाषा में नहीं हो सकता. विपक्ष के सामने चुनौती प्रतिरोध की राजनीति की एक नयी भाषा गढ़ने की है. राजनीति और साहित्य में बहुत समानता है. दोनों में चुनौती नये अर्थ के […]

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धर्म-परिवर्तन को ‘घर-वापसी’ कहना नये अर्थो के निर्माण के जरिये इतिहास में वापसी का ही अभियान है. इस अभियान का विरोध कानून की भाषा में नहीं हो सकता. विपक्ष के सामने चुनौती प्रतिरोध की राजनीति की एक नयी भाषा गढ़ने की है.

राजनीति और साहित्य में बहुत समानता है. दोनों में चुनौती नये अर्थ के निर्माण की होती है. राजनीति नये अर्थ का निर्माण करके वस्तु-जगत में यथास्थितिवाद का विरोध करती है और साहित्य नवीन अर्थ-रचना से भाव-जगत में. दोनों का आधार संस्कृति ही है. नये अर्थ की रचना के लिए संस्कृति ही शब्द प्रदान करती है. शायद इसलिए साहित्य और राजनीति के बीच अर्थ-निर्माण में एक-दूसरे से आगे निकलने की होड़ लगी रहती है.

कुछ संगठन साहित्य और राजनीति के भेद को बड़ी चतुराई से मिटाते हैं, जैसे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस). ऐसे संगठन चाहते हैं कि साहित्य और राजनीति परस्पर विरोधी अर्थो के निर्माण का उपकरण न रह जायें, दोनों एक हो जायें. संघ इसी कारण अपने को सांस्कृतिक संगठन कहता है और हिंदू-संस्कृति के सुधार के अपने मिशन में थोक-भाव से नये अर्थो के निर्माण में जुटा रहता है. ‘संघ’ का मानस राजनीति, साहित्य और धर्म में फर्क नहीं करता. ‘संघ’ का स्वयंसेवक राजनीति करते हुए कह सकता है कि वह साहित्य कर रहा है और जब तक आप उसका साहित्य समङों, तब तक वह बता चुका होता है कि दरअसल आप गलत समझ रहे हैं- वह तो धर्मोपदेश कर रहा था.

संघ-परिवार नवीन अर्थो की उद्भावना की फैक्ट्री है- जब तक आप यह नहीं मान लेते, तब तक इस फैक्ट्री पर ताला नहीं लग सकता. गांधी की हत्या के बाद एक दफे सरदार पटेल ने कोशिश की थी इस पर ताला जड़ने की. तब पटेल को लगा था, आरएसएस ‘हिंसा की राजनीति’ कर रहा है. पर, पटेल की इस समझ को आरएसएस ने तुरंत दुरुस्त कर दिया. वह ‘राजनीति’ शब्द से पीछा छुड़ा कर ‘संस्कृति’ करने लगा. 1949 के अपने संविधान में उसने मान लिया कि ‘उसकी कोई राजनीति नहीं’ है. आप राजनीति पर पाबंदी लगा सकते हैं, संस्कृति पर नहीं. आरएसएस का मिशन संस्कृति को बदलना है, क्योंकि संस्कृति के बदलने से सब कुछ बदल जाता है- समाज, राजनीति और साहित्य सब कुछ!

विश्व हिंदू परिषद (विहिप) की धर्मातरण की कोशिशें राजनीतिक गोलबंदी का औजार भर नहीं, बल्कि नये अर्थ-निर्माण के जरिये ‘भारत’ शब्द के बुनियादी अर्थ में बदलाव की है. भारत का बुनियादी अर्थ कतार में खड़े ‘अंतिम जन’ के उत्थान से बंधा हुआ है. संघ इस ‘अंतिम जन’ को ‘हिंदू’ में बदलना चाहता है. ऐसा हिंदू जिसके बीच जाति-भेद नहीं है, क्षेत्र और भाषा का भेद नहीं है, क्योंकि भेद को मानने के साथ न्याय का सवाल खड़ा होता है. जो छुआछूत के शिकार हुए, जिन्हें बंधुआ मजदूर बनाया गया, जिनकी भाषा छीन ली गयी और ग्रंथ नष्ट या भ्रष्ट कर दिये गये, उनका इतिहास एकबारगी आंखों के सामने आ खड़ा होता है. फिर, आपको मनुष्यमात्र की बराबरी के तर्क से इंसाफ करना पड़ता है.

जिसका जो ऐतिहासिक रूप से बकाया है, उसे वह चुकाना पड़ता है. विहिप को ऐसे भविष्य से डर लगता है. लेकिन, वह इंसाफ की धारणा से बंधा होने के कारण मनुष्यमात्र की समानता के मूल्य से इनकार भी नहीं कर सकता. नतीजतन, वर्तमान के संघर्षो को विराम देने के लिए संघ-परिवार समरसता की बात कहता है और समरसता को साधने के लिए हमेशा इतिहास को जीवित करने की कोशिश में लगा रहता है. उसका अभियान इतिहास में वापसी का है. इसलिए, वह एक काल्पनिक हिंदू की रचना में व्यस्त है, एक ऐसा हिंदू जिसकी एकमात्र भाषा संस्कृत है, जिसका एकमात्र गौरव-ग्रंथ गीता है, जो सदैव अपने स्मृतियों के सप्तसैंधव प्रदेश में रहता है और जहां से वैकल्पिक राष्ट्रीयता का समवेत स्वर ‘संगच्छध्वं संवदध्वं सं वो मनांसि जानताम्’ के रूप में उठता है.

इतिहास में वापसी के लिए संस्कृति के अर्थ बदलने होते हैं. जहां संघर्ष है, वहां समरसता दिखानी पड़ती है. नये अर्थो का निर्माण इसमें औजार की तरह प्रयुक्त होता है. छद्म-सेक्युलरिज्म कहना अर्थ-निर्माण की ऐसी ही कोशिश थी. संघ ने कहा कि धर्म तो सबको धारण करता है, सो राजनीति धर्म से बाहर कैसे हो सकती है. ऐसा कह कर संघ ने धर्म के सार्वजनिक (राजनीति) और निजी (ईश्वर संबंधी आस्था) स्वरूप का भेद गौण कर दिया. धर्म-परिवर्तन को ‘घर-वापसी’ कहना नये अर्थो के निर्माण के जरिये इतिहास में वापसी का ही अभियान है. यह अभियान हिंदू को शुद्ध मानता है. इतिहास में पड़ कर स्वयं को हिंदू समझनेवाले व्यक्ति के भीतर जितने बदलाव हुए, वह सब अशुद्ध है. यह अभियान इसी मान्यता से प्रेरित है. ऐसा कहते ही देश के ज्यादातर मुसलमान और ईसाइयों को आप आदि-हिंदू मान सकते हैं, सेक्युलरों को राह भूला हुआ हिंदू कह सकते हैं. जो आपसे सहमत नहीं है उसे विदेशी बता सकते हैं.

संघ-परिवार के इतिहास वापसी के इस अभियान का विरोध कानून की भाषा में नहीं हो सकता. विपक्ष के सामने चुनौती प्रतिरोध की राजनीति की एक नयी भाषा गढ़ने की है.

चंदन श्रीवास्तव

एसोसिएट फेलो, सीएसडीएस

chandanjnu1@gmail.com

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