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खतरनाक है प्रधानमंत्री की चुप्पी

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पवन के वर्मा सांसद एवं पूर्व प्रशासक धार्मिक ध्रुवीकरण से शासन, सामाजिक शांति और आम नागरिकों की सुरक्षा नष्ट हो सकती है. जब देश सांप्रदायिक हिंसा की ओर बढ़ रहा हो और प्रधानमंत्री कुछ कहने से मना कर रहे हों, तो क्या ऐसे में संसद सामान्य तरीके से कामकाज कर सकती है? पिछले सप्ताह राज्यसभा […]

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पवन के वर्मा
सांसद एवं पूर्व प्रशासक
धार्मिक ध्रुवीकरण से शासन, सामाजिक शांति और आम नागरिकों की सुरक्षा नष्ट हो सकती है. जब देश सांप्रदायिक हिंसा की ओर बढ़ रहा हो और प्रधानमंत्री कुछ कहने से मना कर रहे हों, तो क्या ऐसे में संसद सामान्य तरीके से कामकाज कर सकती है?
पिछले सप्ताह राज्यसभा अधिकांश समय सुचारु रूप से नहीं चल सकी. संसद के कामकाज में व्यावधान कोई अनुकरणीय स्थिति नहीं है.
खासकर तब, जब सारा देश टेलीविजन पर उसका सीधा प्रसारण देख रहा हो. ब्रिटेन का हाउस ऑफ कॉमंस अपने पूरे इतिहास में एक बार भी स्थगित नहीं हुआ है. हम भी जल्दी ही उस स्थिति में हो सकते हैं, जब हम कह सकेंगे कि ऐसा एक भी दिन नहीं गुजरा है, जब हमारी संसद स्थगित नहीं हुई हो! लेकिन, हंगामे की यह स्थिति चाहे जितनी निंदनीय और दुर्भाग्यपूर्ण हो, इसके कारणों को समझना बहुत जरूरी है.
उत्तर प्रदेश से लोकसभा में सांसद और खाद्य प्रसंस्करण विभाग की मंत्री साध्वी निरंजन ज्योति ने दिसंबर की पहली तारीख को दिल्ली में एक सभा को संबोधित करते हुए कहा कि जो भाजपा के साथ हैं, वे ‘रामजादे’ हैं और जो उसके खिलाफ हैं वे ‘हरामजादे’ हैं. देश भर में उनके इस बयान और इसके पीछे छिपे सांप्रदायिक नजरिये की घोर निंदा हुई. साध्वी ने सांसद और मंत्री के रूप में लिये गये शपथ का उल्लंघन किया था, संविधान की अवमानना की थी. उनका कृत्य एक ऐसा अपराध है, जिसके लिए भारतीय दंड संहिता के अंतर्गत जेल का प्रावधान है. स्वाभाविक रूप से विपक्ष ने साध्वी की बर्खास्तगी की मांग की. लेकिन, भाजपा नेतृत्व के विचार में मंत्री का संसद के दोनों सदनों में खेद प्रकट कर लेना काफी था.
विपक्ष के लगातार दबाव, जो कि उसने राज्यसभा के निरंतर स्थगन के जरिये बनाया था, के परिणामस्वरूप प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी दोनों सदनों में आये और इस तरह के बयानों के प्रति अपनी ‘नाराजगी’ जाहिर की तथा संसद से इस महिला मंत्री को क्षमा करने का निवेदन किया. उन्होंने इस निवेदन के पीछे यह कारण भी बताया कि वह मंत्री ‘एक गांव से’ आती हैं.
प्रारंभ से ही मंत्री के इस्तीफे की मांग कर रहा विपक्ष इतने से संतुष्ट नहीं था, लेकिन समझौते की दृष्टि से उसने सदन में मंत्री के ऐसी भाषा प्रयोग करने के विरुद्ध निंदा-प्रस्ताव की मांग की. सत्ताधारी वर्ग इस पर भी राजी नहीं था, लेकिन अंतत: राज्यसभा के सभापति को एक प्रस्ताव पढ़ना पड़ा, जिसमें सभी मंत्रियों और सदस्यों को आपत्तिजनक भाषण न देने की हिदायत दी गयी थी.
हालांकि, यह समझौता मंत्री को हटाने की तार्किक मांग से बहुत ही अलग था, लेकिन विपक्ष ने इस पर सहमति देकर सदन को चलने देने के लिए आवश्यक नरम रुख का प्रदर्शन किया. लेकिन, इस घटनाक्रम के कुछ ही दिन बाद भाजपा के एक अन्य सांसद साक्षी महाराज ने अपने अजीबो-गरीब बयान में नाथूराम गोडसे को राष्ट्रभक्त बता दिया. उसी समय, एक अन्य सांसद योगी आदित्यनाथ ने कई सांप्रदायिक बयान देते हुए सामूहिक ‘पुनर्धर्मातरण’, घर-वापसी की बात कही, ताकि मुसलमानों और ईसाइयों को हिंदू धर्म में लाया जा सके. इसी दौरान आगरा से धर्म जागरण समिति और बजरंग दल द्वारा मुसलमानों के बलपूर्वक धर्मातरण कराने की खबरें भी आ रही थीं. इससे पूर्व दिल्ली में एक चर्च में आगजनी कर उसे जला दिया गया.
विपक्षी पार्टियां धार्मिक द्वेष फैलाने के इन धृष्टतापूर्ण प्रयासों के विरुद्ध फिर एकजुट हुई थीं. लोकसभा में भी विरोध हुआ, लेकिन वहां बहुमत की ‘निरंकुशता’ के मुकाबले विपक्ष की संख्या अत्यंत कम है. लेकिन, राज्यसभा में स्थिति बिल्कुल उलट है, जहां सत्तापक्ष अल्पमत में है. इस सदन में एकजुट विपक्ष ने भारत के धार्मिक और सामाजिक सद्भाव को जान-बूझ कर नुकसान पहुंचाने की कोशिशों पर एक बहस के दौरान प्रधानमंत्री की मौजूदगी की मांग की. उसने मांग की कि प्रधानमंत्री सदन को यह भरोसा दें कि सरकार ऐसी भड़काऊ कोशिशों को रोकने के लिए प्रतिबद्ध है. प्रधानमंत्री ने ऐसा करने से मना कर दिया और तब से राज्यसभा की कार्यवाही रुकी पड़ी है.
क्या विपक्ष की यह मांग अतार्किक है? प्रधानमंत्री ने ही साध्वी के बयान पर नाराजगी जाहिर की थी. लेकिन, उनकी इस नाराजगी का उन्हीं के सांसदों पर कोई असर नहीं हो पा रहा है. ऐसी स्थिति में क्या उनसे उनके मंतव्य पर स्पष्टीकरण मांगना तार्किक नहीं है? बहस के लिए सभापति द्वारा स्वीकर किया गया विषय- ‘भारत के धर्मनिरपेक्ष चरित्र पर हमला’- किसी एक मंत्रालय के अधिकार-क्षेत्र से बाहर है. जब किसी विषय में एक से अधिक मंत्रालय संबद्ध होता है, तो मंत्री परिषद् के प्रमुख के रूप में प्रधानमंत्री का बयान देना कोई असामान्य बात नहीं है. मंत्रियों के काम का निर्धारण प्रधानमंत्री करते हैं, जिस पर राष्ट्रपति की मंजूरी होती है. सारे नीतिगत निर्णय प्रधानमंत्री के ही विशेषाधिकार होते हैं. इस मसले से संविधान की शुचिता संबंधित थी. इसलिए विपक्ष की मांग का समर्थन करने के उचित कारण मौजूद थे.
यह सही है कि मंत्रिमंडल की सामूहिक जिम्मेवारी के सिद्धांत के तहत कोई भी मंत्री सदस्यों के प्रश्नों का जवाब दे सकता है. लेकिन, लोकतांत्रिक मर्यादा यह भी है कि जब समूचा विपक्ष प्रधानमंत्री से एक महत्वपूर्ण मामले पर बयान का निवेदन कर रहा हो, तो उन्हें इस मांग पर सकारात्मक रुख अपनाना चाहिए. काफी हद तक निश्चितता से यह कहा जा सकता है कि अगर जवाहरलाल नेहरू या इंदिरा गांधी या अटल बिहारी वाजपेयी होते, तो ऐसी स्थिति में समूचे विपक्ष की ऐसी मांग को मानने के लिए शायद ही उन्हें मनाने की कोई जरूरत पड़ती.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के अस्वीकार से उग्र संघ-परिवार के उपद्रवी तत्वों को हिम्मत मिली है. शुक्रवार को जब राज्यसभा एक बार फिर स्थगित हुई, उसी समय धर्म जागरण समिति के नेता राजेश्वर सिंह के इस बयान की खबरें आ रही थीं कि भारत में मुसलमानों और ईसाइयों के लिए कोई जगह नहीं है और वे 2021 तक इस देश को विशिष्ट हिंदू राष्ट्र बना देंगे. उधर, हिंदू महासभा के अध्यक्ष चंद्र प्रकाश कौशिक ने भी यह घोषणा की कि उनका संगठन देशभर के सार्वजनिक स्थलों पर गोडसे की मूर्तियां स्थापित करेगा. और मानव संसाधन मंत्रालय अब तक कोई संतोषजनक जवाब नहीं दे सका है कि वह स्कूलों को क्रिसमस के दिन खुला क्यों रखना चाहता है.
हमारी बड़ी चिंताएं सही साबित हो रही हैं. धार्मिक ध्रुवीकरण से भाजपा को अल्पकालिक चुनावी लाभ हो सकता है, पर आनेवाले समय में इससे शासन, सामाजिक शांति और आम नागरिकों की सुरक्षा नष्ट हो सकती है. जब देश तेजी से सांप्रदायिक हिंसा की ओर बढ़ रहा हो और प्रधानमंत्री कुछ कहने से मना कर रहे हों, तो क्या ऐसे में संसद सामान्य तरीके से कामकाज कर सकती है, मानो कोई खतरा ही नहीं है?

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