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पटना भगदड़ भीड़ प्रबंधन में सक्षम नहीं पुलिस

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उत्सवों और धार्मिक आयोजनों के दौरान भगदड़ से होनेवाली मौतों की दुखद खबरें हमारे देश में अक्सर आती रहती है. इन हादसों के बाद जांच के लिए टीम बना कर और मारे गये लोगों के लिए मुआवजे की घोषणा कर सरकार अपना कर्तव्य पूरा मान लेती है. हादसों के असली कारणों तक पहुंचने और उनसे […]

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उत्सवों और धार्मिक आयोजनों के दौरान भगदड़ से होनेवाली मौतों की दुखद खबरें हमारे देश में अक्सर आती रहती है. इन हादसों के बाद जांच के लिए टीम बना कर और मारे गये लोगों के लिए मुआवजे की घोषणा कर सरकार अपना कर्तव्य पूरा मान लेती है.

हादसों के असली कारणों तक पहुंचने और उनसे सबक लेकर भविष्य में इन्हें रोकने के उपायों के संबंध में ठोस कदम नहीं उठाये जाते हैं. दशहरा उत्सव के दौरान पटना के गांधी मैदान में हुआ दुखद हादसा इसी कड़ी का हिस्सा है.

पटना में हुई भगदड़ की घटना कोई प्राकृतिक आपदा नहीं, बल्कि मानव निर्मित आपदा है. प्रशासन के लोगों को पता था कि दशहरा के मौके पर यहां बड़ी भीड़ जमा होगी. हर साल ऐसा होता रहा है. लेकिन इस भीड़ को संभालने के लिए समुचित व्यवस्था नहीं की गयी थी. न तो भीड़ से निबटने के लिए पर्याप्त संख्या में पुलिस बल की तैनाती की गयी थी, न ही भीड़ के गांधी मैदान से बाहर निकलने के लिए पर्याप्त संख्या में गेट खोले गये थे.

विकसित देशों में भीड़ नियंत्रण के लिए न सिर्फ पुलिस को पेशेवर ट्रेनिंग दी जाती है, बल्कि प्रशासन भी समुचित व्यवस्था और तैयारी पहले से ही कर लेता है. लेकिन हमारे यहां दिक्कत यह है कि हमारा पुलिस बल पेशेवर नहीं है. मौजूदा पुलिस बल भीड़ को नियंत्रित करने में सक्षम नहीं है. भीड़ अनियंत्रित होने पर पुलिस अकसर बल प्रयोग का सहारा लेने लगती है. जबकि, ज्यादातर विकसित देशों में पुलिस ऐसी भीड़ को नियंत्रित करने में दक्ष है और अत्यंत विशेष परिस्थितियों में ही बल प्रयोग करती है. पटना में हुए हादसे से साफ जाहिर जाहिर है कि प्रशासन ने भीड़ से निबटने की पर्याप्त तैयारी नहीं की थी. जहां भी भीड़ जमा होती है, वहां पानी पीने की व्यवस्था, स्वास्थ्य सुविधाएं और निकासी की उचित व्यवस्था करना बुनियादी जरूरत होती है. साथ ही अवांछित लोगों की गतिविधियों पर नजर रखने की व्यवस्था भी की जाती है.

भीड़ से निबटने के लिए स्पष्ट दिशा-निर्देश भी हैं, लेकिन जिस तरह की व्यवस्था पटना में की गयी थी उससे प्रशासन की असंवेदनशीलता जाहिर होती है. प्रशासन का काम सिर्फ वीआइपी लोगों की सुरक्षा करने तक सीमित नहीं है, आम लोगों के जान-माल की हिफाजत करना सबसे बड़ी जिम्मेदारी है. देश में आबादी के हिसाब से पुलिस बल की संख्या भी काफी कम है. काफी समय से पुलिस सुधार की बात चल रही है, लेकिन कोई भी राज्य सरकार इसे लेकर गंभीर नहीं है. भारत में सरकारों के लिए लोगों के जीवन की कीमत सिर्फ मुआवजे तक सीमित है. हमारे यहां सरकारें कुछ लाख रुपये के मुआवजे देकर अपने कर्तव्यों को पूरा मान लेती है. जबकि, ऐसे हादसों का आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक तौर पर असर पड़ता है. हमारे शासन की समस्या यह है कि शासन करनेवाले में सेवा की भावना नहीं है. वे अपने को सेवक नहीं मानते हैं. सिर्फ अपने कर्तव्य को किसी तरह पूरा कर लेने की प्रवृत्ति के कारण लोगों का भरोसा शासन से उठता जा रहा है. इस कड़ी में आम लोगों को भी अपना कर्तव्य समझना होगा. सिर्फ सरकार के भरोसे बदलाव की उम्मीद नहीं की जा सकती है. आम नागरिकों को भी अपने अंदर सुरक्षा और संरक्षा की भावना का विकास करना होगा. साथ ही, लोगों को आपदा प्रबंधन के बारे में जागरूक करने के लिए शैक्षणिक स्तर पर इसका ज्ञान देने की कोशिश करनी चाहिए.

देश में आपदा से निबटने के लिए विशेष विभाग का गठन किया गया है, लेकिन यह विभाग ऐसे हादसों से निबटने में खुद ही सक्षम नहीं है. मीडिया, स्वयंसेवी संगठनों को भी लोगों को जागरूक करना होगा. जापान जैसा देश बड़े से बड़े हादसों से बेहद कम मानव क्षति के साथ निबट लेता है, क्योंकि इससे सरकार और नागरिक दोनों मिलकर लड़ते हैं.

मेरा मानना है कि बड़े आयोजनों के सफल संचालन के लिए प्रशासन को आधुनिक तकनीक का भी अधिक और बेहतर इस्तेमाल करना चाहिए. सीसीटीवी कैमरे और अन्य उपकरणों से भीड़ पर बेहतर तरीके से नियंत्रण किया जा सकता है. साथ ही भीड़ प्रबंधन से संबंधित नियमों और कानूनों का सख्ती से पालन किया जाना चाहिए. छोटे-छोटे उपायों को प्रोत्साहन देकर बड़ा लक्ष्य हासिल किया जा सकता है. लेकिन लगता है कि बिहार में प्रशासन ने पूर्व के हादसों से सबक नहीं सीखा है. ऐसे हादसों से राज्य की छवि खराब होती है. आपदा प्रबंधन तंत्र में आम लोगों को भागीदार बनाकर ऐसे मानव निर्मित हादसों को आसानी से रोका जा सकता है.

(बातचीत पर आधारित)

डॉ बरुण कुमार प्राध्यापक, भूगोल, दिल्ली विश्वविद्यालय

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