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असम की हिंसा का हो स्थायी समाधान

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असम के कोकराझार व सोनितपुर जिलों में चाय बागानों में काम करनेवाले 70 से अधिक निदरेष आदिवासी प्रतिबंधित संगठन नेशनल डेमोक्रेटिक फ्रंट ऑफ बोडोलैंड (एनडीएफबी) की गोलियों के शिकार हो गये. केंद्र और राज्य सरकारों के अलावा असम पुलिस के बयानों से लगता है कि पहली नजर में वे इसे कानून-व्यवस्था बहाली की समस्या मान […]

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असम के कोकराझार व सोनितपुर जिलों में चाय बागानों में काम करनेवाले 70 से अधिक निदरेष आदिवासी प्रतिबंधित संगठन नेशनल डेमोक्रेटिक फ्रंट ऑफ बोडोलैंड (एनडीएफबी) की गोलियों के शिकार हो गये. केंद्र और राज्य सरकारों के अलावा असम पुलिस के बयानों से लगता है कि पहली नजर में वे इसे कानून-व्यवस्था बहाली की समस्या मान कर चल रहे हैं. ऐसी समझ का परिणाम हमेशा एक-सा निकलता है.

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पुलिस गश्त और तैनाती बढ़ जाती है, धड़-पकड़ होती है और संघर्ष को अलगाववाद का नाम देकर देश की राष्ट्रीय एकता-अखंडता के लिए खतरा बताया जाता है.

इससे तात्कालिक तौर पर शांति बहाली में तो मदद मिलती है, पर समस्या खत्म नहीं होती. कोकराझार का इलाका कभी बोडो बनाम बांग्लादेशी मुसलमान, तो कभी बोडो बनाम संथाल के खूनी संघर्ष के इतिहास को दोहराता रहता है. इलाके की सबसे पुरानी बोडो जनजाति को लगता है कि उसके परंपरागत वास-स्थान में जीविका के संसाधनों पर गैर-बोडो आबादी का कब्जा बढ़ रहा है. इसी भावना से बोडो जनजाति ने 1985 के बाद अलग प्रदेश (बोडोलैंड) की राजनीति चलायी और हिंसा का सहारा लिया.

1990 के दशक के आखिरी पांच साल इलाके में विभिन्न बोडो संगठनों की हिंसा के गवाह रहे. बोडो संगठनों की हिंसा के प्रतिरोध में आदिवासी संथाल कोबरा फोर्स जैसे संगठन भी सामने आये और पारस्परिक हिंसा में पूरा इलाका सैन्यीकृत हो गया. राजनीतिक समाधान की एक कोशिश 2003 में हुई और बोडो लोगों के लिए सीमित स्तर की स्वायत्तता सुनिश्चित करने के लिए बोडोलैंड टेरीटोरियल काउंसिल कायम किया गया. बोडो लोगों को शिकायत है कि इस काउंसिल को पूर्ण प्रशासनिक अधिकार नहीं मिले.

जाहिर है, समस्या संसाधनों पर हक के सवाल के राजनीतिकरण की है. इसका स्थायी समाधान विकास को बढ़ावा देकर और विकास-प्रक्रिया में परस्पर विरोधी हितों वाले समुदायों को न्यायसंगत ढंग से शामिल करके किया जा सकता है, कानून-व्यवस्था बहाली की समस्या मान कर नहीं. पूर्वोत्तर में शांति बहाली नयी सरकार की प्राथमिकताओं में है और उम्मीद की जानी चाहिए कि केंद्र सरकार असम के जनजातीय संघर्ष का समाधान विकासवादी नजरिये से करेगी.

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