यह जो ‘गया’ है, वह जो ‘गयाजी’ है
निराला 150 वर्ष का हो जायेगा गया बीते तीन अक्तूबर को बतौर जिला गया 150वें साल में प्रवेश कर गया. तीन अक्तूबर 1865 को गया जिला बना था. उसके पहले वह बिहार जिला था. जुलाई 1787 में अंगरेजों ने बिहार जिले का सृजन किया था और तब गया ही उसका मुख्यालय बना था. लेकिन बिहार […]
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निराला
150 वर्ष का हो जायेगा गया
बीते तीन अक्तूबर को बतौर जिला गया 150वें साल में प्रवेश कर गया. तीन अक्तूबर 1865 को गया जिला बना था. उसके पहले वह बिहार जिला था. जुलाई 1787 में अंगरेजों ने बिहार जिले का सृजन किया था और तब गया ही उसका मुख्यालय बना था.
लेकिन बिहार जिला मुख्यालय बनने या बाद में गया जिला मुख्यालय बनने के पहले से ही गया अपने आप में हमेशा खास बना रहा. पुराणों, इतिहासों से लेकर तमाम किस्म के दस्तावेजों में समाया गया दुनिया के प्राचीनतम नगरों में से एक तो है ही, मगध के इस गढ़ को समझना हो तो इसे ऐसे भी समझ सकते हैं.
कहते हैं कि गया का ताल्लुक गयासुर से रहा है. एक असुर के नाम पर बसे इस नगर से जुड़ाव और इसकी अपनी जीवंतता तो देखिए. गयाजी. पूरे मगध इलाके से लेकर दूसरे जगह के लोग और गया में रहनेवाले ठेठ गयवाल भी इसी नाम से बुलाते है इस नगर को. अपने शहर को. महज तीर्थ स्थल होने की वजह से, धर्म की नगरी होने की वजह से, मोक्ष की नगरी होने की वजह से, ज्ञान की नगरी होने की वजह से. ऐसा भी नहीं कह सकते.
क्योंकि तीर्थ तो इस देश में कई हैं, इतने आदर से शायद नाम लेने की परंपरा लोकमानस में किसी तीर्थस्थल को लेकर पीढ़ियों से नहीं रची-बसी है. नाम की ही एक और बात. तीर्थों को ही देख लेते हैं. जो काशी था, वह बनारस के रूप में मशहूर हो गया. जो प्रयागराज था, वह इलाहाबाद हो गया लेकिन गया जो था, वही है. गया या फिर गयाजी. बचपन से ही गया से नाता रहा है. ननिहाली का शहर होने की वजह से.
लेकिन जिस गया को पिछले एक-दो साल से जान-समझ रहा हूं, वैसा पहले कभी नहीं समझ सका था. ‘घर की मुरगी दाल बराबर’ जैसा भी भाव था, शायद. विष्णुपद मंदिर, फल्गु नदी, बोधगया, पिता महेश्वर, मंगला गौरी, दिग्धी तलाव, बिसार तलाव, तिलकुट, लाई, अनरसा, गयवाल बोली, गयवाल पंडा, गया की गरमी, गया की ठंड, गया की गंदगी, गया के मच्छर. गया के पहाड़, गया के तालाब, तिलकुट, अनरसा, लाई.. वगैरह-वगैरह.
कुछ और किस्सों के जरिये भी : जैसे ‘गया में पहाड़ बिना पेड़ के, नदी बिना पानी के और आदमी बिना दिमाग के’ गयवालों को चिढ़ाने के लिए ही यह किस्सा प्रचलित हुआ होगा कभी. बाद में ट्रेन में एक रुपये वाली किताब में गया के बारे में एक पंक्तियों को भी रटा- ‘सेहत के लिए अंडे का, लड़ाई में डंडे का और गया में पंडे’ का बड़ा ही महत्व है.
ऐसी ही कई फुटकटिया बातें बचपने से ही मानस में रचा-बसा कर गया को जानते रहा. लेकिन अब गया को जैसे-जैसे जानना-समझना शुरू किया है, वैसे-वैसे यही शहर रोजाना नये-नये तरीके से रोमांचित करता है, आकर्षित करता है, बार-बार बुलाता है. धर्म की नगरी, मोक्ष की नगरी, गयासुर का काल, राम के पिंडदान, विष्णु के चरण पड़ने की कथा-कहानी या सिद्घार्थ नामक एक राजकुमार के पहुंचने पर बुद्घ बन जानेवाली कहानी को भी छोड़ दें तो गया दूसरे कई मायने में खास है.
16 दरवाजे में बंद अंदर गया को आज भी देखें, वह अलग कहानी कहता है. 16 दरवाजे में बंद गया का रास्ता जहां खत्म होता है, वहीं से धर्म और मोक्ष के बाद भोग की गली भी शुरू होती है. इसी शहर ने गायकी की दुनिया में गुलाबबाई जैसी मशहूर गायिका को दिया, जिन्हें पूरब-अंग की ठुमरी की उस्ताद गायिका कहा जाता था. जद्दनबाई गया में आकर रहीं. जिनके चाहनेवाले कद्रदान देश-दुनिया भर में थे. इसी शहर में पन्नालाल बारिक जैसे हारमोनियम मास्टर हुए. इसी शहर की छप्पनछुरी हुई, जो रंगकर्म, सिनेमा आदि के क्षेत्र में जानेवाली इलाके की पहली महिला बनी.
गया इलाके में ही ईश्वरीपुर गांव है, जिसे गवइया-बजवइयाकलाकारों का गांव कहते हैं. यहीं पास में पथरकटवा गांव है, जहां पत्थर को तराशकर बेपनाह मोहब्बत और इबादत करनेवाली मूर्तियां बनानेवाले कलाकार रहते हैं. गया के पास ही कनेर बाजार है, पीतल के कारोबार के लिए मशहूर रहा गांव. गया में मानपुर है, जिसे कभी कपड़े के कारोबार की वजह से मैनचेस्टर जैसा कुछ-कुछ कहा जाता था. मानपुर में ही पटवाटोली है, जहां की तंग गलियों से हर साल प्रतिभाएं आइआइटी तक पहुंचती हैं.
पास में ही कुर्कहार जैसे कई गांव हैं, जहां गली-गली में, घर-घर में न जाने कितने सालों से, कितने-कितने रूपों में बुद्घ विराजमान हैं. गया शहर के पंडों की अपनी भाषा है, जिसे वे जजमानों के लिए इस्तेमाल करते हैं. बहुत कुछ है गया में. गया जिला, जो अब नवादा, औरंगाबाद, नालंदा, जहानाबाद, अरवल, चतरा आदि के रूप में विभक्त हो चुका है, उसे मिला दें तो गया के लोगों की और समृद्घ विरासत की कहानी अलग बनेगी.
फिलहाल उधर छोड़ देते हैं. गया की भी बहुत सारी बातों को छोड़ देते हैं, सिर्फ तीन को याद करते हैं, समझ जाइयेगा कि विष्णु या फल्गु की वजह से धर्म या बुद्घ की वजह से ज्ञान की धरती के रूप में स्थापित यह नगर, यह इलाका उससे अलग भी कितना उर्वर रहा है. एक तो यहीं के वजीरगंज के पास वीर बहादुर सिंह हुए. वही वीर बहादुर सिंह, जो 1937 में हुए चुनाव में जनप्रतिनिधि बने थे. धाकड़ कांग्रेसी नेता था. कांग्रेस में थे और कांग्रेस को ही पानी पिलाये रखते थे.
अपनी ही सरकार के घोटाले की कहानी को सबके सामने बताते थे. सदन में भी, सदन के बाहर भी. बिना किसी डर-भय कि आलाअलम क्या कार्रवाई करेंगे उन पर. इसी इलाके के जगेश्वर प्रसाद खलिस थे. वही खलिस, जिन्होंने लिखा- बर्बाद गुलिस्तां करने को, बस एक ही उल्लू काफी था. हर साख पर उल्लू बैठा है, अंजाम गुलिस्तां क्या होगा. और बाकी प्रेम, संघर्ष और सृजन के महानायक दशरथ मांझी को तो जानते ही हैं सब जिन्होंने प्रेम के जरिये, प्रेम के लिए जीवन के मुक्ति का अलग मार्ग बताया.
(लेखक समाचार पत्रिका तहलका से संबद्ध हैं)