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बाह्य-आंतरिक खतरों की चुनौतियां

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आइएसआइएस नामक दानव के खतरे को सामने खड़ा कर आइएसआइ अपनी करतूतों से हमारा ध्यान भटकाने में सफल रहा है. संतोष का विषय सिर्फ इतना है कि वर्तमान गृह मंत्री तथा राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार दोनों इस पेचीदगी से सुपरिचित हैं. हमारे गृह मंत्री ने ‘आइएसआइ’ की बढ़ती गतिविधियों से पैदा खतरे के प्रति हमें सतर्क […]

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आइएसआइएस नामक दानव के खतरे को सामने खड़ा कर आइएसआइ अपनी करतूतों से हमारा ध्यान भटकाने में सफल रहा है. संतोष का विषय सिर्फ इतना है कि वर्तमान गृह मंत्री तथा राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार दोनों इस पेचीदगी से सुपरिचित हैं.

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हमारे गृह मंत्री ने ‘आइएसआइ’ की बढ़ती गतिविधियों से पैदा खतरे के प्रति हमें सतर्क किया है. सरकार के कुछ आलोचक यह टिप्पणी करते रहे हैं कि यह तो महज रस्म अदायगी है. एनडीए की सरकार तो नाम मात्र की है, उसका असली संस्कार भाजपाई है, अत: इसे हर जगह इसलामी कट्टरपंथी साजिश नजर आ रही है. हमारी समझ में राष्ट्रीय सुरक्षा जैसे संवेदनशील मसले में दलगत पक्षधरता से तत्काल छुटकारा पाने की जरूरत है. इधर जो खबरें सुर्खियों में हैं, उनसे यह साफ है कि आइएसआइ वाली चेतावनी निराधार नहीं. यह सच है कि आतंकवाद का कोई धर्म नहीं होता, लेकिन इस बात की अनदेखी करना नामुमकिन होता जा रहा है कि दुनिया भर में सक्रिय दहशतगर्द खुद को जेहादी-फिदायीन घोषित करते हैं और आत्मघाती हमलावर रंगरूट की भर्ती उनके मन में सांप्रदायिक असहिष्णुता का ज्वार पैदा कर किया जा रहा है. यही कारण है कि आयरलैंड से लेकर नाइजीरिया, सूडान, पाकिस्तान, भारत, बांग्लादेश, मलेशिया, फिलिपींस तक आइएसआइ का जबर्दस्त हौवा है. एक दिन में इसलामी दहशतगर्दी का शिकार औसतन पांच छह सौ लोग होते हैं.

दुर्भाग्य है कि भारत में दहशतगर्दी से जुड़ी बहस भारत-पाक संबंधों के मकड़जाल से निकल ही नहीं पाती. उधार की धर्मनिरपेक्षता का बोझ ढोते-ढोते अधिकांश विश्लेषकों की तटस्थता का क्षय हो चुका है. जनतांत्रिक चुनावी राजनीति में वोटबैंकों का अपना दबाव होता है और अल्पसंख्यकों की संवेदनशीलता के प्रति दिखावटी संवेदना से सही राजनीतिक समझदारी वाला तर्क रही-सही कसर पूरी कर देता है. सिर्फ एक दिन की कुछ खबरों पर नजर डालें- नाइजीरिया की एक मसजिद पर आतंकी हमले में 125 बेगुनाह मारे गये और 270 घायल. चीन के शीगजियांग प्रांत में इसलामी कट्टरपंथी अलगाववादियों की हिंसा के 15 लोग शिकार हुए. भारतीय प्रधानमंत्री के मणिपुर दौरे के दौरान बम धमाका हुआ और श्रीनगर के लालचौक में सुरक्षा कर्मियों के नाके पर ग्रेनेड के हमले में 8 सिपाही घायल, जिसमें एक की हालत गंभीर. अमेरिका में कई जगह इमारतों में गोलीबारी की खबरें हैं. बर्दवान धमाके के आरोपी को घर लौटने की इजाजत के साथ सवा करोड़ रुपये खर्चा-पानी के लिए दिये जाने के सुराग मिले हैं. इन तमाम सूचनाओं के मद्देनजर गृह मंत्री की चेतावनी को गंभीरता से लेने की जरूरत है.

बर्दवान धमाके के तार बांग्लादेश तक पहुंचते दिख रहे हैं. पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री कह रही हैं कि शारदा चिटफंड घोटाला उन्हें घेरने के लिए उनके राजनीतिक विरोधियों की साजिश है. लेकिन, अब तक इस बात के कई सबूत जगजाहिर हैं कि ममता स्वयं भले ही बेदाग हों, उनके विश्वासपात्र सहयोगी इस आपराधिक प्रकरण में लिप्त थे. सबसे ज्यादा चिंताजनक बात यह है कि संभवत: चिटफंड से जुटायी संपदा देश की सुरक्षा को संकटग्रस्त करनेवाले तत्वों तक पड़ोसी बांग्लादेश में पहुंचाया जा रहा था. यह शंका मुखर करना जायज है कि यह घपला सिर्फ वित्तीय अपराध या राजनीतिक भ्रष्टाचार तक सीमित नहीं है.

गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने एक और महत्वपूर्ण मुद्दे को रेखांकित किया है. आइएसआइ पाकिस्तान सरकार का एक विभाग है- सेना से संबद्ध, पर निरंकुश गुप्तचर संगठन. हाल के वर्षो में आइएसआइ की रणनीति यह रही है कि स्वयं पाकिस्तान को दहशतगर्दी का शिकार घोषित कर सहानुभूति जुटाने का प्रयास किया जाये और यह ‘प्रमाणित’ किया जा सके कि भारत की शिकायत भले ही जायज हो, पाकिस्तान अपनी जमीन पर सक्रिय आतंकवादियों की नाक में नकेल कसने में असमर्थ है. अगर बेचारा पाकिस्तान ‘असफल’ राज्य है, तो उसे दोष कैसे दिया जा सकता है? इस परदे के पीछे से यह संगठन जगह-जगह अपने निर्मित मंच पर अपने कठपुतलों को नचाता रहता है. बांग्लादेश, म्यांमार और सीमावर्ती पूर्वोत्तरी राज्यों में आइएसआइ के जहरीले खेल के कारण ही आपराधिक गतिविधियां बढ़ती रही हैं, असम हो या त्रिपुरा, स्थानीय नागरिकों तथा घुसपैठिये शरणार्थियों के बीच हिंसक सघर्ष रक्तरंजित होता जा रहा है. इसको अनदेखा करना उचित नहीं होगा. चकमा, रोहिंगिया, अराकानी बनाम बर्मन, बंगाली अहोम वैमनस्य की लपटें भड़काने के लिए मुसलमान अल्पसंख्यकों को उकसाने के साथ मानवाधिकारों की रक्षा के नाम पर समर्थन दिया जा रहा है.

समस्या यह है कि विश्वव्यापी घटनाक्रम के परिप्रेक्ष्य में भारत की आंतरिक सुरक्षा की हिफाजत के लिए पड़ोसियों के सहयोग की संभावना निरंतर घटती नजर आ रही है. चीन खुद लहुलूहान होने के बावजूद भारत की तुलना में पाकिस्तान के साथ अपनी सामरिक दोस्ती को ज्यादा वजनदार समझता रहेगा. मध्यपूर्व और अफ-पाक मोर्चे के दलदल में फंसा अमेरिका इतनेभर से संतुष्ट है कि कम से कम 9/11 जैसे हमले से वह बचा रहा है. उसकी नजर में आइएसआइ आइएसआइएस से कम खतरनाक है, जो नये तरह के विरोध की घोषणा कर चुका है!

इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता कि आइएसआइएस नामक दानव के खतरे को सामने खड़ा कर आइएसआइ अपनी करतूतों से हमारा ध्यान भटकाने में सफल रहा है. दूसरी दिक्कत यह है कि नेपाल, बांग्लादेश, म्यांमार, मालदीव में आइएसआइ की घुसपैठ को विदेश मंत्रलय की जिम्मेवारी समझा जाता है- एक राजनयिक चुनौती! कहीं यह असंतुलित समीकरण पाक-चीन वाला है, तो कहीं नेपाल-चीन या फिर श्रीलंका-चीन वाला. इन जगहों पर पहली चुनौती हमारी आंतरिक सुरक्षा से जुड़ी हुई है. संतोष का विषय सिर्फ इतना है कि वर्तमान गृह मंत्री तथा राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार दोनों इस पेचीदगी से सुपरिचित हैं.

देश की सीमा की रखवाली की जिम्मेवारी का बड़ा हिस्सा सीमा सुरक्षा बल, भारत-तिब्बत-सीमा पुलिस का रहा है. दंगों-उपद्रवों पर नियंत्रण पाने के लिए सीआरपीएफ ही अकसर तैनात की जाती है. हवाई अड्डों तथा सार्वजनिक क्षेत्र के औद्योगिक प्रतिष्ठानों की हिफाजत केंद्रीय औद्यौगिक सुरक्षा बल करता है. ये सभी गृह मंत्रलय के आधीन हैं. इस समय यह याद दिलाना इसलिए जरूरी है, ताकि यह समझाया जा सके कि बदले माहौल में हमारी आंतरिक सुरक्षा जिस तरह संकटग्रस्त हो रही है, उसके मद्देनजर इस तरह का विभागीय विभाजन बड़ी अक्लमंदी की बात नहीं. विदेश मंत्रलय ही नहीं वित्त मंत्रलय तथा गृह मंत्रलय के कृयाकलाप में अभुतपूर्व समायोजन जरूरी है. देश की एकता-अखंडता को बाहरी आक्रमण से बचाने की चुनौती जितनी विकट होती है, उससे कम आंतरिक सुरक्षा को निरापद रखने की नहीं है.

पुष्पेश पंत

वरिष्ठ स्तंभकार

pushpeshpant@gmail.com

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